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सामने बहिन को खड़े पाया तो और चौंका । उसने पूछा- माँ कहाँ है ? सबके चेहरे लटके हुए थे। चेहरे बयां कर रहे थे कि माँ नहीं रही।
बेटे को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उसे अपना अतीत याद हो आया। उसे लगा कि उसने अपनी माँ के साथ ठीक व्यवहार नहीं किया। आगे बढ़ा तो देखा कि सामने सफेद चादर में लिपटी माँ की लाश पड़ी थी। बहन ने टोका- भैया, तुम्हारे हाथ इस काबिल नहीं हैं कि तुम दिवंगत माँ के पाँव छुओ। जो व्यक्ति जीते जी अपनी माँ के काम न आया वह माँ के मरने के बाद उसके हाथ लगाने के भी काबिल नहीं रहता। बहिन की इस कटाक्ष भरी बोली को सुनकर आक्रोश भरी नज़रों से बहिन को देखा। उसने वृद्धाश्रम के संचालक से पूछा- क्या आखिरी सांस लेने से पहले माँ ने मुझे याद किया था? संचालक ने दर्दभरी आवाज में कहा- डॉक्टर, पिछले ढाई सालों में तुम्हारी माँ केवल तुम्हें ही याद करती रही। मरने से पहले भी उसकी यही अन्तिम इच्छा थी कि वह मरने से पहले अपने बेटे का मुँह देख ले, लेकिन तुम न आए तो न ही आए। हाँ तुम्हारी माँ ने जाने से पहले तुम्हारे लिए ये दो लिफाफे दिए हैं।
उसने देखा कि एक लिफाफा पतला था और दूसरा मोटा। उसने लिफाफे हाथ में लिये और पतला लिफाफा खोला। उसमें माँ का लिखा एक ख़त था। लिखा था
___ "मेरे प्यारे बेटे, आख़िर तुम आ गए। मुझे विश्वास था कि तुम ज़रूर आओगे। जब मैं यह ख़त लिखवा रही हूँ तो मैं अपनी अन्तिम भावना व्यक्त कर रही हूँ कि मैं मरने से पहले तुम्हारी शक्ल जरूर देखू।
बेटे, तुम कितने अच्छे बेटे थे कि तुमने हर महिने मुझे पाँच सौ रुपए भिजवाए। तुमने मेरी देखभाल करवायी। मुझे इस घर में कोई तक़लीफ नहीं हुई। जितना सुख मुझे ससुराल या पीहर में नहीं मिला, उससे ज्यादा सुखशान्ति मुझे 'अपना घर' में मिली है। बेटा, मुझे यहां एक पैसा भी खर्च करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। मैं जो साड़ियाँ अपने साथ लाई थी उसी में ही मेरे ढाई वर्ष निकल गए। खाना-पीना मुझे यहाँ पर मुफ्त में मिलता था तो एक पैसा भी काम न आया। बेटा, तुमने हर महीने पाँच सौ रुपए भेजे जो ढाई वर्ष में पन्द्रह हजार रुपए हो गए। मैं मरने से पहले ये पन्द्रह हजार रुपए इस
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