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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः
आगम-१५
प्रज्ञापना आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-१५
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पद/उद्देश /सूत्र
आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
आगमसूत्र-१५- "प्रज्ञापना' उपांगसूत्र-४ -हिन्दी अनुवाद
क्रम
विषय
पृष्ठ क्रम
पृष्ठ
०१ प्रज्ञापना
१२४
०२ स्थान
१२५
१२९
क्रिया
१३६
१४२
२४
१५१
०३ | बहुवक्तव्यता | ०४ स्थिति | ०५ विशेष ०६ व्युत्क्रान्ति ०७ उश्वास
संज्ञा | ०९ योनि १० चरम
१५३
०८
२६
१५४
कहां क्या देखे?
विषय ००५ | १९ सम्यक्त्व ०२३ | २० अन्तक्रिया ०३७ २१ अवगाहना-संस्थान ०४९ २२ ०५५ | २३ कर्मप्रकृति ०६६ कर्मबन्धन ०७३ | २५ कर्मवेद ०७४ कर्मवेदबंध ०७५ । २७ कर्मवेदवेदक ooo | २८ आहार ०८२ २९ उपयोग ०८८
पश्यता ०९१ | ३१ संज्ञी ०९३ | ३२ । संयम ०९४ | अवधि ०७५ ३४ | प्रविचारणा १०८ ३५ | वेदना ११९ | ३६ समुद्धात
१५५
१५६
११ ।
भाषा
१६२
३०
१६३
१२ | शरीर
परिणाम
१६५
| कषाय
१६६
१६७
१६८
| इन्द्रिय १६ प्रयोग
लेश्या १८ | कायस्थिति
१७०
१७२
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
४५ आगम वर्गीकरण
सूत्र क्रम |
क्रम
आगम का नाम
आगम का नाम
०१ ।
| आचार
५
पयन्नासूत्र-२
०२
६
पयन्नासूत्र-३
सूत्रकृत् स्थान
०३
आतुरप्रत्याख्यान | महाप्रत्याख्यान | भक्तपरिज्ञा तंदुलवैचारिक संस्तारक
पयन्नासूत्र-४
समवाय
०५
भगवती
२९
०६
ज्ञाताधर्मकथा
अंगसूत्र-१ अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११
३०.१ | गच्छाचार
पयन्नासूत्र-५ पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८
०७
उपासकदशा
३०.२ | चन्द्रवेध्यक
०८
अंतकृत् दशा अनुत्तरोपपातिकदशा
गणिविद्या देवेन्द्रस्तव वीरस्तव
पयन्नासूत्र-९
पयन्नासूत्र-१०
१० । प्रश्नव्याकरणदशा ११ । विपाकश्रुत १२ औपपातिक
३४
निशीथ
उपांगसूत्र-१
बृहत्कल्प
राजप्रश्चिय
उपांगसूत्र-२
व्यवहार
१४ । जीवाजीवाभिगम
उपागसूत्र-३
३८
प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्ति
उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५
१६
३९
उपांगसूत्र-६
४०
दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प महानिशीथ
आवश्यक ४१.१ ।। ओघनियुक्ति ४१.२ पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक
छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२
चन्द्रप्रज्ञप्ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति निरयावलिका कल्पवतंसिका
उपांगसूत्र-७
१८ १९
उपागसूत्र-८
२०
उपागसूत्र-९
२१
४३
उत्तराध्ययन
उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११
४४
नन्दी
पुष्पिका पुष्पचूलिका
वृष्णिदशा २४ | चतुःशरण
अनुयोगद्वार
उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
10
[45]
06
मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य
आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम
साहित्य नाम मूल आगम साहित्य:
147 6 आगम अन्य साहित्य:1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1- याराम थानुयोग
06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net
-2- आगम संबंधी साहित्य
02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] | -3- ऋषिभाषित सूत्राणि
01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली
01 1-1-मागमसूत्रगुती सनुवाई
[47] | | आगम साहित्य- कुल पुस्तक
516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] | -4- सामसूत्रसटी ४राती सनुवाई | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12]
अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य:171 1तवाल्यास साहित्य
-13 -1- आगमसूत्र सटीक
[46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11151]| 3
વ્યાકરણ સાહિત્ય
05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-20
વ્યાખ્યાન સાહિત્ય
04 -4-आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य
09 | -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य
03 |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य
04 आगम कोष साहित्य:
149 પૂજન સાહિત્ય
02 -1- आगम सद्दकोसो
તીર્થકર સંક્ષિપ્ત દર્શન -2- आगम कहाकोसो [01] | 11ही साहित्य
05 -3-आगम-सागर-कोष:
[05] 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] | આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:
09 -1- भागमविषयानुभ- (भूग)
02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम
दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन RAAEEमुनिहीपरत्नसागरनुं साहित्य
| भुनिटीपरत्नसागरनुं सागम साहित्य [इस पुस्त8 516] तना हुदा पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त8 85] तना हुस पाना [09,270] 3 मुनिहीपरत्नसार संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तनाहुल पाना [27,930] |
अभा। प्राशनोहुल ०१ + विशिष्ट DVD हुल पाना 1,35,500
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र
[१५] प्रज्ञापना उपांगसूत्र-४- हिन्दी अनुवाद
पद-१-प्रज्ञापना
सूत्र-१
जरा, मृत्यु और उभय से रहित सिद्धों को त्रिविध अभिवन्दन कर के त्रैलोक्यगुरु जिनवरेन्द्र श्री भगवान् महावीर को वन्दन करता हूँ। सूत्र-२
भव्यजनों को निवृत्ति करनेवाले जिनेश्वर भगवान् ने श्रुतरत्ननिधिरूप सर्वभाव-प्रज्ञापना का उपदेश दिया है। सूत्र - ३,४
वाचक श्रेष्ठवंशज ऐसे तेईसमें धीरपुरुष, दुर्धर एवं पूर्वश्रुत से जिनकी बुद्धि समृद्ध हुई है ऐसे मुनि द्वाराश्रुतसागर से संचित कर के उत्तम शिष्यगण को जो दिया है, ऐसे आर्य श्यामाचार्य को नमस्कार हो । सूत्र-५
दृष्टिवाद के निःस्यन्द रूप विचित्र श्रुतरत्नरूप इस प्रज्ञापना-अध्ययन का श्रीतीर्थंकर भगवान् ने जैसा वर्णन किया है, मैं भी उसी प्रकार वर्णन करूँगा। सूत्र-६-९
(प्रज्ञापनासूत्र में छत्तीस पद हैं ।) १. प्रज्ञापना, २. स्थान, ३. बहुवक्तव्य, ४. स्थिति, ५. विशेष, ६. व्युत्क्रान्ति, ७. उच्छवास, ८. संज्ञा, ९. योनि, १०. चरम । ११. भाषा, १२. शरीर, १३. परिणाम, १४. कषाय, १५. इन्द्रिय, १६. प्रयोग, १७. लेश्या, १८. कायस्थिति, १९. सम्यक्त्व और २०. अन्तक्रिया । २१. अवगाहना-संस्थान, २२. क्रिया, २३. कर्म, २४. कर्म का बन्धक, २५. कर्म का वेदक, २६. वेद का बन्धक, २७. वेद-वेदक । २८. आहार, २९. उपयोग, ३०. पश्यत्ता, ३१. संज्ञी, ३२. संयम, ३३. अवधि, ३४. प्रविचारणा, ३५. वेदना एवं ३६. समुद्घात । सूत्र-१०
प्रज्ञापना क्या है ? दो प्रकार की है। जीवप्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना । सूत्र-११
वह अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? दो प्रकार की है । रूपी-अजीव-प्रज्ञापना और अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना । सूत्र-१२
वह अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? दस प्रकार की है । धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्ति-काय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशा-स्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धाकाल । सूत्र-१३
वह रूपी-अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? चार प्रकार की है । स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणुपुद्गल । वे संक्षेप से पाँच प्रकार के हैं, वर्णपरिणत, गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत ।
जो वर्णपरिणत होते हैं, वे पाँच प्रकार के हैं । काले वर्ण के रूप में, नीले वर्ण के रूप में, लाल वर्ण के रूप में, पीले वर्ण के रूप में और शुक्ल वर्ण के रूप में परिणत । जो गन्धपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं-सुगन्ध के रूप में और दुर्गन्ध के रूप में परिणत । रसपरिणत पाँच प्रकार के हैं । तिक्त रस के रूप में, कटु रस के रूप में, कषाय रस के रूप में, अम्ल रस के रूप में और मधुर रस के रूप में परिणत । स्पर्शपरिणत आठ प्रकार के हैं, कर्कश, मृदु, गुरु, लघु,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के रूप में परिणत । संस्थानपरिणत पाँच प्रकार के हैं । परिमण्डल, वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र और आयत संस्थान के रूप में परिणत ।
___ जो वर्ण से काले वर्ण में परिणत हैं, उनमें से गन्ध की अपेक्षा से सुरभिगन्ध-परिणत भी होते हैं, दुरभिगन्ध परिणत भी । रस से तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, यावत् मधुररस-परिणत भी होते हैं । उनमें से स्पर्श से कर्कशस्पर्शपरिणत भी होते हैं, यावत् रूक्षस्पर्श-परिणत भी । वे संस्थान से परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं । जो वर्ण से नीले वर्ण में परिणत होते हैं, उनमें से गन्ध की अपेक्षा सुगन्ध-परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी; रस से तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, यावत् मधुररस-परिणत भी । (वे) स्पर्श से
त भी होते हैं यावत रूक्षस्पर्श-परिणत भी । (वे) संस्थान से परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं. यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो वर्ण से रक्तवर्ण-परिणत हैं, उनमें से कोई गन्ध से सुगन्धपरिणत होते हैं, यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो वर्ण से हारिद्र वर्ण-परिणत होते हैं, उनमें से कोई गन्ध से सुगन्ध-परिणत भी होते हैं, यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो वर्ण से शुक्लवर्ण-परिणत होते हैं, उनमें से कोई सुगन्ध परिणत भी होते हैं यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी।
जो गन्ध से सुगन्ध-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण यावत शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं । वे रस सेतिक्तरस यावत् मधुररस-परिणत भी होते हैं । स्पर्श से-कर्कशस्पर्श यावत् और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं । (वे) संस्थान से-परिमण्डलसंस्थान यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं । जो गन्ध से-दुर्गन्धपरिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं।
जो रस से तिक्तरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् शुक्लवर्ण-परिणत भी। गन्ध से सुगन्ध-परिणत भी और दुर्गन्ध-परिणत भी होते हैं । स्पर्श से-(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत होते हैं, यावत् रूक्ष स्पर्श-परिणत भी । संस्थान से-वे परिमण्डलसंस्थान परिणत भी होते हैं, यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो रस से-कटुरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो रस से कषायरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान-परिणत भी। जो रस से अम्लरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान परिणत भी। जो रस से मधुररस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् संस्थान से-आयत संस्थानपरिणत भी । जो स्पर्श से कर्कशस्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् संस्थान सेआयतसंस्थान-परिणत भी।
जो स्पर्श से मृदु स्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण यावत् शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं । गन्ध सेसुगन्धपरिणत भी और दुर्गन्धपरिणत भी होते हैं । रस से-(वे) तिक्तरस यावत् मधुररस-परिणत भी । स्पर्श से-(वे) गुरुस्पर्श यावत् रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं । संस्थान से-परिमण्डलसंस्थान यावत् आयतसंस्थान-परिणत भी । जो स्पर्श से गुरुस्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान-परिणत भी । जो स्पर्श की अपेक्षा से-लघु स्पर्श से परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं; यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान-परिणत भी । जो स्पर्श से-शीतस्पर्शपरिणत होते हैं; वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान-परिणत भी । जो स्पर्श से उष्णस्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण परिणत भी होते हैं, यावत् संस्थान से-आयतसंस्थान-परिणत भी । जो स्पर्श से स्निग्धस्पर्श-परिणत हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी यावत् संस्थान से-आयातसंस्थान-परिणत भी होते हैं । जो स्पर्श से रूक्षस्पर्श-परिणत हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्णपरिणत भी होते हैं यावत् संस्थान से-आयतसंस्थानपरिणत भी होते हैं।
जो संस्थान से-परिमण्डलसंस्थान-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण यावत् शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं । गन्ध से-(वे) सुगन्ध-परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी । रस से-तिक्तरस यावत् मधुररस-परिणत भी होते हैं। स्पर्श से-(वे) कर्कशस्पर्श यावत् रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं । जो संस्थान की अपेक्षा से-वृत्तसंस्थान
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्णपरिणत भी होते हैं, यावत् स्पर्श से-रूक्षस्पर्श-परिणत भी । जो संस्थान से-त्रयस्रसंस्थानपरिणत हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत हैं, यावत् स्पर्श से-रूक्षस्पर्श-परिणत भी । जो संस्थान से चतुरस्रसंस्थानपरिणत हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् स्पर्श से-रूक्षस्पर्श-परिणत भी । जो संस्थान से आयतसंस्थान-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं यावत् स्पर्श से-रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं। यह हुई रूपी-अजीव-प्रज्ञापना। सूत्र-१४
वह जीवप्रज्ञापना क्या है ? दो प्रकार की है । संसार-समापन्न जीवों की प्रज्ञापना और असंसार-समापन्न जीवों की प्रज्ञापना। सूत्र-१५
वह असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? दो प्रकार की है । अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध-असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना। सूत्र - १६
वह अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? पन्द्रह प्रकार की है । (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकरसिद्ध, (४) अतीर्थंकरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धसिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्धबोधितसिद्ध, (८) स्त्रीलिंगसिद्ध, (९) पुरुषलिंगसिद्ध, (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध, (११) स्वलिंगसिद्ध, (१२) अन्यलिंगसिद्ध, (१३) गृहस्थलिंगसिद्ध, (१४) एकसिद्ध और (१५) अनेकसिद्ध । सूत्र-१७
वह परम्परसिद्ध-असंसारसमापन्न-जीव-प्रज्ञापना क्या है ? अनेक प्रकार की है । अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, यावत्-संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यात समयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध । सूत्र-१८
वह संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? पाँच प्रकार की है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय संसार-समापन्न-जीवप्रज्ञापना । सूत्र - १९
वह एकेन्द्रिय-संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? पाँच प्रकार की है । पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । सूत्र-२०
___ वे पृथ्वीकायिक जीव कौन-से हैं ? दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक । सूत्र-२१
सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? दो प्रकार के हैं । पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक सूत्र - २२
बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? दो प्रकार के हैं । श्लक्ष्ण और खरबादरपृथ्वीकायिक । सूत्र-२३
