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शिक्षिका भी है। अपने बच्चों को बेहतर संस्कार देकर उन्हें बेहतर इंसान बनाना किसी भी देश की सरकार को चलाने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। चाहे पौराणिक काल की पार्वती हो या त्रेता युग की सीता अथवा द्वापर युग की कुंती या यशोदा, चाहे राजा-महाराजाओं के युग की जीजाबाई या अहिल्याबाई हो अथवा हमारे युग की मदर टेरेसा हो अथवा मेरी और आपकी माँ हो, अपने द्वारा दी जाने वाली ममता, मोहब्बत, बेहतर संस्कार और बेहतर जीवन के कारण ही सदा-सदा पूजनीय रहती है, जॉर्ज वाशिंग्टन ने लिखा है कि मैं अपने जीवन में झूठ कभी भी इसलिए नहीं बोल पाया क्योंकि बचपन में एक बार झूठ बोलने पर माँ ने यह कहते हुए झन्नाटेदार चांटा मारा था कि मैं झूठे बेटे की माँ कहलाने की बजाय बांझ कहलाना ज्यादा पसंद करूंगी।
माँ तो ममता की महादेवी है। माँ तो सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है। माँ बस माँ नहीं, संस्कारों को देने वाली शिक्षिका और गुरु भी है। माँ अपने आप में त्याग का यज्ञ है, कुर्बानी का ज़ज्बा है। हमने अब तक साधना-केन्द्र तो देखे होंगे, मगर समता और समाधि का ऐसा मन्दिर नहीं देखा होगा जो कि माँ के रूप में आपके घर में है।
एक सच्ची घटना है। एक हँसता-खिलता परिवार था। परिवार बहुत प्रेम से रह रहा था कि कुदरत का कहर बरपा। पिताजी का असमय निधन हो गया। पीछे बच गई माँ और उसका अकेला बेटा। पिता की यह तहेदिल की इच्छा थी कि उसका बेटा डॉक्टर बने। पिता के देहावसान के पश्चात माँ पर अपने बच्चे का सारा दायित्व आ गया था। उसे रह-रहकर अपने पति की ख्वाहिश याद आती। माँ सोती तब भी उसे अपने पति के शब्द याद आ जाते। उसने ठान लिया कि मैं पति की इच्छा पूरी करूँगी और बच्चे को डॉक्टर बनाऊँगी।
बेटे का भविष्य बनाने के लिए वह लोगों के यहाँ काम करने के लिये जाती। जो आमदनी होती उससे अपने बच्चे को पढ़ाती-लिखाती। जो थोड़ा बहुत गहना था उसे बेचा, मकान भी बेच डाला, एक झुग्गी-झोपड़ी में आकर रहने लग गई। पर जैसे-तैसे उसने अपने बेटे को अन्ततः डॉक्टर बना ही दिया।
समय बीता, बेटे की शादी हुई। बहू भी डॉक्टर मिली। फिर शुरू हुआ पुरानी और नई पीढ़ी के बीच असन्तुलन का सिलसिला। सास को बहू का
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