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मॉ ही मंदिर, माँ ही पूजा
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अपनी बात की शुरुआत एक प्यारे-से प्रसंग के साथ कर रहा हूँ। एक बहुत चंचल और खूबसूरत लड़की थी। लड़की अपनी माँ से बहुत प्यार करती थी, पर ग़लत सोहबत में पड़ जाने के कारण लड़की अपने सदाचार से विमुख हो गई। लोगों के बहकावे में आकर उसने अपने घर का त्याग कर डाला। वह घर से भाग गई, पर बाद में घर से दूर रहकर उसे पछतावा हुआ।
जीवन में होने वाले अनाचार से दुःखी होकर जीवन में अपनाए गए पाप के मार्ग से वह आत्मग्लानि से भर गई। उसने अपने आपको खत्म करने का इरादा कर लिया। जिन लोगों के बीच वह फंस चुकी थी, वहाँ से छिपतेछिपाते निकल गई और खुदकुशी करने का तरीका सोचने लगी कि तभी उसके मन में भाव आया कि मैं मरने से पहले जन्म देने वाली माँ का मुँह जरूर देख लूँ। वह अपने मौहल्ले की ओर चल पड़ी।
मौहल्ले में और कोई उसे पहचान न ले, इसलिए वह अंधेरे में अपने घर की गली में पहुंची। उसे लगा कि उसके भीतर इतना साहस नहीं है कि वह
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