श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? सात प्रकार के हैं । कृष्णमृत्तिका, नीलमृत्तिका, लोहितमृत्तिका, हारिद्र मृत्तिका, शुक्लमृत्तिका, पाण्डुमृत्तिका और पनकमृत्तिका । सूत्र - २४
खर बादरपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-२५-२८
पृथ्वी, शर्करा, वालुका, उपल, शिला, लवण, ऊष, अयस्, ताम्बा, त्रपुष्, सीसा, रौप्य, सुवर्ण, वज्र । तथाहड़ताल, हींगुल, मैनसिल, सासग, अंजन, प्रवाल, अभ्रपटल । तथा- गोमेज्जक, रुचकरत्न, अंकरत्न, स्फटिकरत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकरत्न, मसारगल्लरत्न, भुजमोचकरत्न, इन्द्रनीलमणि । तथा- चन्द्ररत्न, गैरिकरत्न, हंसरत्न, पुलकरत्न, सौगन्धिकरत्न, चन्द्रप्रभरत्न, वैडूर्यरत्न, जलकान्तमणि और सूर्यकान्तमणि । सूत्र- २९
इन के अतिरिक्त जो अन्य भी तथा प्रकार के हैं, वे भी खर बादरपृथ्वीकायिक जानना । बादरपृथ्वीकायिक संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो पर्याप्तक हैं, इन के वर्ण-गंध-रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों भेद हैं । संख्यात लाख योनिप्रमुख हैं । पर्याप्तकों के निश्रा में, अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक (पर्याप्तक) होता है, वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते हैं ।)
यह हुआ खर बादरपृथ्वीकायिकों का निरूपण । सूत्र-३०
वे अप्कायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म और बादर । वे सूक्ष्म अप्कायिक किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । बादर-अप्कायिक क्या हैं ? अनेक प्रकार के हैं । ओस, हिम, महिका, ओले, हरतनु, शुद्धोदक, शीतोदक, उष्णोदक, क्षारोदक, खट्टोदक, अम्लोदक, लवणोदक, वारुणोदक, क्षीरोदक, घृतोदक, क्षोदोदक और रसोदक । ये और तथा प्रकार के और भी जितने प्रकार हों, वे सब बादरअप्कायिक समझना।
वे बादर अप्कायिक संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों भेद होते हैं । उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख हैं। पर्याप्तक जीवों के आश्रय से अपर्याप्तक आकर उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्तक हैं, वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। सूत्र-३१
वे तेजस्कायिक जीव किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वे बादर तेजस्कायिक किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । अंगार, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्ध अग्नि, उल्का विद्युत, अशनि, निर्घात, संघर्ष-समुत्थित और सूर्यकान्तमणि-निःसृत । इसी प्रकार की अन्य जो भी (अग्नियाँ) हैं (उन्हें बादर तेजस्कायिका समझना ।)
ये (बादर तेजस्कायिक) संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों भेद होते हैं । उनके संख्यात लाख योनि-प्रमुख हैं । पर्याप्तक के आश्रय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्तक होता है, वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते हैं ।) सूत्र-३२
वायुकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म और बादर । वे सूक्ष्म वायुकायिक कैसे हैं ? दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वे बादर वायुकायिक किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । पूर्वी वात, पश्चिमीवायु, दक्षिणीवायु, उत्तरीवायु, ऊर्ध्ववायु, अधोवायु, तिर्यग्वायु, विदिग्वायु, वातोद्भ्राम, वातोत्कलिका, वातमण्डलिका, उत्कलिकावात, मण्डलिकावात, गुंजावात, झंझावात, संवर्तकवात, घनवात, तनुवात और शुद्ध-वात । अन्य जितनी भी इस प्रकार की हवाएं हैं, (उन्हें भी बादर वायुकायिक ही समझना ।)
वे (बादर वायुकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के हैं । यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । इनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार हैं । इनके
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पद/उद्देश /सूत्र संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं । पर्याप्तक वायुकायिक के आश्रय से, अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक (पर्याप्तक वायुकायिक) होता है वहाँ नियम से असंख्यात (अपर्याप्तक वायुकायिक) होते हैं। सूत्र-३३
___ वे वनस्पतिकायिक जीव कैसे हैं ? दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म और बादर । सूत्र-३४
वे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र - ३५
बादर वनस्पतिकायिक कैसे हैं? दो प्रकार के हैं । प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक । सूत्र-३६, ३७
वे प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? बारह प्रकार के हैं । यथा- वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह और कुहण । सूत्र-३८-४१
ये वृक्ष किस प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं-एकास्थिक और बहुजीवक । एकास्थिक वृक्ष किस प्रकार के हैं? अनेक प्रकार के हैं । (जैसे) नीम, आम, जामुन, कोशम्ब, शाल, अंकोल्ल, पीलू, शेलु, सल्लकी, मोचकी, मालुक, बकुल, पलाश, करंज। तथा- पुत्रजीवक, अरिष्ट, बिभीतक, हरड, भल्लातक, उम्बेभरिया, खीरणि, धातकी और प्रियाल । तथा- पूतिक, करञ्ज, श्लक्ष्ण, शीशपा, अशन, पुन्नाग, नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक । सूत्र-४२
इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हों, उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिए । इन (एकास्थिक वृक्षों) के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं, तथा कन्द भी, स्कन्ध भी, त्वचा भी, शाखा भी और प्रवाल भी (असंख्यात जीवों वाले होते हैं), किन्तु इनके पत्ते प्रत्येक जीव वाले होते हैं । इनके फल एकास्थिक होते हैं।
और वे बहुजीवक वृक्ष किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं। सूत्र-४३-४६
(जैसे) अस्थिक, तेन्दु, कपित्थ, अम्बाडग, मातुलिंग, बिल्व, आमलक, पनस, दाडिम, अश्वत्थ, उदुम्बर, वट । तथा- न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पिप्पली, शतरी, प्लक्षवृक्ष, कादुम्बरी, कस्तुम्भरी और देवदाली । तिलक, लवक, छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुरज और कदम्ब।
*तथा- इस प्रकार के और भी जितने वृक्ष हैं सूत्र-४६-५२
(जिनके फल में बहुत बीज हों; वे सब बहुजीवक वृक्ष समझने चाहिए ।) इन (बहुजीवक वृक्षों) के मूल जीवों वाले होते हैं । इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा और प्रवाल भी (असंख्यात जीवात्मक होते हैं ।)
इनके पत्ते प्रत्येक जीवात्मक होते हैं । पुष्प अनेक जीवरूप (होते हैं) और फल बहुत बीजों वाले (हैं)।
वे गुच्छ किस प्रकार के होते हैं ? गुच्छ अनेक प्रकार के हैं । बैंगन, शल्यकी, बोंडी, कच्छुरी, जासुमना, रूपी, आढकी, नीली, तुलसी तथा मातुलिंगी । एवं- कस्तुम्भरी, पिप्पलिका, अलसी, बिल्वी, कायमादिका, चुच्चू, पटोला, कन्दली, बाउच्चा, बस्तुल तथा बादर। एवं- पत्रपूर, शीतपूरक, जवसक, निर्गुण्डी, अर्क, तूवरी, अट्टकी और तलपुटा |तथा सण, वाण, काश, मद्रक, आघ्नातक, श्याम, सिन्दुवार, करमर्द, आर्द्रडूसक, करीर, ऐरावण, महित्थ । तथाजातुलक, मोल, परिली, गजमारिणी, कुर्चकारिका, भंडी, जावकी, केतकी, गंज, पाटला, दासी और अंकोल्ल ।
*अन्य जो भी इस प्रकार के हैं, (वे सब गुच्छ समझने चाहिए ।)
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पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-५२-५६
___ वे (पूर्वोक्त) गुल्म किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । वे इस प्रकार- सेरितक, नवमालती, कोरण्टक, बन्धुजीवक, मनोद्य, पीतिक, पान, कनेर, कुर्जक, सिन्दुवार । तथा- जाती, मोगरा, जूही, मल्लिका, वासन्ती, वस्तुल, कच्छुल, शैवाल, ग्रन्थि, मृगदन्तिका । तथा- चम्पक, जीती, नवनीतिका, कुन्द, तथा महाजाति; इस प्रकार अनेक आकार-प्रकार के होते हैं । (उन सबको) गुल्म समझना । *यह हुई गुल्मों की प्ररूपणा । सूत्र- ५६-५८
वे (पूर्वोक्त) लताएं किस प्रकार की होती हैं ? अनेक प्रकार की हैं । यथा- पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, चूतलता, वनलता, वासन्तीलता, अतिमुक्तलता, कुन्दलता और श्यामलता ।
* और जितनी भी इस प्रकार की हैं, (उन्हें लता समझना चाहिए।) सूत्र-५८-६४
___ वे वल्लियाँ किस प्रकार की होती हैं ? अनेक प्रकार की हैं । वे इस प्रकार हैं- पूसफली, कालिंगी, तुम्बी, त्रपुषी, एलवालुकी, घोषातकी, पटोला, पंचांगुलिका, नालीका । तथा- कंगूका, कुद्दकिका, कर्कोटकी, कारवेल्लकी, सुभगा, कुवधा, वागली, पापवल्ली, देवदारु । तथा- अपकोया, अतिमुक्तका, नागलता, कृष्णसूरवल्ली, संघट्टा, सुमनसा, जासुवन, कुविन्दवल्ली । तथा- मुद्वीका, अप्पा, भल्ली, क्षीरविराली, जीयंती, गोपाली, पाणी, मासावल्ली, गुंजावल्ली, वच्छाणी । तथा- शशबिन्दु, गोत्रस्पृष्टा, गिरिकर्णकी, मालुका, अंजनकी, दहस्फोटकी, काकणी, मोकली तथा अर्कबोन्दी । ..... * इसी प्रकार की अन्य जितनी भी (वनस्पतियाँ हैं, उन सबको वल्लियाँ समझना ।) सूत्र-६४-६७
वे पर्वक (वनस्पतियाँ) किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं । इक्षु, इक्षुवाटी, वीरण, एक्कड़, भमास, सूंठ, शर, वेत्र, तिमिर, शतपर्वक, नल । वंश, वेलू, कनक, कंकावंश, चापवंश, उदक, कुटज, विमक, कण्डा, वेलू और कल्याण। ..... * और भी जो इसी प्रकार की वनस्पतियाँ हैं, (उन्हें पर्वक में ही समझनी चाहिए)। सूत्र-६७-७०
वे तृण कितने प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । सेटिक, भक्तिक, होत्रिक, दर्भ, कुश, पर्वक, पोटकिला, अर्जुन, आषाढ़क, रोहितांश, शुकवेद, क्षीरतुष । एरण्ड कुरुविन्द, कक्षट, सूंठ, विभंगू, मधुरतृण, लवणक, शिल्पिक और सुंकलीतृण । .... * जो अन्य इसी प्रकार के हैं (उन्हें भी तृण समझना चाहिए)। सूत्र-७०-७३
वे वलय (जाति की वनस्पतियाँ) किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं । ताल, तमाल, तर्कली, तेतली, सार, सार-कल्याण, सरल, जावती, केतकी, कदली धर्मवृक्ष । तथा- भुजवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष । पूगफली, खजूर और नालिकेरी । ..... * यह और ईस प्रकार की अन्य वनस्पति को वलय समझना । सूत्र-७३-७७
वे हरित (वनस्पतियाँ) किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं। अद्यावरोह, व्युदान, हरितक, तान्दुलेयक, तृण, वस्तुल, पारक, मार्जार, पाती, बिल्वी, पाल्यक । दकपिप्पली, दर्वी, स्वस्तिक शक, माण्डुकी, मूलक, सर्षप, अम्लशाक और जीवान्तक । तथा- तुलसी, कृष्ण, उदार, फाणेयक, आर्यक, भुजनक, चोरक, दमनक, मरुचक, शतपुष्पी तथा इन्दीवर |.....* अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियाँ हैं, वे सब हरित के अन्तर्गत समझना ।
सूत्र-७७
वे ओषधियाँ किस प्रकार की होती हैं ? अनेक प्रकार की हैं । शाली, व्रीहि, गोधूम, जौ, कलाय, मसूर, तिल, मूंग, माष, निष्पाव, कुलत्थ, अलिसन्द, सतीण, पलिमन्थ, अलसी, कुसुम्भ, कोदों, कंगू, राल, वरश्यामाक, कोदूस, शण, सरसों, मूलक बीज; ये और इसी प्रकार की अन्य जो भी (वनस्पतियाँ) हैं, (उन्हें भी ओषधियों में गिनना)।
वे जलरुह (वनस्पतियाँ) किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं । उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बुका, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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पद/उद्देश /सूत्र हढ, कसेरुका, कच्छा, भाणी, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, कमल, भिस, भिसमृणाल, पुष्कर और पुष्करास्तिभज । इसी प्रकार की और भी वनस्पतियाँ हैं, उन्हें जलरुह के अन्तर्गत समझना ।
वे कुहण वनस्पतियाँ किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं । आय, काय, कुहण, कुनक्क, द्रव्यहलिका, शफाय, सद्यात, सित्राक, वंशी, नहिता, कुरक । इसी प्रकार की जो अन्य वनस्पतियाँ हैं उन सबको कुहणा के अन्तर्गत समझना।
सूत्र-७८
वृक्षों की आकृतियाँ नाना प्रकार की होती हैं । इनके पत्ते और स्कन्ध एक जीववाला होता है । ताल, सरल, नारिकेल वृक्षों के पत्ते और स्कन्ध एक-एक जीव वाले होते हैं। सूत्र-७९
जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए समस्त सर्षपों की वट्टी एकरूप प्रतीत होती है, वैसे ही एकत्र हुए प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात रूप होते हैं ।
सत्र-८०
जैसे तिलपपडी बहत-से तिलों के संहत होने पर होती है, वैसे ही प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात होते हैं सूत्र - ८१
इस प्रकार उन प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई। सूत्र-८२-८९
वे (पूर्वोक्त) साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । अवक, पनक, शैवाल, लोहिनी, स्निहूपुष्प, मिहूस्तिहू, हस्तिभागा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिउण्डी, मुसुण्ढी। तथा- रुरु,
जीरु, क्षीरविराली; किट्रिका, हरिद्रा, शंगबेर, आलू, मूला । कम्बू, कृष्णकटब, मधुक, वलकी, मधुशंगी, नीरूह, सर्पसुगन्धा, छिन्नरुह, बीजरुह । पाढा, मृगवालुंकी, मधुरसा, राजपत्री, पद्मा, माठरी, दन्ती, चण्डी, किट्टी । माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवित, रसभेद, रेणुका, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी । कृमिराशि, भद्रमुस्ता, नांगलकी, पलुका, कृष्णप्रकुल, हड, हरतनुका, लोयाणी । कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरणकन्द तथा खल्लूर, ये (पूर्वोक्त) अनन्तजीव वाले हैं। इनके अतिरिक्त और जितने भी इसी प्रकार के हैं, (वे सब अनन्त जीवात्मक हैं) । सूत्र-९०
तृणमूल, कन्दमूल और वंशीमूल, ये और इसी प्रकार के दूसरे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त जीववाले हैं सूत्र-९१
सिंघाड़े का गुच्छ अनेक जीववाला है, और इस के पत्ते प्रत्येक जीववाले हैं । इस के फल में दो-दो जीव हैं। सूत्र-९२ - जिस मूल को भंग करने पर समान दिखाई दे, वह मूल अनन्त जीववाला है । इसी प्रकार के दूसरे मूल को भी अनन्तजीव समझना। सूत्र- ९३,९४
जिस टूटे हए कन्द का भंग समान दिखाई दे, वह कन्द अनन्त जीववाला है। इसी प्रकार के दूसरे कन्द को भी अनन्तजीव समझना।
जिस टूटे हुए स्कन्ध का भंग समान दिखाई दे, वह अनन्त जीववाला है। इसी प्रकार के दूसरे स्कन्धों को भी अनन्तजीव समझना।
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पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-९५
जिस छाल के टूटने पर उसका भंग सम दिखाई दे, वह छाल भी अनन्तजीव वाली है । इसी प्रकार की अन्य छाल भी अनन्तजीव समझना। सूत्र-९६
जिस टूटी हुई शाखा का भंग समान दृष्टिगोचर हो, वह अनन्तजीव हैं । इसी प्रकार की अन्य (शाखाएं) (भी अनन्तजीव समझो)। सूत्र - ९७
___टूटे हुए जिस प्रवाल का भंग समान दीखे, वह अनन्तजीव हैं । इसी प्रकार के जितने भी अन्य (प्रवाल) हों, (उन्हें अनन्तजीव समझो)। सूत्र - ९८
टूटे हुए जिस पत्ते का भंग समान दिखाई दे, वह अनन्तजीव हैं । इसी प्रकार जितने भी अन्य पत्र हों, उन्हें अनन्तजीव वाले समझो। सूत्र- ९९
टूटे हुए जिस फूल का भंग समान दिखाई दे, वह भी अनन्तजीव हैं । इसी प्रकार के अन्य पुष्प को भी अनन्तजीव समझो।
सूत्र-१००
जिस टूटे हुए फल का भंग सम दिखाई दे, वह फल अनन्त जीव हैं । इसी प्रकार के अन्य फल को भी अनन्तजीव समझो। सूत्र-१०१
जिस टूटे हुए बीज का भंग समान दिखाई दे, वह अनन्तजीव हैं । इसी प्रकार के अन्य बीज को भी अनन्त जीव वाले समझो। सूत्र-१०२
टूटे हुए जिस मूल का भंग विषमभेद दिखाई दे, वह मूल प्रत्येक जीव वाला है । इसी प्रकार के अन्य मूल को भी प्रत्येकजीव समझो। सूत्र-१०३
टूटे हए जिस कन्द के भंग-प्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह कन्द प्रत्येक जीव है। इसी प्रकार के अन्य कन्द को भी प्रत्येकजीव समझो। सूत्र-१०४
