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पत्थर से ऐसा करें
मधुरम् ।
मधुरम् ॥
काँटों में से ही फूल खिले, और हम भी तो अपने जीवन में, कुछ अधरं मधुरं नयनं मधुरम्, हृदयं कर लो चन्द्रं मधुरं ललितं मधुरं जीवन कर लो हमें उन बातों पर विचार करना चाहिए जो बातें हमारे वैर-विरोध को कम करती हों, कैंची का नहीं, बल्कि सूई-धागे का काम करती हों । महाभारत अब तक ख़ूब लड़ लिया । महाभारत से भारत का भला नहीं होने वाला। शकुनि और मंथराएँ तो हमारे घरों को तोड़ेंगी ही, उजाड़ेंगी ही । हमें केवल राम-लक्ष्मण-सीता की पूजा ही नहीं करनी है, बल्कि राम-लक्ष्मण, भरत के प्रेम, त्याग और मर्यादा को भी जीवन में जीना है । केवल पूजा करना सान्त्वना पुरस्कार है और आदर्शों को जीवन में जीना सच्चा अध्यात्म है। हम लोग प्रेम के उपासक बनें जिनके प्रति वैर-विरोध की गाँठें हैं उन्हें खोलें, क्षमा माँगें या क्षमा करें और फिर से अपने टूटे हुए रिश्तों में मिठास का अमृत घोलें ।
आज-कल अपन लोगों पर व्यक्तिवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। एक माता-पिता की अगर तीन संतानें हैं तो तीनों ही स्वतंत्र रहना पसंद करती हैं। जिन्होंने जन्म दिया, पाला-पोसा बड़ा किया, लोग उनके प्रति अपने दायित्वों से विमुख होते जा रहे हैं। वे संतानें पुण्यशाली हैं जो अपने माता-पिता की सेवा और दायित्व जिम्मेदारी के साथ संभाले हुए हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए संन्यासी होना आसान हो सकता है, पर श्रवणकुमार होना कठिन है। मातापिता की सेवा स्वयं ही अपने आप में एक तपस्या है, त्याग है, व्रत है, अनुष्ठान है। महावीर और अरिहंत बाद में बनना, पहले राम और श्रवणकुमार तो बन जाओ। यदि हम माता-पिता से जुड़े अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपने पर चढ़े मातृ-ऋण और पितृ ऋण से उऋण हुए बग़ैर ही जिए और उऋण हुए बग़ैर ही मरे ।
पानी ।
करम ॥
प्रेम को अगर जीना है तो प्रेम की पहली प्रेरणा है : तुम अपने स्वजनों से, परिजनों से प्रेम करो। सास-बहू से, बहू - सास से प्रेम करे। सास बहू में बेटी का, बेटी सास में माँ का रूप निहारे । अब तुम्हारी कोई ससुराल गई बेटी तो तुम्हें संभालने के लिए बार-बार आने से रही । बहू को ही बेटी बना लो, ताकि तुम उसके सुख-दुख का ख़्याल रख सको और वह तुम्हारे सुख-दुख का । मैं
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