टूटे हुए जिस स्कन्ध के भंगप्रदेश में हीर दिखाई दे, वह स्कन्ध प्रत्येकजीव हैं । इसी प्रकार के और भी स्कन्ध को (भी प्रत्येकजीव समझो)। सूत्र-१०५
जिस छाल टूटने पर उनके भंग में हीर दिखाई दे, वह छाल प्रत्येक जीव है । इसी प्रकार की अन्य छाले को भी प्रत्येकजीव समझो। सूत्र-१०६
जिस शाखा के टूटने पर उनके भंग में विषमछेद दिखे, वह शाखा प्रत्येक जीव है । इसी प्रकार की अन्य शाखाएं को भी प्रत्येकजीव समझो।
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पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१०७
जिस प्रवाल के टूटने पर उस के भंगप्रदेशमें विषमछेद दिखाई दे, वह प्रवाल प्रत्येकजीव है । इसी प्रकार के और भी प्रवाल को प्रत्येकजीव समझो। सूत्र-१०८
जिस टूटे हुए पत्ते के भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पत्ता प्रत्येकजीव है । इसी प्रकार के और भी पत्ते को प्रत्येकजीव समझो। सूत्र-१०९
जिस पुष्प के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पुष्प प्रत्येकजीव है । इसी प्रकार के और भी पुष्प को प्रत्येकजीवी समझो । सूत्र-११०
जिस फल के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दृष्टिगोचर हो, वह फल भी प्रत्येकजीव है । ऐसे और भी फल को प्रत्येकजीवी समझो। सूत्र-१११
जिस बीज के टूटने पर उसके भंग में विषमछेद दिखाई दे, वह बीज प्रत्येकजीव है । ऐसे अन्य बीज को भी प्रत्येकजीवी समझो। सूत्र-११२
जिस मूल के काष्ठ की अपेक्षा छल्ली अधिक मोटी हो, वह छाल अनन्तजीव है। इस प्रकार की अन्य छालें को अनन्तजीवी समझो। सूत्र - ११३
जिस कन्द के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह अनन्तजीव है। इसी प्रकार की अन्य छालें को अनन्त-जीवी समझो। सूत्र-११४
जिस स्कन्ध के काष्ठ से छाल अधिक मोटी है, वह छाल अनन्तजीव है। इसी प्रकार की अन्य छालें को अनन्तजीवी समझो। सूत्र-११५
जिस शाखा के काष्ठ की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, वह छाल अनन्तजीव है। इस प्रकार की अन्य छालें को अनन्तजीवी समझना। सूत्र-११६
जिस मूल के काष्ठ की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव है । इस प्रकार की अन्य छालें को प्रत्येक जीवी समझो। सूत्र-११७
जिस कन्द के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव है । इस प्रकार की अन्य छालें को प्रत्येक जीवी समझना । सूत्र-११८
जिस स्कन्ध के काष्ठ की अपेक्षा, उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव है । इस प्रकार की अन्य छालें को भी प्रत्येकजीवी समझना ।
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पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-११९
जिस शाखा के काष्ठ की अपेक्षा, उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है । इस प्रकार की अन्य छालें को प्रत्येकजीवी समझना ।
सूत्र-१२०
जिस को तोड़ने पर (भंगस्थान) चक्राकार हो, तथा जिसकी गाँठ चूर्ण से सघन हो, उसे पृथ्वी के समान भेद से अनन्तजीवों वाला जानो।
सूत्र-१२१
जिस की शिराएं गूढ़ हों, जो दूध वाला हो अथवा जो दूध-रहित हो तथा जिसकी सन्धि नष्ट हो, उसे अनन्त जीवों वाला जानो। सूत्र-१२२
पुष्प जलज और स्थलज हों, वृन्तबद्ध हों या नालबद्ध, संख्यात जीवों वाले, असंख्यात जीवों वाले और कोईकोई अनन्त जीवों वाले समझने चाहिए। सूत्र-१२३
जो कोई नालिकाबद्ध पुष्प हों, वे संख्यात जीव वाले हैं । थूहर के फूल अनन्त जीवों वाले हैं । इसी प्रकार के जो अन्य फूल को भी अनन्त जीवी समझो। सूत्र - १२४
पद्मकन्द, उत्पलिनीकन्द और अन्तरकन्द, इसी प्रकार झिल्ली, ये सब अनन्त जीवी हैं; किन्तु भिस और मृणाल में एक-एक जीव हैं। सूत्र - १२५
पलाण्डुकन्द, लहसुनकन्द, कन्दली नामक कन्द और कुसुम्बक ये प्रत्येकजीवाश्रित हैं । अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियाँ हैं, (उन्हें प्रत्येकजीवी समझो ।) सूत्र-१२६, १२७
पद्म, उप्पल, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र-कमलों के- वृत्त, बाहर के पत्ते और कर्णिका, ये सब एकजीवरूप हैं । इनके भीतरी पत्ते, केसर और मिंजा भी प्रत्येक जीवी हैं। सूत्र-१२८, १२९
वेणु, नल, इक्षुवाटिक, समासेक्षु, इक्कड, रंड, करकर, सूंठी, विहुंगु, तृणों तथा पर्ण वाली वनस्पतियों के जो - अक्षि, पर्व तथा बलिमोटक हों, वे सब एकजीवात्मक हैं । इनके पत्र प्रत्येकजीवी हैं, और इनके पुष्प अनेकजीवी हैं सूत्र-१३०
पुष्यफल, कालिंग, तुम्ब, त्रपुष, एलवालुस, वालुक, घोषाटक, पटोल, तिन्दूक फल इनके सब पत्ते प्रत्येक जीव से (पृथक्-पृथक) अधिष्ठित होते हैं। सूत्र-१३१
तथा वृन्त, गुद्दा और गिर, के सहित तथा केसर सहित या अकेसर मिंजा, ये, सब एक-एक जीवी हैं। सूत्र - १३२
सप्फाक, सद्यात, उव्वेहलिया, कुहण, कन्दुक्य ये सब अनन्तजीवी हैं; किन्तु कन्दुक्य वनस्पति में भजना है सूत्र-१३३
____ योनिभूत बीज में जीव उत्पन्न होता है, वह जीव वहीं अथवा अन्य कोई जीव (भी वहाँ उत्पन्न हो सकता है) जो जीव मूल (रूप) में होता है, वह जीव प्रथम पत्र के रूप में भी (परिणत होता) है।
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पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१३४
सभी किसलय ऊगता हुआ अवश्य ही अनन्तकाय है । वही वृद्धि पाता हुआ प्रत्येक शरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है। सूत्र-१३५
एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीरनिष्पत्ति एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही प्राणापान ग्रहण होता है, एक काल में ही उच्छवास और निःश्वास होता है। सूत्र - १३६
एक जीव का जो (पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से जीवों का ग्रहण करना (समझना) । और जो (पुद्गलों का) ग्रहण बहुत-से जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है । सूत्र-१३७
साधारण जीवों का आहार भी साधारण ही होता है, प्राणापान का ग्रहण भी साधारण होता है । यह (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना) । सूत्र - १३८
जैसे अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हए के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होता है। सूत्र-१३९
एक, दो, तीन, संख्यात अथवा (असंख्यात) निगोदों का देखना शक्य नहीं है । (केवल) (अनन्त-) निगोदजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं। सूत्र-१४०
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उसका माप किया जाए तो ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं। सूत्र-१४१
एक-एक लोकाकाश प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे असंख्यात-लोकाकाश हो जाते हैं। सूत्र-१४२
प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव घनीकृत प्रतर के असंख्यातभाग मात्र होते हैं | अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के और साधारण जीवों का परिणाम अनन्तलोक के समान है। सूत्र-१४३
'इन शरीरों के द्वारा स्पष्टरूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है । सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य हैं । क्योंकि ये आँखों से दिखाई नहीं देते । सूत्र-१४४
अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियाँ हों, (उन्हें साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय में लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेना)।
वे सभी वनस्पतिकाय जीव संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से हजारों प्रकार हैं । उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं । पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक (बादर) पर्याप्तक जीव होता है, वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (प्रत्येक) अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१४५-१४७
कन्द, कन्दमूल, वृक्षमूल, गुच्छ, गुल्म, वल्ली, वेणु, और तृण । तथा- पद्म, उत्पल, शृंगाटक, हढ, शैवाल, कृष्णक, पनक, अवक, कच्छ, भाणी और कन्दक्य । (इन वनस्पतियों की) त्वचा, छल्ली, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, मूल, अग्र, मध्य और बीज (इन) में से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गई है। सूत्र-१४८
यह हआ साधारणशरीर वनस्पतिकायिक का स्वरूप । सूत्र-१४९
वे द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक, शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा, सौक्तिक, मौक्तिक, कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त्त, शम्बूक, मातृवाह, शुक्ति-सम्पुट, चन्दनक, समुद्रलिक्षा । अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, (उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए ।) ये सभी (द्वीन्द्रिय) सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं । सूत्र-१५०
वह (पूर्वोक्त) त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है । औपयिक, रोहिणीक, कंथु, पिपीलिका, उद्देशक, उद्देहिका, उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काष्ठाहार, मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेदुरणमज्जिक, त्रपुषमिंजिक, कार्पासास्थिमिंजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा, किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृन्त, इन्द्रिकायिक, इन्द्रगोपक, उरुलुंचक, कुस्थलवाहक, यूका, हालाहल, पिशुक, शतपादिका, गोम्ही और हस्तिशौण्ड । इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों, उन्हें त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न समझना । ये सब सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रियजीवों के सात लाख जाति कुलकोटि-योनिप्रमुख हैं। सूत्र-१५१-१५३
वह चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है। अंधिक, नेत्रिक, मक्खी, मगमृगकीट, पतंगा, ढिंकुण, कुक्कुड, कुक्कुह, नन्द्यावर्त और शृंगिरिट । तथा- कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहितपत्र, हारिद्रपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, अवभांजलिक, जलचारिक, गम्भीर, नीनिक, तन्तव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर, भरिली, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवृश्चिक, जलवृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट । इसी प्रकार के जितने भी अन्य (प्राणी) हैं, (उन्हें भी चतुरिन्द्रिय समझना ।) ये चतुरिन्द्रिय सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । वे दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इस प्रकार के चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र-१५४
वह पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? चार प्रकार की है । नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव-पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना । सूत्र-१५५
वे नैरयिक किस प्रकार के हैं ? सात प्रकार के-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक, शर्कराप्रभापृथ्वी-नैरयिक, वालुकाप्रभापृथ्वी-नैरयिक, पंकप्रभापृथ्वी-नैरयिक, धूमप्रभापृथ्वी-नैरयिक, तमःप्रभापृथ्वी-नैरयिक और तमस्तमःप्रभा-पृथ्वीनैरयिक । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र-१५६-१५९
वे पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? तीन प्रकार के-जलचर, स्थलचर और खेचर-पंचेन्द्रियमुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र तिर्यंचयोनिक।
वे जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक कैसे हैं ? पाँच प्रकार के-मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर और सुंसुमार । वे मत्स्य कितने प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के-श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य, विज्झिडिय-मत्स्य, हलिमत्स्य, मकरीमत्स्य, रोहितमत्स्य, हलीसागर, गागर, वट, वटकर, तिमि, तिमिंगल, नक्र, तन्दुलमत्स्य, कणिक्कामत्स्य, शालिशस्त्रिक मत्स्य, लंभनमत्स्य, पताका और पताकातिपताका । इसी प्रकार से जो भी अन्य प्राणी हैं, वे सब मत्स्यों के अन्तर्गत समझो।
हैं ? दो प्रकार के । अस्थिकच्छप और मांसकच्छप । वे ग्राह कितने प्रकार के हैं ? पाँच प्रकार के, दिली, वेढल, मूर्धज, पुलक और सीमाकार । सूत्र-१६०
वे मगर किस प्रकार के होते हैं? दो प्रकार के हैं । शौण्डमकर और मृष्टमकर । वे सुंसुमार किस प्रकार के हैं ? एक ही आकार के हैं । अन्य जो इस प्रकार के हों उन्हें भी जान लेना । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-सम्मूर्छिम और गर्भज । इनमें से जो सम्मूर्छिम हैं, वे सब नपुंसक होते हैं । इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । इस प्रकार (मत्स्य) इत्यादि पर्याप्तक और अपर्याप्तक जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचों के साढ़े बारह लाख जातिकुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र - १६१
वे चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । एकखुरा, द्विखुरा, गण्डी-पद और सनखपद । वे एकखुरा किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । अश्व, अश्वतर, घोटक, गधा, गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्त इसी प्रकार के अन्य प्राणी को भी एकखुर-स्थलचर० समझना ।
वे द्विखुर किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । उष्ट्र, गाय, गवय, रोज, पशुक, महिष, मृग, सांभर, वराह, आज, एलक, रुरु, सरभ, जमर, कुरंग, गोकर्ण आदि।
__ वे गण्डीपद किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुणहस्ती, खड्गी और गेंडा, इसी प्रकार के अन्य प्राणी को गण्डीपद में जान लेना । वे सनखपद किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक, रीछ, तरक्ष, पाराशर, शृगाल, बिडाल, श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक, शशक, चीता और चित्तलग । इसी प्रकार के अन्य प्राणी को सनखपदों समझो।।
चतुष्पद-स्थलचर० संक्षेप में दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम और गर्भज । जो सम्मूर्छिम हैं, वे सब नपुंसक हैं । जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक । इस प्रकार इन स्थलचर-पंचेन्द्रिय० के दस लाख जाति-कुल-कोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र - १६२
वे परिसर्प-स्थलचर० दो प्रकार के हैं । उरःपरिसर्प० एवं भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक | उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । अहि, अजगर, आसालिक और महोरग । वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के । दर्वीकर और मुकुली । वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं? अनेक प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-आशीविष (दाढ़ों में विषवाले), दृष्टिविष (दृष्टि में विषवाले), उग्रविष (तीव्र विषवाले), भोगविष (फन या शरीर में विषवाले), त्वचाविष (चमड़ी में विषवाले), लालाविष (लार में विष-वाले), उच्छ् वासविष (श्वास लेने में विषवाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विषवाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिभिन्द और शेषेन्द्र । इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दर्वीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए । यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा ।
__ वे मुकुली सर्प कैसे होते हैं ? अनेक प्रकार के । दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका और वातपताका । अन्य जितने भी इसी प्रकार के सर्प हैं, (वे सब मुकुली सर्प समझना)। वे
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अजगर किस प्रकार के हैं ? एक ही आकार के । आसालिक किस प्रकार के होते हैं ?
__ भगवन् ! आसालिक कहाँ सम्मूर्च्छित होते हैं ? गौतम ! वे मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढ़ाई द्वीपों में, निर्व्याघातरूप से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से पाँच महाविदेह क्षेत्रों में, अथवा चक्रवर्ती, वासुदेवों, बलदेवों, माण्डलिकों, और महामाण्डलिकों के स्कन्धावारों में, ग्राम, नगर, निगम, निवेशों में, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आकार, आश्रम, सम्बाध और राजधानीनिवेशों में | इन सब का विनाश होनेवाला हो तब इन स्थानों में आसालिक सम्मूर्च्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-मात्र और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से (उत्पन्न होते हैं) । उसके अनुरूप ही उसका विष्कम्भ और बाहल्य होता है । वह (आसालिक) चक्रवर्ती के स्कन्धावर आदि के नीचे की भूमि को फाड़ कर प्रादुर्भूत होता है । वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहूर्त्तका की आयु भोग कर मर जाता है।
__ महोरग किस प्रकार के होते हैं ? अनेक प्रकार के । कई-कई महोरग एक अंगुल के, अंगुलपृथक्त्व, वितस्ति, वितस्तिपृथक्त्व, एक रत्नि, रत्निपृथक्त्व, कुक्षिप्रमाण, कुक्षिपृथक्त्व, धनुष, धनुषपृथक्त्व, गव्यूति, गव्यूतिपृथक्त्व, योजनप्रमाण, योजन पृथक्त्व, सौ योजन, योजनशतपृथक्त्व, और कोई हजार योजन के भी होते हैं । वे स्थल में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल में विचरण करते हैं, स्थल में भी विचरते हैं । वे मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो भी उरःपरिसर्प हों, उन्हें भी महोरगजाति के समझना । वे उरःपरिसर्प स्थलचर संक्षेप में दो प्रकार के हैं-सम्मूर्छिम और गर्भज । इनमें से जो सम्मूर्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं । इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक । उर:परिसों के दस लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं।
भुजपरिसर्प किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के | नकुल, गोह, सरट, शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला, विषम्भरा, मूषक, मंगुसा, पयोलातिक, क्षीरविडालिका, चतुष्पद स्थलचर के समान इनको समझना । इसी प्रकार के अन्य जितने भी (भुजा से चलने वाले प्राणी हों, उन्हें भुजपरिसर्प समझना) । वे भुजपरिसर्प संक्षेप में दो प्रकार के हैं । सम्मूर्छिम और गर्भज । जो सम्मूर्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं । जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं। स्त्री, पुरुष और नपुंसक । भुजपरिसॉं के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं। सूत्र-१६३
वे खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक किस-किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गक पक्षी और विततपक्षी । वे चर्मपक्षी किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । वल्गुली, जलौका, अडिल्ल, भारण्डपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्णत्रिक और पक्षिविडाली । अन्य जो भी इस प्रकार के पक्षी हों, (उन्हें चर्मपक्षी समझना)
रोमपक्षी अनेक प्रकार के हैं । ढंक, कंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस, पादहंस, आड, सेडी, बक, बकाका, पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर, शतवत्स, गहर, पौण्डरिक, काक, कामंजुक, वंजुलक, तित्तिर, वर्त्तक, लावक, कपोत, कपिंजल, पारावत, चिटक, चास, कुक्कुट, शुक, बी, मदनशलाका, कोकिल, सेह और वरिल्लक आदि ।
समुद्गपक्षी एक ही आकार के हैं । वे (मनुष्यक्षेत्र से) बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं । विततपक्षी एक ही आकार के होते हैं । वे (मनुष्यक्षेत्र से) बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं । ये खेचरपंचेन्द्रिय संक्षेप में दो प्रकार के हैं। सम्मर्छिम और गर्भज । जो सम्मर्छिम हैं. वे सभी नपंसक हैं।
जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक । खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिकों के बारह लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं । सूत्र - १६४
सात, आठ, नौ, साढ़े बारह, दस, दस, नौ, तथा बारह, यों द्वीन्द्रिय से लेकर खेचर पंचेन्द्रिय तक की क्रमशः इतने लाख जातिकुलकोटि समझना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१६५
यह खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों की प्ररूपणा हुई। सूत्र - १६६
मनुष्य किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के । सम्मूर्छिम और गर्भज । सम्मूर्छिम मनुष्य कैसे होते हैं ? भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर, ४५ लाख योजन विस्तृत द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में एवं छप्पन अन्तर्वीपों में गर्भज मनुष्यों के उच्चारों में, मूत्रों में, कफों में, सिंघाण में, वमनों में, पित्तों में, मवादों में, रक्तों में, शुक्रों में, सूखे हुए शुक्र के पुद्गलों को गीला करने में, मरे हुए जीवों के कलेवरों में, स्त्री-पुरुष के संयोगों में, गटरों में अथवा सभी अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं । इन की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की होती है । ये असंज्ञी मिथ्यादृष्टि एवं अपर्याप्त होते हैं । ये अन्तर्मुहूर्त की आयु भोग कर मर जाते हैं।
गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं । कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तरद्वीपक ।
अन्तरद्वीपक अठ्ठाईस प्रकार के हैं । एकोरुक, आभासिक, वैषाणिक, नांगोलिक, हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कुलिकर्ण, आदर्शमुख, मेण्ढमुख, अयोमुख, गोमुख, अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख, व्याघ्रमुख, अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, अकर्ण, कर्णप्रावरण, उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख, विद्युद्दन्त, घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धदन्त ।
अकर्मभूमक मनुष्य तीस प्रकार के हैं । पाँच हैमवत, पाँच हैरण्यवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच रम्यकवर्ष, पाँच देवकरु और पाँच उत्तरकरु-क्षेत्रों में ।
कर्मभूमक मनुष्य पन्द्रह प्रकार के हैं । पाँच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेहक्षेत्रों में । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ । म्लेच्छ मनुष्य अनेक प्रकार के हैं । शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, काय, मरुण्ड, उड्ड, भण्डक, निन्नक, पक्कणिक, कुलाक्ष, गोंड, सिंहल, पारस्य, आन्ध्र, उडम्ब, तमिल, चिल्लल, पुलिन्द, हारोस, डोंब, पोक्काण, गन्धाहारक, बहलिक, अज्जल, रोम, पास, प्रदुष, मलय, चंचूक, मूयली, कोंकणक, मेद, पल्हव, मालव, गग्गर, आभाषिक, कणवीर, चीना, ल्हासिक, खस, खासिक, नेर, मंढ, डोम्बिलक, लओस, बकुश, कैकय, अरबाक, हूण, रोमक, मरुक रुत और चिलात देशवासी इत्यादि ।
आर्य दो प्रकार के हैं । ऋद्धिप्राप्त और ऋद्धिअप्राप्त । ऋद्धिप्राप्त आर्य छह प्रकार के हैं । अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्याधर | ऋद्धि-अप्राप्त आर्य नौ प्रकार के हैं । क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य ।
क्षेत्रार्य साढे पच्चीस प्रकार के हैं । यथासूत्र- १६७-१७२
मगध में राजगह, अंग में चम्पा, बंग में ताम्रलिप्ती, कलिंग में काञ्चनपुर, काशी में वाराणसी। सूत्र-१६८
कौशल में साकेत, करु में गजपर, कशात में सौरीपर, पंचाल में काम्पिल्य, जांगल में अहिच्छत्रा । सौराष्ट में द्वारावती, विदेह में मिथिला, वत्स में कौशाम्बी, शाण्डिल्य में नन्दिपुर, मलय में भद्दिलपुर । मत्स्य में वैराट, वरण में अच्छ, दशार्ण में मृत्तिकावती, चेदि में शुक्तिमती, सिन्धु-सौवीर में वीतभय । शूरसेन में मथुरा, भंग में पावापुरी, पुरिवर्त्त में मासा, कुणाल में श्रावस्ती, लाढ़ में कोटिवर्ष । केकयार्द्ध में श्वेताम्बिका, (ये सब २५|| देश) आर्य (क्षेत्र) हैं। इन में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों और वासदेवों का जन्म होता है। सूत्र-१७३
यह हुआ क्षेत्रार्यों का वर्णन । जात्यार्य छह प्रकार के हैं। सूत्र-१७४
अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, वेदग, हरित एवं चुंचुण; ये छह इभ्य जातियाँ हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-१७५
यह हुआ जात्यार्यों का निरूपण । कुलार्य छह प्रकार के हैं । उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात और कौरव्य। कार्य अनेक प्रकारके हैं। दोषिक, सौत्रिक, कार्पासिक, सूत्रवैतालिक, भाण्डवैतालिक, कौलालिक और नरवाहनिक । इसी प्रकार के अन्य जितने भी हों, उन्हें कर्मार्य समझना ।
शिल्पार्य अनेक प्रकार के हैं । तुन्नाक, दर्जी, तन्तुवाय, पट्टकार, दृतिकार, वरण, छर्विक, काष्ठपादुकाकार, मुंजपादुकाकार, छद्मकार, बाह्यकार, पुस्तकार, लेप्यकार, चित्रकार, शंखकार, दन्तकार, भाण्डकार, जिह्वाकार, शैल्यकार, और कोडिकार, इसी प्रकार के अन्य जितने भी हैं, उन सबको शिल्पार्य समझना।
___ भाषार्य वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं, और जहाँ भी ब्राह्मी लिपि प्रचलित है । ब्राह्मी लिपि अठारह प्रकार है । ब्राह्मी, यवनानी, दोषापुरिका, खरौष्ट्री, पुष्करशारिका, भोगवतिका, प्रहरादिका, अन्ताक्षरिका, अक्षरपुष्टिका, वैनयिका, निहविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्शलिपि, माहेश्वरी, तामिलि और पौलिन्दी ।
ज्ञानार्य पाँच प्रकार के हैं | आभिनिबोधिकज्ञानार्य, श्रुतज्ञानार्य, अवधिज्ञानार्य, मनःपर्यवज्ञानार्य और केवलज्ञानार्य । दर्शनार्य दो प्रकार के हैं। सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य । सरागदर्शनार्य दस प्रकार के हैं। सूत्र - १७६
निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारूचि, संक्षेपरुचि, और धर्मरुचि। सूत्र-१७७,१७८
जो व्यक्ति स्वमति से जीवादि नव तत्त्वों को तथ्य रूप से जान कर उन पर रुचि करता है, वह निसर्ग रुचि। जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों पर स्वयमेव चार प्रकार से श्रद्धान् करता है, तथा वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना । सूत्र-१७९
जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन किसी दूसरेके द्वारा उपदिष्ट इन्हीं पदार्थों पर श्रद्धा करता है, वो उपदेशरुचि । सूत्र-१८०
जो हेतु को नहीं जानता हआ; केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह आज्ञारुचि है। सूत्र-१८१
जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ श्रुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है, उसे सूत्ररुचि जानना। सूत्र-१८२
जल में पड़ा तेल के बिन्द के फैलने के समान जिसके लिए सूत्र का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल जाता है, उसे बीजरुचि समझना । सूत्र-१८३
जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध कर लिया है, वह अभिगमरुचि। सूत्र-१८४
जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों से उपलब्ध कर लिया, उसे विस्ताररुचि समझना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१८५
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में, सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रियाभावरुचिवाला है, वह क्रियारुचि है। सूत्र-१८६
जिसने किसी कुदर्शन का अभिग्रहण नहीं किया है, और जो अर्हत्प्रणीत प्रवचन में पटु नहीं है, उसे संक्षेपरुचि समझना। सूत्र-१८७
जो व्यक्ति जिनोक्त अस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है, उसे धर्मरुचि समझना। सूत्र-१८८
परमार्थ संस्तव, सुदृष्टपरमार्थ सेवा, व्यापन्नकुदर्शनवर्जना तथा सम्यग् श्रद्धा । यही सम्यग्दर्शन है। सूत्र - १८९
(सरागदर्शन के) ये आठ आचार हैं-निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्स, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना । सूत्र-१९०
वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं। उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य और क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य ।
उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । प्रथमसमय और अप्रथमसमय-उपशान्तकषायवीतरागदर्शनार्य अथवा चरमसमय और अचरमसमय-उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य । क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । छद्मस्थ और केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य । छद्मस्थ क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । स्वयं बुद्ध और बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य | स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । प्रथमसमय और अप्रथमसमय अथवा चरमसमय औचर अचरमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषायवीतरागदर्शनार्य । बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । प्रथमसमय और अप्रथमसमय अथवा चरमसमय और अचरमसमय बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य।
केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं-सयोगि और अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य । सयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के हैं ? सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । प्रथमसमय और अप्रथमसमय अथवा चरमसमय और अचरमसमय-सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य | अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के हैं । प्रथमसमय और अप्रथमसमय अथवा चरमसमय और अचरमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य ।
चारित्रार्य दो प्रकार के हैं, सराग और वीतरागचारित्रार्य ।
सरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर-सम्पराय-सराग चारित्रार्य । सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-प्रथमसमय और अप्रथमसमय अथवा चरमसमय और अचरमसमय-सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य । अथवा सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं। संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान | बादरसम्पराय-सरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमय-बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य अथवा बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । प्रतिपाति और अप्रतिपाती।
वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य ।
उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमयउपशान्तकषाय-वीतरागचारित्रार्य । क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । छद्मस्थ और केवलि-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य।
छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित । स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ
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पद/उद्देश /सूत्र क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं । प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमय-स्वयंबुद्धछद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य | बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य ।
केवलि-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि । सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमय-सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य । अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-प्रथम और अप्रथमसमय अथवा चरम और अचरमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य ।
प्रकारान्तर से चारित्रार्य पाँच प्रकार के हैं । सामायिक-चारित्रार्य, छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य, परिहारविशद्धिक-चारित्रार्य, सक्ष्म-सम्पराय-चारित्रार्य और यथाख्यात-चारित्रार्य | सामायिक-चारिक हैं-इत्वरिक और यावतकथित सामायिक-चारित्रार्य । छेदपस्थापनिक-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-सातिचार और निरतिचार-छेदपस्थापनिक-चारित्रार्य | परिहारविशुद्धि-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-निर्विश्यमानक और निर्विष्टकायिकपरिहारविशुद्धि-चारित्रार्य। सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान | यथाख्यातचारित्रार्य दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ और केवलियथाख्यात । सूत्र - १९१
देव कितने प्रकार के हैं ? चार प्रकार के हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवन-वासी देव दस प्रकार के हैं-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधि-कुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार | ये देव संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वाणव्यन्तरदेव आठ प्रकार के हैं । किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं; पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे । वे देव संक्षेप में दो प्रकार के हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
वैमानिक देव दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न देव बारह प्रकार के हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । वे देव संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरौपपातिक । ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं । अधस्तनअधस्तन-ग्रैवेयक, अधस्तन-मध्यम-ग्रैवेयक, अधस्तन-उपरिम-ग्रैवेयक, मध्यम-अधस्तन-ग्रैवेयक, मध्यम-मध्यमग्रैवेयक, मध्यम-उपरिम-ग्रैवेयक, उपरिम-अधस्तन-ग्रैवेयक, उपरिम-मध्यम-ग्रैवेयक और उपरिम-उपरिम-ग्रैवेयक । ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अनुत्तरौपपातिक देव पाँच प्रकार के हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ।
पद-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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पद/उद्देश /सूत्र
पद-२-स्थान
सूत्र-१९२
भगवन् ! बादरपृथ्वीकाय पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से आठ पृथ्वीयों में । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में । अधोलोक में-पातालों, भवनों, भवनों के प्रस्तटों, नरकों, नरकावलियों एवं नरक के प्रस्तटों में । ऊर्ध्व-लोक मेंकल्पों, विमानों, विमानावलियों और विमान के प्रस्तटों में । तिर्यक्लोक में-टंकों, कूटों, शैलों, शिखरी-पर्वतों, प्राग्भारों, विजयों, वक्षस्कार पर्वतों, वर्षक्षेत्रों, वर्षधरपर्वतों, वेलाओं, वेदिकाओं, द्वारों, तोरणों, द्वीपों और समुद्रों में । उपपात, समुद्घात में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में है।
भगवन् ! बादरपृथ्वीकायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! बादरपृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों के समान उनके अपर्याप्तकों के स्थान हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से समस्त लोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भागमें हैं । गौतम! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, विशेषतारहित हैं, नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे समग्र लोक में परिव्याप्त हैं।
भगवन् ! बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! (१) स्वस्थान की अपेक्षा से-सात घनोदधियों और सात घनोदधि-वलयों में | अधोलोक में पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों में । ऊर्ध्वलोक में-कल्पों, विमानों, विमानावलियों और विमानों के प्रस्तटों में हैं | तिर्यग्लोक में-अवटों, तालाबों, नदियों, ह्रदों, वापियों, पुष्करिणियों, दीर्घिकाओं, गुंजालिकाओं, सरोवरों, सर:सर:पंक्तियों, बिलों, उज्झरों, निर्झरों, गडों, पोखरों, वप्रों, द्वीपों, समुद्रों, जलाशयों और जलस्थानों में । उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
भगवन् ! बादर-अप्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! बादर-अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान समान उनके अपर्याप्तकों के स्थान हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं । भगवन् ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं, वे सभी एक प्रकार के और नानात्व से रहित हैं, वे सर्वलोकव्यापी हैं।
भगवन् ! बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से-मनुष्य-क्षेत्र के अन्दर ढ़ाई द्वीप-समुद्रों में, निर्व्याघात से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात से-पाँच महाविदेहों में । उपपात की अपेक्षा से लोक, समुद्घात तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
भगवन् ! बादर तेजस्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! बादर तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान समान उनके अपर्याप्तकों के स्थान हैं। उपपात अपेक्षा से-(वे) लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों में तथा तिर्यग्लोक के तट्ट में एवं समुद्घात की अपेक्षा से-सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। भगवन् ! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सूक्ष्म तेजस्कायिक, जो पर्याप्त और अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के, अविशेष और नानात्व रहित हैं, वे सर्वलोकव्यापी हैं। सूत्र-१९३
भगवन् ! बादर वायुकायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनवात, सात घनवातवलय, सात तनुवात और सात तनुवातवलयों में | अधोलोक में-पातालों, भवनों, भवनों के प्रस्तटों, भवनों के छिद्रों, भवनों के निष्कुट प्रदेशों, नरकों में, नरकावलियों, नरकों के प्रस्तटों, छिद्रों और नरकों के निष्कुटप्रदेशों में । ऊर्ध्वलोक में कल्पों, विमानों, विमानों के छिद्रों और विमानों के निष्कुट-प्रदेशों में | तिर्यग्लोक में-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में समस्त लोकाकाश के छिद्रों में, तथा लोक के निष्कुट-प्रदेशों में हैं । उपपात की अपेक्षा से-लोक, समुद्घात तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्येयभागों में हैं।
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पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! अपर्याप्त-बादर-वायुकायिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! जहाँ बादर-वायुकायिक-पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादर-वायुकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं । उपपात की अपेक्षा से (वे) सर्वलोक में हैं, समुद् घात की अपेक्षा से-(वे) सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यात भागों में हैं । भगवन् ! सूक्ष्मवायुकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सूक्ष्मवायुकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के, अविशेष और नानात्व रहित हैं । वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं। भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से-सात
सात घनोदधिवलयों में । अधोलोक में पातालों में, भवनों में और भवनों के प्रस्तटों में । ऊर्ध्वलोक में - कल्पों में, विमानों में और विमानों के प्रस्तटों में | तिर्यग्लोक में-कूँओं, तालाबों, नदियों, ह्रदों, वापियों, पुष्करिणियों, दीर्घिकाओं, गुंजालिकाओं, सरोवरों, सर-सर पंक्तियों, बिलों में, उझरों, निर्झरों, तलैयों, पोखरों, क्षेत्रों, द्वीपों, समुद्रों
और सभी जलाशयों में तथा जल के स्थानों में हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों के स्थान समान उनके अपर्याप्तकों के स्थान हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में हैं; स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । भगवन् ! सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के, विशेषतारहित और नानात्व रहित हैं वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। सूत्र-१९४
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वलोक में और अधोलोक में - उस के एकदेशभाग में तथा तिर्यग्लोक में-कूओं, तालाबों, नदियों, ह्रदों, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, यावत् समस्त जलस्थानों में हैं । उपपात की अपेक्षा से लोक, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वलोक और अधोलोक मेंउसके एकदेशभाग में तथा तिर्यग्लोक में-कूओं, तालाबों, यावत् समस्त जलस्थानों में, उपपात की अपेक्षा से-लोक, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सभी स्थान तेइन्द्रियों के समान जानना । भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सभी स्थान तेइन्द्रिय के समान जानना। सूत्र-१९५
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात (नरक) पृथ्वीयों में रहते हैं । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा में । इन में चौरासी लाख नरकावास होते हैं, वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चोकौर, तथा नीचे से छूरे के आकार से युक्त हैं। गाढ़ अंधकार से ग्रस्त हैं । ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं । उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ से लिप्त, अशुचि, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कठोर स्पर्श वाले, दुःसह एवं अशुभ नरक हैं । नरकों में अशुभ वेदनाएं होती हैं । इनमें नारकों के स्थान हैं । उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वे (नारक) काले, काली आभा वाले, गम्भीर रोमांचवाले, भीम, उत्कट त्रासजनक तथा वर्ण से अतीव काले हैं । वे नित्य भीत, त्रस्त, त्रासित, उद्विग्न तथा अत्यन्त अशुभ, अपने नरक का भय प्रत्यक्ष अनुभव करते रहते हैं। सूत्र-१९६
भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १८०००० योजन
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र मोटाईवाली रत्नप्रभापृथ्वी के मध्य में १७८००० योजन में, रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावास हैं । वे नरक अन्दर से गोल, बाहर से चौकोर यावत् अशुभ नरक हैं । नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं । इनमें रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के स्थान हैं । इत्यादि सामान्य नारकों के समान समझना।
भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,३२,००० योजन मोटी शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में १,३०,००० योजन में, शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पच्चीस लाख नारकावास हैं। यावत् सब वर्णन सामान्य नारकों के समान जानना | भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,२८,००० योजन मोटी वालुकाप्रभापृथ्वी के बीच में १,२६,००० योजन प्रदेश में, वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पन्द्रह लाख नारकावास हैं । यावत् समस्त वर्णन सामान्य नारकों के समान समझना । भगवन ! पंकप्रभापथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,२०,००० योजन मोटी पंकप्रभापथ्वी के बीच के १,१८,००० योजन प्रदेश में, पंकप्रभापथ्वी के नैरयिकों के दस लाख नारकावास हैं। यावत् समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना । भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,१८,००० योजन मोटी धूमप्रभापृथ्वी के बीच के १,१६,००० योजन प्रदेश में, धूमप्रभापृथ्वी के नारकों के तीन लाख नारकावास हैं । यावत् समस्त नि पूर्ववत् । भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,१६,००० योजन मोटी तमःप्रभापृथ्वी के मध्य में १,१४,००० योजन में, वहाँ तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पाँच कम एक लाख नारकावास हैं । यावत् समस्त वर्णन पूर्ववत् । भगवन् ! तमस्तमापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,०८,००० योजन मोटी तमस्तमापृथ्वी के ऊपर के साढ़े बावन तथा नीचे के भी साढ़े बावन हजार योजन को छोड़कर बीच के तीन हजार योजन में, तमस्तमापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के पाँच दिशाओं में पाँच अनुत्तर, अत्यन्त विस्तृत महान् महानिरय हैं। काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । यावत् समस्त वर्णन पूर्ववत् । सूत्र-१९७
(नरकपृथ्वीयों की क्रमशः मोटाई एक लाख से ऊपर की संख्या में)-अस्सी, बत्तीस, अट्राईस, बीस, अठारह, सोलह और आठ हजार योजन' है। सूत्र - १९८
(नारकावासों का भूमिभाग-) छठी नरक तक; एक लाख से ऊपर-अठहत्तर, तीस, छब्बीस, अठारह और छठी नरकपृथ्वी में-चौदह हजार योजन हैं। सूत्र - १९९
सातवीं तमस्तमा नरकपृथ्वी में ऊपर और नीचे साढ़े बावन-साढ़े बावन हजार छोड़कर मध्य में तीन हजार योजनों में नारकावास होते हैं। सूत्र - २००
(नारकावासों की संख्या) (छठी नरक तक लाख की संख्या में) तीस, पच्चीस, पन्द्रह, दस, तीन तथा पाँच कम एक और सातवीं नरकपृथ्वी में केवल पाँच ही अनुत्तर नरक हैं। सूत्र-२०१
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वलोक और अधोलोक में उसके एकदेशभाग में, तिर्यग्लोक में कूओं में, तालाबों में, नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतो में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, क्यारियों अथवा खेतों में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों एवं जल के स्थानों में; उपपात, समुदघात और स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-२०२
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर पैंतालीस लाख योजनों में, ढाई द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तर्वीपों में हैं । उपपात और स्वस्थान से लोक के असंख्यात भाग में और समुदघात से सर्वलोक में हैं। सूत्र-२०३
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,८०,००० योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन में भवनवासी देवों के ७,७२,००,००० भवनावास हैं । वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र तथा नीचे पुष्कर की कर्णिका के आकार के हैं । चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ
और परिखाएं हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट है । प्राकारों, अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से (वे भवन) सुशोभित हैं । (तथा वे भवन) विविध यन्त्रों शतघ्नियों, मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से चारों ओर वेष्टित हैं; तथा वे शत्रुओं द्वारा अयोध्या, सदाजय, सदागुप्त, एवं अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय किंकरदेवों के दण्डों से उपरक्षित हैं । लीपने और पोतने के कारण प्रशस्त रहते हैं । गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से पाँचों अंगुलियों के छापे लगे होते हैं । चन्दन के कलश रखे हैं । उनके तोरण और प्रतिद्वारदेश के भाग चन्दन के घड़ों से सुशोभित हैं । (वे भवन) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के कलाप से युक्त होते हैं; पंचरंगे ताजे सरस सुगन्धित पुष्पों से युक्त हैं । वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हई सगन्ध से रमणीय, उत्तम सगन्धित होने से गंधवट्री के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भलीभाँति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, आवरणरहित कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योतयुक्त, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं सुरूप होते हैं । इन भवनों में भवनवासी देवों के स्थान हैं । उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
वे भवनवासी देव इस प्रकार हैंसूत्र-२०४
__ असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार | सूत्र-२०५
इनके मुकुट या आभूषणों में अंकित चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैं-चूडामणि, नाग का फन, गरुड़, वज्र, पूर्णकलश, सिंह, मकर, हस्ती, अश्व और वर्द्धमानक इनसे युक्त विचित्र चिह्नोंवाले, सुरूप, महर्द्धिक, महाद्युतिवाले, महाबलशाली, महायशस्वी, महाअनुभाग वाले, महासुखवाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों और बाजूबन्दों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को चिकने बनाने वाले अंगद, कुण्डल तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र आभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठमाला और अनुलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि, द्युति, प्रभा-छाया, अर्चि, तेज एवं दिव्य
र, सुशोभित करते हुए वे वहाँ अपने-अपने लाखों भवनवासों का, हजारों सामानिकदेवों का, त्रायस्त्रिंश देवों का, लोकपालों का, अग्रमहिषियों का, परिषदाओं का, सैन्यों का, सेनाधिपतियों का, आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महात्तरत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते हुए तथा पालन करते-कराते हुए, अहत नृत्य, गीत, वादित, एवं तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हए विचरते हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! पर्याप्त अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,८०,००० योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन में असुरकुमारदेवों के चौंसठ लाख भवन-आवास हैं । भवनावास वर्णनपूर्ववत् जानना । (वे) उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वे काले, लोहिताक्षरत्न तथा बिम्बफल के समान ओठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दाँतों तथा काले केशों वाले, बाएं एक कुण्डल के धारक, गीले चन्दन से लिप्त शरीरवाले, शिलिन्धपुष्प के समान थोड़े-से प्रकाशमान तथा संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म अतीव उत्तम वस्त्र पहने हुए, प्रथम वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को असंप्राप्त, भद्र यौवन में वर्तमान होते हैं । (वे) तलभंगक, त्रटित, एवं अन्यान्य श्रेष्ठ आभषणों में जटित निर्मल मणियों तथा रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं से सुशोभित अग्रहस्त वाले, चूड़ामणिरूप अद्भुत चिह्न वाले, सुरूप, इत्यादि यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विहरण करते हैं।
यहाँ दो असुरकुमारों के राजा-चमरेन्द्र और बलीन्द्र निवास करते हैं, वे काले, महानील के समान, नील की गोली, गवल, अलसी के फूल के समान, विकसित कमल के समान निर्मल, कहीं श्वेत, रक्त एवं ताम्रवर्ण के नेत्रों वाले, गरुड़ के समान विशाल सीधी और ऊंची नाक वाले, पुष्ट या तेजस्वी मूंगा तथा बिम्बफल के समान अधरोष्ठ वाले; श्वेत विमल एवं निर्मल, चन्द्रखण्ड, जमे हुए दही, शंख, गाय के दूध, कुन्द, जलकण और मृणालिका के समान धवल दन्तपंक्ति वाले, अग्नि में तपाये और धोये पनीय सुवर्ण समान लाल तलवों, तालु तथा जिह्वा वाले, अंजन तथा मेघ के समान काले, रुचकरत्न के समान रमणीय एवं स्निग्ध केशोंवाले, बाएं एक कानमें कुण्डल के धारक इत्यादि पूर्ववत् विशेषण वाले यावत् दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं।
भगवन् ! पर्याप्त एवं अपर्याप्त दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, १,८०,००० योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन क्षेत्र में दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के १,३४,००० भवनावास हैं । भवन, निवास, इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् । इन्हीं में (दाक्षिणात्य) असुरकुमारों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र निवास करता है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । चमरेन्द्र वहाँ ३४ लाख भवनावासों का, ६४,००० सामानिकों का, तेंतीस त्रायस्त्रिंक देवों का, चार लोकपालों का, पाँच सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, २,५६,००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है । भगवन् ! उत्तरदिशा में पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के मध्य के १,७८,००० योजन प्रदेश में, उत्तरदिशा के असुरकुमार देवों के तीस लाख भवनावास हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् । इन्हीं स्थानों में वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलीन्द्र निवास करता है, वह वहाँ तीस लाख भवनावासों का, ६०,००० सामानिक देवों का, तैंतीस त्रायस्त्रिंक देवों का, यावत् २,४०,००० आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से उत्तरदिशा के असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य एवं पुरोवर्त्तित्व करता हुआ विचरण करता है।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? भगवन् ! वे कहाँ निवास करते हैं? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर बीच में १,७८,००० योजन में, नागकुमार देवों के चौरासी लाख भवनावास हैं। इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् । यहाँ दो नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज-धरणेन्द्र और भूतानन्देन्द्र-निवास करते हैं । भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य नागकुमारों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी मध्य में १,७८,००० हजार योजन में, दाक्षिणात्य नागकुमार देवों के ४४ लाख भवन हैं । इत्यादि वर्णन पूर्ववत् इन्हीं स्थानों में नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणेन्द्र निवास करता है, वहाँ वह ४४ लाख भवनावासों का, ६००० सामानिकों का, तैंतीस त्रायस्त्रिंक देवों का, यावत् २४,००० आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से दाक्षिणात्य नागकुमार देवों देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है । भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन में, उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के चालीस लाख भवनावास हैं । इत्यादि पूर्ववत् । इन्हीं स्थानों में नागकुमारेन्द्र नाग-कुमारराज भूतानन्द निवास करता है, इत्यादि ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख भवनावास हैं । भवन वर्णन पूर्ववत् । वहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान हैं । इत्यादि समग्र वर्णन यावत् 'विचरण करता है। पूर्ववत् जानना । इन्हीं में दो सुपर्णकुमारेन्द्र सुपर्ण कुमारराज-वेणुदेव और वेणुदाली निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं; इत्यादि पूर्ववत् । भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इसी रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् मध्य में १,७८,००० योजन में, दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख भवनावास हैं । शेष वर्णन पूर्ववत् । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान हैं । यहाँ बहुत-से सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं । सुपर्णेन्द्र सुपर्ण कुमारराज वेणुदेव निवास करता है; शेष वर्णन पूर्ववत् । भगवन् ! उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापथ्वी के १,७८,००० योजन में, आदि यावत यहाँ उत्तरदिशा के सपर्ण-कमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं । भवन समग्र वर्णन पूर्ववत यावत यहाँ बहत-से उत्तरदिशा के सपर्ण-कमार देव निवास करते हैं, यावत् विचरण करते हैं । इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में यहाँ सुपर्णकुमारेन्द्र सुपर्णकुमारराज वेणुदाली निवास करता है, जो महर्द्धिक है; इत्यादि पूर्ववत् ।
सुपर्णकुमारों के समान शेष भवनवासियों को भी और उनके चौदह इन्द्रों को कहना । विशेषता यह है कि उनके भवनों की संख्या, इन्द्रों के नामों, वर्णों तथा परिधानों में अन्तर है। सूत्र-२०६-२०९
भवनावास-असुरकुमारों के ६४ लाख, नागकुमारों के ८४ लाख, सुपर्णकुमारों के ७२ लाख, वायुकुमारों के ९६ लाख । तथा- द्वीपकमारों से अग्निकमारों तक इन छहों के युगलों के प्रत्येक ७६-७६ लाख भवनावास हैं।
दक्षिणदिशा के असुरकुमारों आदि के भवनों की संख्या क्रमशः ३४ लाख, ४४ लाख, ३८ लाख, ५० लाख, ५ से १० तक प्रत्येक के ४०-४० लाख भवन हैं । उत्तरदिशा के असुरकुमारों आदि के भवनों की संख्या क्रमशः ३० लाख, ४० लाख, ३४ लाख, ४६ लाख, ५ से १० तक प्रत्येक के ३६-३६ लाख भवन हैं।
सूत्र - २१०
सामानिकों और आत्मरक्षकों की संख्या-दक्षिण दिशा के असरेन्द्र के ६४ हजार और उत्तरदिशा के असरेन्द्र के ६० हजार हैं; शेष सब के छह-छह हजार सामानिकदेव हैं। आत्मरक्षकदेव उन से चौगुने-चौगुने होते हैं। सूत्र-२११
दाक्षिणात्य इन्द्रों के नाम-चमरेन्द्र, धरणेन्द्र, वेणुदेवेन्द्र, हरिकान्त, अग्निसिंह, पूर्णेन्द्र, जलकान्त, अमित, वैलम्ब और घोष हैं। सूत्र - २१२
उत्तरदिशा के इन्द्रों के नाम-बलीन्द्र, भूतानन्द, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमाणव, वशिष्ठ, जलप्रभ, अमित वाहन, प्रभंजन और महाघोष इन्द्र है । (ये दसों) उत्तरदिशा के इन्द्र... यावत् विचरण करते हैं । सूत्र-२१३,२१४
वर्गों का कथन-असुरकुमार काले, नाग और उदधिकुमार शुक्ल और सुपर्ण, दिसा और स्तनितकुमार श्रेष्ठ स्वरिखा के समान गौर वर्ण के हैं । विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और द्वीपकुमार तपे हुए सोने के समान वर्ण के और वायुकुमार श्याम प्रियंगु के वर्ण के हैं। सूत्र-२१५, २१६
इनके वस्त्रों के वर्ण-असुरकुमारों के वस्त्र लाल, नाग और उदधिकुमारों के नीले और सुपर्ण, दिसा तथा स्तनितकुमारों के अतिश्वेत होते हैं । तथा विद्युत्कुमारों, अग्निकुमारों और द्वीपकुमारों के वस्त्र नीले रंग के और वायुकुमारों के सन्ध्याकाल की लालिमा जैसे हैं ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र - २१७
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर तथा नीचे भी एक सौ योजन छोड़कर, बीच में आठ सौ योजन में, वाण-व्यन्तर देवों के तीरछे असंख्यात भौमेय लाखों नगरावास हैं । वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार में संस्थित हैं । इत्यादि वर्णन भवनवासी के भवन समान समझना । इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान हैं । वे स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से वाणव्यन्तर देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-पिशाच, भत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्परुष, महाकाय भजगपति तथा गन्धर्वगण । (इनके आठ अवान्तर भेद-) अणपर्णिक, पणपर्णिक, ऋषिवादित, भूत-वादित, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंगदेव हैं।
ये चंचल, चपल, क्रीडा-तत्पर और परिहास-प्रिय होते हैं । गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति है। वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा ईच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों से वे भलीभाँति मण्डित रहते हैं । सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी शोभनीय, सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से वक्षःस्थल सुशोभित रहता है । अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, ईच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, विविध वर्णों वाले, श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं, इन्हें प्रमोद, कन्दर्प, कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है । इनमें हास्य और विवाद बहुत होता है।
इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले रहते हैं । अनेक मणियों और रत्नों के विविधचिह्न वाले होते हैं। महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाव या महासामर्थ्यशाली, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले हैं । कड़े और बाजूबंद से इनकी भुजाएं मानो स्तब्ध रहती हैं । अंगद और कुण्डल इनके कपोल-स्थल को स्पर्श किये रहते हैं । ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं, इनके हाथों में विचित्र आभूषण एवं मस्तक में विचित्र मालाएं होती हैं । ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी माला एवं अनुलेपन धारण किये रहते हैं । इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं । ये लम्बी वनमालाएं धारण करते हैं तथा दिव्य वर्ण-गन्ध-स्पर्शसंहनन-संस्थान-ऋद्धि-द्युति-प्रभा-छाया-अर्चि-तेज एवं दिव्य लेश्या से दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहाँ अपने-अपने लाखों भौमेय नगरवासों का, हजारों सामानिक देवों का, अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का, सेनाधिपति देवों का, आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहत-से वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते-कराते हुए वे महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। सूत्र-२१८
भन्ते ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच के आठ सौ योजन में, पिशाच देवों के तीरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों नगरावास हैं । नगरावास वर्णन पूर्ववत् । इन में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान हैं । (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से पिशाच देव निवास करते हैं। जो महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इन्हीं में दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज-काल और महाकाल, निवास करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन कहना।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के १००० योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच में जो ८०० योजन हैं, उनमें दाक्षिणात्य पिशाच देवों के तीरछे असंख्येय भूमिगृह जैसे लाखों नगरावास हैं। इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान हैं। इन्हीं में बहुत-से दाक्षिणात्य पिशाच देव निवास करते हैं, इत्यादि समग्र वर्णन करना । इन्हीं में पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, इत्यादि । वह तीरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, ४००० सामानिक देवों
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, १६००० आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का यावत् विचरण करता हैं | भगवन् ! उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच देवों का स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! दक्षिणदिशा के पिशाच देवों के समान उत्तरदिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना । विशेष यह है कि (इनके नगरावास) मेरुपर्वत के उत्तर में हैं। इन्हीं में (उत्तरदिशा का) पिशाचेन्द्र पिशाचराज-महाकाल निवास करता है, इत्यादि । ।
इस प्रकार पिशाचों और उनके इन्द्रों के समान भूत यावत् गन्धर्वो तक का वर्णन समझना । विशेष-इनके इन्द्रों में भेद है । यथा-भूतों के (दो इन्द्र)-सुरूप और प्रतिरूप, यक्षों के पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम. किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय तथा गन्धर्वो के गीतरति और गीतयश; यावत विचरण करता है। तक समझ लेना। सूत्र- २१९, २२०
वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो-दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार हैं-काल और महाकाल, सुरूप और प्रतिरूप, पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, भीम और महाभीम । तथा- किन्नर और किम्पुरुष, सत्पुरुष और महापुरुष, अतिकाय
और महाकाय तथा गीतरति और गीतयश । सूत्र-२२१
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अणपर्णिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के मध्य में आठसौ योजन में, अणपर्णिक देवों के तीरछे असंख्यात लाख नगरावास हैं | नगरावास वर्णन पूर्ववत् । इनमें अणपर्णिक देवों के स्थान हैं । वहाँ बहुत-से अणपर्णिक देव निवास करते हैं, वे महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इन्हीं में दोनों अणपर्णिकेन्द्र अणपर्णिककुमारराज-सन्निहित और सामान निवास करते हैं, जो कि महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इस प्रकार जैसे दक्षिण और उत्तरदिशा के (पिशाचेन्द्र) काल और महाकाल के समान सन्निहित और सामान आदि के विषय में कहना । सूत्र- २२२-२२४
अणपर्णिक, पणपर्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कुष्माण्ड और पतंगदेव । इनके (प्रत्येक के दो दो) इन्द्र ये हैं- सन्निहित और सामान, धाता और विधाता, ऋषि और ऋषिपाल, ईश्वर और महेश्वर, सुवत्स और विशाल । तथा- हास और हासरति, श्वेत और महाश्वेत, पतंग और पतंगपति । सूत्र-२२५
भगवन ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिष्क देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से ७९० योजन की ऊंचाई पर ११० योजन विस्तृत एवं तीरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र हैं, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तीरछे असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं । वे विमान आधा कवीठ के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं । वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं । विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र-विचित्र हैं; हवा से उड़ी हुई विजयवैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र से युक्त हैं; वे बहुत ऊंचे, गगनतलचुम्बी शिखरों वाले हैं । (उनकी) जालियों के बीच में लगे हए रत्न ऐसे लगते हैं, मानो पींजरे से बाहर नीकाले गए हों । वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं । तिलकों तथा रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं । वे अंदर और बाहर से चीकने हैं । उनके प्रस्तट सोने की रुचिर वालू वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं । इन में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्क देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
___ वहाँ बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक, ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति करते हैं
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र तथा गति में रत रहने वाला केतु, २८ प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पाँच वर्णों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करनेवाले, अविश्रान्त मंडलमें गति करनेवाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं) (इन सबमें से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है । ये महर्द्धिक होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझना।
वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानावासों का, हजारों सामानिक देवों का, सपरिवार अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का, सेनाधिपति देवों का, हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्त्तित्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं । इन्हीं में दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज -चन्द्रमा और सूर्य-निवास करते हैं (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों ज्योतिष्क विमानावासों का, ४००० सामानिक देवों का, सपरिवार ४ अग्रमहिषियों का. ३ परिषदों का, ७ सेनाओं का, ७ सेनाधिपति देवों का. १६००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व करते हए यावत विचरण करते हैं। सूत्र - २२६
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ, अनेक हजार, अनेक लाख, बहुत करोड़ और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के ८४,९७,०२३ विमान एवं विमानावास हैं । वे विमान सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चीकने, कोमल, घिसे हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रासादीय, दर्शनीय, रमणीय, अभिरूप
और प्रतिरूप हैं । इन्हीं में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहत-से वैमानिक देव निवास करते हैं । वे सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक एवं अनुत्तरौपपातिक देव हैं । वे मृग, महिष, वराह, सिंह, बकरा, दर्दुर, हय, गजराज, भुजंग, खङ्ग, वृषभ और विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गौरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक महर्द्धिक यावत् (पूर्ववत्) विचरण करते हैं। सूत्र-२२७
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर सौधर्म नामक कल्प हैं । वह पूर्व-पश्चिम लम्बा, उत्तर दक्षिण विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र आकार में संस्थित, अर्चियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान कान्तिवाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन है । वह सर्वरत्नमय है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उसमें सौधर्मदेवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं । विमान वर्णन पूर्ववत् । इन विमानों के बिलकुल मध्यदेशभाग में पाँच अवतंसक हैं । अशोकावतंसक, सप्त-वर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में पाँचवा सौधर्मावतंसक । इन्हीं में पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मक देवों के स्थान हैं । उनमें बहुत से सौधर्मक देव निवास करते हैं, जो कि 'महर्द्धिक हैं। (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानों का, यावत् बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, इत्यादि यावत् विचरण करते हैं।
इन्हीं में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, ३२ लाख विमानों का अधिपति है । ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, जो सुरेन्द्र है, रज-रहित स्वच्छ वस्त्र का धारक है, संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोलस्थल नवीन स्वर्णमय, सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से विलिखित होते हैं । वह महर्द्धिक हैं, इत्यादि पूर्ववत् । वह वहाँ ३२ लाख विमानावासों का, ८४००० सामानिक देवों का, तैंतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, ३,३६,००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ, यावत् विचरण करता है | सूत्र - २२८
_ भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ईशानक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरुपर्वत के उत्तर में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम और रमणीय भूभाग से ऊपर, यावत् दूर जाकर ईशान नामक कल्प कहा गया है, शेष वर्णन सौधर्म के समान समझना । उस में ईशान देवों के २८ लाख विमानावास हैं । वे विमान सर्वरत्न-मय यावत् प्रतिरूप हैं । उन विमानावासों के ठीक मध्यदेशभाग में पाँच अवतंसक कहे गए हैं । अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक, जातरूपावतंसक और इनके मध्य में ईशानावतंसक । वे अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं, इन्हीं में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ईशान देवों के स्थान हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् । इस ईशानकल्प में देवेन्द्र देवराज ईशान निवास करता है, शूलपाणि, वृषभवाहन, उत्तरार्द्धलोकाधिपति, २८ लाख विमानावासों का अधिपति, रजरहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है, शेष वर्णन पूर्ववत् । वह वहाँ २८ लाख विमाना-वासों का, ८०,००० सामानिक देवों का, तैंतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहि-षियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, ३,२०,००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, यावत् विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! सौधर्म-कल्प के ऊपर समान पक्ष और समान प्रतिदिशा में बहुत योजन, यावत् ऊपर दूर जाने पर सनत्कुमार कल्प है, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत । इसी में सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, यावत 'प्रतिरूप हैं। उन विमानों के बीचोंबीच में पाँच अवतंसक हैं । अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूताव-तंसक और इनके मध्य में सनत्कुमारावतंसक है। वर्णन पूर्ववत् । इन में पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान हैं। उनमें बहुत-से सनत्कुमार देव निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) विशेष यह है कि यहाँ अग्रमहिषियाँ नहीं हैं । यहीं देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है, शेष वर्णन पूर्ववत् । वह बारह लाख विमानावासों का, ७२,००० सामानिक देवों का, (इत्यादि) वर्णन पूर्ववत् 'अग्रमहिषियों को छोड़कर' (करना) । विशेषता यह कि २,२८,००० आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए... यावत् विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक माहेन्द्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! ईशानकल्प के ऊपर समान पक्ष और समान विदिशा में बहुत योजन, यावत् ऊपर दूर जाने पर वहाँ माहेन्द्र कल्प है, इत्यादि पूर्ववत् । विशेष यह है कि इस कल्प में विमान आठ लाख हैं । इनके बीच में माहेन्द्रअवतंसक है । यहीं देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र निवास करता है; शेष पूर्ववत् । विशेष यह है कि माहेन्द्र आठ लाख विमानावासों का, ७०,००० सामानिक देवो का, २,८०,००० आत्मरक्षक देवों का यावत् विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों के ऊपर समान पक्ष और समान विदिशा में बहुत योजन यावत् ऊपर दूर जाने पर, वहाँ ब्रह्मलोक कल्प है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का, ज्योतिमाला तथा दीप्तिराशि की प्रभावाला है । विशेष यह कि चार लाख विमानावास हैं । इनके मध्य में ब्रह्मलोक अवतंसक है; जहाँ कि ब्रह्मलोक देवों के स्थान हैं । शेष वर्णन पूर्ववत् ! ब्रह्मलोकावतंसक में देवेन्द्र देवराज ब्रह्म निवास करता है; (इत्यादि पूर्ववत् । विशेष यह कि चार लाख विमानावासों का, ६०,००० सामानिकों का, २,४०,००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ब्रह्मलोककल्प के देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त लान्तक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् बहत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर, लान्तक कल्प है, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत्, विशेष यह कि (इस कल्प में) ५०,००० विमानावास हैं, पाँचवा लान्तक अवतंसक है । शेष पूर्ववत् । इस
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र लान्तक अवतंसक में देवेन्द्र देवराज लान्तक निवास करता है, शेष पूर्ववत् । विशेष यह है कि (लान्तकेन्द्र) ५०,००० विमानावासों का, ५०,००० सामानिकों का, दो लाख आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से लान्तक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है |
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! लान्तककल्प के ऊपर समान दिशा में यावत् ऊपर जाने पर, महाशुक्र कल्प है, शेष वर्णन पूर्ववत् । विशेष इतना कि ४०,००० विमाना-वास हैं । (पाँचवा) महाशुक्रावतंसक है, यावत् विचरण करते हैं । इस महाशुक्रावतंसक में देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है, वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि (वह महाशुक्रेन्द्र) ४०,००० विमानावासों का, ४०,००० सामानिकों का, और १,६०,००० आत्मरक्षक देवों का आधिपतित्व करता हआ...यावत् विचरण करता है | भगवन् ! पर्याप्त-अपर्याप्त सहस्रार देवों का स्थान कहाँ है ? गौतम ! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा
शा से यावत ऊपर दर जाने पर, वहाँ सहस्रार कल्प है, समस्त वर्णन पूर्ववत । विशेष यह कि (इस कल्प में) ६००० विमानावास (पाँचवा) 'सहस्रारावतंसक' समझना । यावत विचरण करते हैं। । इसी स्थान पर देवेन्द्र देवराज सहस्रार निवास करता है । (वर्णन पूर्ववत्) विशेष यह है कि (सहस्रारेन्द्र) ६००० विमाना-वासों का, ३०,००० सामानिक देवों का और १,२०,००० आत्मरक्षक देवों का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरण करता है।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत एवं प्राणत देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और विदिशा में, यावत् ऊपर दूर जा कर, यहाँ आनत एवं प्राणत नाम के दो कल्प हैं; जो पूर्वपश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित, ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान हैं, शेष सब वर्णन पूर्ववत् । उन कल्पों में आनत और प्राणत देवों के ४०० विमानावास हैं; पूर्ववत् । विशेष यह कि इनमें (पाँचवा) प्राणतावतंसक है । वे अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय है, स्वच्छ हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं। इन (अवतंसकों) में पर्याप्त-अपर्याप्त आनत-प्राणत देवों के स्थान हैं । ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ बहुत-से आनत-प्राणत देव निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, यावत् वे (आनत-प्राणत देव) वहाँ अपने-अपने सैकड़ों विमानों का यावत् आधिपत्य करते हुए विचरते हैं । यहीं देवेन्द्र देवराज प्राणत निवास करता है, वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि (यह प्राणतेन्द्र) चार सौ विमानावासों का, २०,००० सामानिक देवों का आत्मरक्षक देवों का एवं अन्य बहुत-से देवों का अधिपतित्व करता हआ यावत् विचरण करता है |
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! आनत-प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में, यहाँ आरण और अच्युत नाम के दो कल्प हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित और अर्चिमाली की तेजोराशि के समान प्रभा वाले हैं । उनकी लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि भी असंख्यात कोटा-कोटी योजन की है । वे विमान पूर्णतः रत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन विमानों के ठीक मध्यप्रदेशभाग में पाँच अवतंसक कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं-१. अंकावतंसक, २. स्फटिकावतंसक, ३. रत्नावतंसक, ४. जातरूपावतंसक और इन चारों के मध्य में, ५. अच्युतावतंसक है । ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । इनमें आरण और अच्युत देवों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इनमें बहत-से आरण और अच्युत देव यावत् विचरण करते हैं । यहीं अच्युतावतंसक में देवेन्द्र देवराज अच्युत निवास करता है । वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि अच्युतेन्द्र तीन सौ विमानावासों का, १०,००० सामानिक देवों का तथा ४०,००० आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। सूत्र-२२९, २३०
(द्वादश कल्प-विमानसंख्या-क्रमशः) बत्तीस लाख, अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चार लाख, पचास हजार, चालीस हजार, सहस्रारकल्प में छह हजार । तथा-आनत-प्राणत कल्पों में चार सौ, तथा आरण-अच्युत कल्पों में ३०० विमान होते हैं । अन्तिम इन चार कल्पों में सात सौ विमान होते हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र- २३१
द्वादशकल्प सामानिक संख्या क्रमश:- ८४,०००, ८०,०००, ७२,०००, ७०,०००, ६०,०००, ५०,०००, ४०,०००, ३०,०००, २०,००० और आरण-अच्युत में १०,००० है। सूत्र - २३२
इन्हीं बारह कल्पों के आत्मरक्षक इन से (क्रमशः) चार-चार गुने हैं।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! आरण और अच्युत कल्पों के ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर अधस्तन-प्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तट हैं; वर्णन पूर्ववत् ! वे परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार में संस्थित हैं। उनमें अधस्तन ग्रैवेयक देवों के विमान १११ हैं । वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और पर्याप्तक अधस्तन-प्रैवेयक देवों के स्थान हैं । उनमें बहुत-से अधस्तनग्रैवेयक देव निवास करते हैं, वे सब समान ऋद्धिवाले, सभी समान द्युतिवाले, सभी समान यशस्वी, सभी समान बली, सब समान अनुभाव वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्यरहित, पुरोहितहीन हैं । वे देवगण अहमिन्द्र' हैं।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्य ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! अधस्तन ग्रैवेयकों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर दूर जाने पर, मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयकविमान-प्रस्तट हैं; इत्यादि वर्णन अधस्तन ग्रैवेयकों के समान समझना । विशेष यह कि यहाँ १०७ विमानावास हैं । वे विमान यावत् 'प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम-ग्रैवेयक देवों के स्थान हैं । वहाँ बहत-से मध्यम ग्रैवेयकदेव निवास करते हैं यावत् वे देवगण अहमिन्द्र' हैं।
__ भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मध्यम ग्रैवेयकों के ऊपर यावत् दूर जाने पर, वहाँ उपरितन ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट हैं, शेष वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि यहाँ विमानावास एक सौ होते हैं । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना । सूत्र-२३३
अधस्तन ग्रैवेयकों में १११, मध्यम ग्रैवेयकों में १०७, उपरितन के ग्रैवेयकों में १०० और अनुत्तरौपपातिक देवों के पाँच ही विमान हैं।
सूत्र-२३४
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् तीनों ग्रैवेयकप्रस्तटों के विमानावासों को पार करके उससे आगे सुदूर स्थित, पाँच दिशाओंमें रज रहित, निर्मल, अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पाँच अनुत्तर विमान हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकमय स्वच्छ, यावत् प्रतिरूप हैं। वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत-से अनुत्तरौपपातिक देव निवास करते हैं । वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न, यावत् अहमिन्द्र' हैं। सूत्र- २३५
भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम! सर्वार्थसिद्ध विमान की ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से १२ योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन है । उसकी परिधि योजन १४२०३२४९ से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के बहुत मध्यभाग में ८ योजन का क्षेत्र है, जो आठ योजन मोटा है । उसके अनन्तर अनुक्रम से प्रदेशों की कमी होते जाने से, हीन होती-होती वह सबसे अन्त में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी है । ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बारह नाम हैं । ईषत्, ईषत्-प्राग्भारा, तनु, तनु-तनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, लोकाग्र, लोकाग्र-स्तूपिका, लोकाग्रप्रतिवाहिनी और सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा ।
ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी श्वेत है, शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्णवाली, उत्तान छत्र के आकार में स्थित, पूर्णरूप से अर्जुनस्वर्ण के समान श्वेत, स्फटिक-सी स्वच्छ, चिकनी,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कोमल, घिसीहुई, निर्मल, निष्पंक, निरावरणछायायुक्त, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी से निःश्रेणीगति से एक योजन पर लोक का अन्त है । उस योजन का जो ऊपरी गव्यूति है, उस गव्यूति का जो ऊपरी छठा भाग है, वहाँ सादि-अनन्त, अनेक जन्म, जरा, मरण, योनिसंसरण, बाधा, पुनर्भव, गर्भवासरूप वसति तथा प्रपंच से अतीत सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं। वहाँ भी वे वेदरहित, वेदनारहित, ममत्वरहित, संगरहित, संसार से सर्वथा विमुक्त एवं (आत्म) प्रदेशों से बने हुए आकारवाले हैं। सूत्र - २३६, २३७
'सिद्ध कहाँ प्रतिहत हैं ?' सिद्ध किस स्थान में प्रतिष्ठित हैं ? कहाँ शरीर को त्याग कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं?अलोक के कारण सिद्ध प्रतिहत हैं । वे लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं तथा यहाँ शरीर को त्याग कर वहाँ जाकर सिद्ध हो जाते हैं। सूत्र-२३८,२३९
दीर्घ अथवा ह्रस्व, जो अन्तिमभव में संस्थान होता है, उससे तीसरा भाग कम सिद्धों की अवगाहना है।
इस भव को त्यागते समय अन्तिम समय में (त्रिभागहीन जितने) प्रदेशों में सघन संस्थान था, वही संस्थान वहाँ रहता है। सूत्र-२४०-२४२
३३३ धनुष और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है । यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना होती है । ..... चार रत्नि और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है । ..... एक रत्नि और आठ अंगुल अधिक, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। सूत्र-२४३
(अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन सिद्धों की अवगाहना है । जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ होता है। सूत्र-२४४
जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं । वे सब लोक के अन्त भाग से स्पष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ हैं। सूत्र-२४५
एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्तसिद्धों को स्पर्श करता (स्पृष्ट हो कर रहता) है। तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (होकर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं। सूत्र-२४६
__ सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवघन हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त रहते हैं; साकार और अनाकार उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है। सूत्र-२४७
केवलज्ञान से उपयुक्त होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः देखते हैं। सूत्र-२४८
अव्याबाध को प्राप्त सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो मनुष्यों को होता है, और न ही समस्त देवों को होता है। सूत्र-२४९
देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अनन्त वर्गों से वर्गित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख को नहीं पा सकता। सूत्र-२५०
एक सिद्ध के (प्रतिसमय के) सुखों की राशि, यदि सर्वकाल से पिण्डित की जाए, और उसे अनन्तवर्गमूलों से भाग दिया जाए, तो वह सुख भी सम्पूर्ण आकाश में नहीं समाएगा। सूत्र-२५१,२५२
__ जैसे कोई म्लेच्छ अनेक प्रकार के नगर-गुणों को जानता हुआ भी उसके सामने कोई उपमा न होने से कहने में समर्थ नहीं होता।
इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है । फिर भी कुछ विशेष रूप से इसकी उपमा बताऊंगा, इसे सूनो । सूत्र-२५३
जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त होकर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो। सूत्र - २५४
वैसे ही सर्वकाल में तृप्त अतुल, शाश्वत, एवं अव्याबाध निर्वाण-सुख को प्राप्त सिद्ध भगवान् सुखी रहते हैं। सूत्र-२५५
वे मुक्त जीव सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, पारगत हैं, परम्परागत हैं, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त हैं, अजर, अमर और असंग हैं । उन्होंने सर्वःदुःखों को पार कर दिया है। सूत्र - २५६
वे जन्म, जरा, मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त, सिद्ध (होकर) अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं
पद-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-३-अल्पबहुत्व
सूत्र-२५७,२५८
__ दिक्, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिक, चरम, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल और महादण्डक तृतीयपदमें ये २७ द्वार हैं सूत्र-२५९
दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े जीव पश्चिमदिशा में हैं, (उन से) विशेषाधिक पूर्वदिशा में हैं, (उन से) विशेषाधिक दक्षिणदिशामें हैं, (और उन से) विशेषाधिक (जीव) उत्तरदिशा में हैं। सूत्र - २६०
दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक जीव दक्षिणदिशा में हैं, उत्तर में विशेषाधिक हैं, पूर्वदिशा में विशेषाधिक हैं, पश्चिम में विशेषाधिक हैं | दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े अप्कायिक जीव पश्चिम में हैं, विशेषाधिक पूर्व में हैं, विशेषाधिक दक्षिण में हैं और विशेषाधिक उत्तरदिशा में हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े तेजस्कायिक जीव दक्षिण और उत्तर में हैं, पूर्व में संख्यातगुणा अधिक हैं, पश्चिम में विशेषाधिक हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम वायुकायिक जीव पूर्वदिशा में हैं, विशेषाधिक पश्चिम में हैं, विशेषाधिक उत्तर में हैं और भी विशेषाधिक दक्षिण में हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े वनस्पतिकायिक जीव पश्चिम में हैं, विशेषाधिक पूर्व में हैं, विशेषाधिक दक्षिण में हैं, विशेषाधिक उत्तर में हैं।
दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम द्वीन्द्रिय जीव पश्चिम में हैं, विशेषाधिक पूर्व में हैं, विशेषाधिक दक्षिण में हैं, विशेषाधिक उत्तरदिशा में हैं, दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम त्रीन्द्रिय जीव पश्चिमदिशा में हैं, विशेषाधिक पूर्व में हैं, विशेषाधिक दक्षिण में हैं और विशेषाधिक उत्तर में हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम चतुरिन्द्रिय जीव पश्चिम में हैं, विशेषाधिक पूर्वदिशा में हैं, विशेषाधिक दक्षिण में हैं, विशेषाधिक उत्तरदिशा में हैं।
दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तरदिशा में हैं, असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं । इसी तरह रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा के नैरयिकों के विषय में भी दिशाओं की अपेक्षा से यही अल्पबहुत्व जानना।
दक्षिणदिशा के अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से छठी तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में असंख्यातगुणे हैं, और (उन से भी) असंख्यातगुणे दक्षिणदिशामें हैं । इसी तरह दक्षिणदिशा के साथ तमःप्रभापृथ्वी से लेकर शर्कराप्रभापृथ्वी के नैयिकों का पीछे पीछे की नरक यावत् रत्नप्रभा के नैरयिकों के साथ अल्प-बहुत्व जानना।
दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव पश्चिम में हैं । पूर्व में विशेषाधिक हैं, दक्षिण में विशेषाधिक हैं और उत्तर में (इनसे भी) विशेषाधिक हैं । दिशाओं की अपेक्षा सबसे कम मनुष्य दक्षिण एवं उत्तर में हैं, पूर्व में संख्यातगुणे अधिक हैं और पश्चिमदिशा में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम में हैं । असंख्यातगुणे अधिक उत्तर में हैं और (उनसे भी) असंख्यात-गुणे दक्षिण दिशा में हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प वाणव्यन्तर देव पूर्व में हैं, विशेषाधिक पश्चिम में हैं, विशेषाधिक उत्तर में हैं
और उनसे भी विशेषाधिक दक्षिण में हैं । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े ज्योतिष्क देव पूर्व एवं पश्चिम में हैं, दक्षिण में विशेषाधिक हैं और उत्तर में उनसे भी विशेषाधिक हैं।
___ दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प देव सौधर्मकल्प में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में हैं, उत्तर में असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं | माहेन्द्रकल्प तक दिशाओं की अपेक्षा से यही अल्पबहुत्व समझना । दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम देव ब्रह्मलोककल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं; दक्षिणदिशा में असंख्यातगुणे हैं। सहस्रारकल्प तक यहीं अल्पबहुत्व जानना । हे आयुष्मन् श्रमणो ! उससे आगे (के प्रत्येक कल्प यावत् अनुतर विमान में चारों दिशाओं में) बिलकुल सम उत्पन्न होने वाले हैं।
दिशाओं की अपेक्षा से सब से अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तरदिशा में हैं । पूर्वमें संख्यातगुणे हैं और पश्चिममें
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र (उन से) विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६१
भगवन् ! नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों की पाँच गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, देव असंख्यातगुणे हैं, देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) तिर्यंचयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं। भगवन् ! इन नैरयिकों, तिर्यंचों, तिर्यंचनियों, मनुष्यों, मनुष्यस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों का आठ गतियों की अपेक्षा से, संक्षेप में, कौन किनसे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम मानुषी हैं, मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, तिर्यंचनियाँ असंख्यातगुणी हैं, देव असंख्यातगुण हैं, देवियाँ संख्यातगुणी हैं, सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और (उनसे भी) तिर्यंचयोनिक अनन्तगुणे हैं। सूत्र-२६२
____ भगवन् ! इन इन्द्रिययुक्त, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रियों में कौन किन से अल्प, बहत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय जीव हैं, चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, त्रीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, अनिन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं, एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं और उनसे इन्द्रियसहित जीव विशेषाधिक हैं । भगवन् ! इन इन्द्रियसहित, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में यावत् कौन विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) इन्द्रियसहित अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । भगवन् ! इन इन्द्रियसहित, एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में यावत् कौन विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम चतु-रन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और उनसे भी इन्द्रियसहित पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! सेन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सेन्द्रिय पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं । भगवन् ! इन एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन यावत विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प एकेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, (उनसे) ए संख्यातगणे हैं। भगवन ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक दीन्द्रिय जीवों में कौन यावत विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम द्वीन्द्रिय पर्याप्तक हैं, (उनसे) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । -इसी तरह पंचेन्द्रिय तक के विषय में अल्पबहुत्व समझना।
___ भगवन् ! इन सेन्द्रिय, एकेन्द्रिय, यावत् पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं । त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं | पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं । एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं । सेन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं । एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं (तथा उनसे भी) सेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६३
भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक और अकायिक जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प त्रसकायिक हैं, तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, अप्कायिक विशेषाधिक हैं, वायुकायिक विशेषाधिक हैं, अकायिक अनन्तगुणे हैं, वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, और (उनसे भी) सकायिक विशेषाधिक हैं | भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक अपर्याप्तकों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सब से थोडे त्रसकायिक अपर्याप्तक हैं, तेजस्कायिक
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पद/उद्देश /सूत्र अपर्याप्तक असंख्यातगुणे, पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक, वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, उन से भी सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक, यावत् त्रसकायिक पर्याप्तकों में ? गौतम ! सबसे अल्प त्रस-कायिक पर्याप्त हैं, तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं (उनसे भी) सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं । भगवन् ! इन पर्याप्त और अपर्याप्त सकायिकों में ? गौतम ! सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक है, (उनसे) सकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं । - इसी तरह पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पति-कायिकों के अपर्याप्तक से पर्याप्तक को समझना ।
भगवन् ! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रसकायिकों में ? गौतम ! सबसे कम पर्याप्तक त्रसकायिक हैं, (उनसे) अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यातगणे हैं | भगवन ! इन सकायिक, पथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजसकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तक में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, और (उनसे भी) सकायिक विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६४
भगवन ! इन सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्मनिगोदों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायु-कायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म निगोद असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। भगवन् ! इन सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवों में ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक है; सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषा-धिक हैं, सूक्ष्म
और निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।।
भगवन् ! इन सूक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक और सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीवों में ? गौतम ! सब से थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यात गुणे हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और (उन से भी) विशेषाधिक सूक्ष्म पर्याप्तक जीव हैं । भगवन् ! इन सूक्ष्म पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवोंमें? गौतम! सबसे अल्प सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव, उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं
भगवन् ! इन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तकों में ? गौतम ! सबसे अल्प सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं । इसी तरह सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के विषय में जानना । भगवन् ! इन सूक्ष्म निगोद के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं।
भगवन् ! इन सूक्ष्म जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक,
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पद/उद्देश/सूत्र सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोदों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषा-धिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म तेजस्-कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं और (उनसे भी) सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। सूत्र- २६५
भगवन् ! इन बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायु-कायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक हैं, बादर तेजस्-कायिक असंख्येयगुणे हैं, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुणे हैं, बादर निगोद असंख्येयगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक असंख्येयगुणे हैं, बादर अप्कायिक असंख्येयगुणे हैं, बादर वायुकायिक असंख्येयगुणे हैं, बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, और (उनसे भी) बादर जीव विशेषाधिक हैं । भगवन् ! इन बादर अपर्याप्तकों, बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तकों, बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तकों, बादर वायु-कायिकअपर्याप्तकों, बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों, बादर निगोदअपर्याप्तकों एवं बादर त्रसकायिक-अपर्याप्तकों में ? गौतम ! सबसे कम बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक हैं, बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर अप्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वायुकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, बादर अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । भगवन् ! इन बादर पर्याप्तकों, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों, बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों, बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तकों, बादर वायकायिक-पर्याप्तकों, बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्तकों, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों, बादर निगोद-पर्याप्तकों एवं बादर त्रसकायिक-पर्याप्तकों में ? गौतम ! सबसे कम बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं (उनसे भी) बादर पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन बादर पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? गौतम ! सबसे अल्प बादर पर्याप्तक जीव हैं, (उनसे) बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । इसी तरह बादर पृथ्वीकायिक से लेकर बादर वनस्पतिकायिक तक, बादर निगोद एवं बादर त्रसकायिकों में पर्याप्तक से अपर्याप्तक को असंख्यातगुणे समझना।
भगवन्!इन बादर-जीवों, बादर-पृथ्वीकायिकों, बादर-अप्कायिकों, बादर-तेजस्कायिकों, बादर-वायुकायिकों, बादर-वनस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों के पर्याप्तकों
और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादरतेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं। बादर-त्रसकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। बादर-त्रसकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। बादर-वायुकायिक
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । प्रत्येकशरीर-बादर-वनस्पतिकायिकअपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं | बादर-निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं | बादर-पृथ्वी-कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं । बादर-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं । बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं (उनसे भी) बादर जीव विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६६
भगवन् ! इन सूक्ष्मजीवों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकों यावत् सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों, सूक्ष्मनिगोदों तथा बादर-जीवों, बादर-पृथ्वीकायिकों यावत् बादर-वनस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर-बादर-वनस्पतिकायिकों, बादर-निगोदों और बादरत्रसकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोडे बादर-त्रसकायिक हैं, बादर तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं, बादर निगोद असंख्यातगुणे हैं, बादर-पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं, बादर-अप्कायिक असंख्यातगुणे हैं, बादर-वायु-कायिक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म-तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-अप्कायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-वायुकायिक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-निगोद असंख्यातगुणे हैं, बादर-वनस्पति-कायिक अनन्तगुणे हैं, बादर-जीव विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं उनसे भी सूक्ष्म-जीव विशेषाधिक हैं । यावत् बादर-त्रसकायिक-अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादरत्रसकायिक-अपर्याप्तक हैं, बादर-तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येक-शरीर-बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, बादरनिगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, सक्षम-तेजस्कायिकअपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-अप्का विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-वायुकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादरवनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं उनसे भी सूक्ष्म-अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन सूक्ष्म-पर्याप्तकों, यावत् बादरत्रसकायिक-पर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं, बादर त्रसकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर-निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर-वायुकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म-तेजस्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक - पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म-अप्कायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, बादर-पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म-पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन सूक्ष्म और बादर जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादर पर्याप्तक हैं, बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी सूक्ष्म पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं । इसी तरह पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पति कायिक और निगोदों के विषय में जानना ।
भगवन् ! इन सूक्ष्म-जीवों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकों, यावत् बादर-त्रसकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, बादर निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर-अप्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर अप्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वायुकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, बादर पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, बादर अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, बादर जीव विशेषाधिक हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं; सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, उनसे भी सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। सूत्र - २६७
भगवन् ! इन सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम ! सबसे अल्प जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी जीव असंख्यातगुणे हैं, अयोगी अनन्तगुणे हैं, काययोगी अनन्तगुणे हैं, उनसे भी सयोगी विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६८
भगवन् ! इन सवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अवेदी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदी है, स्त्रीवेदी संख्यातगुणे हैं, अवेदी अनन्तगुणे हैं, नपुंसकवेदी अनन्तगुणे हैं, उनसे भी सवेदी विशेषाधिक हैं। सूत्र-२६९
भगवन् ! इन सकषायी, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी और अकषायी जीवों में से कौन यावत् विशेषा-धिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव अकषायी हैं, मानकषायी जीव अनन्तगुणे हैं, क्रोधकषायी जीव विशेषाधिक हैं, मायाकषायी जीव विशेषाधिक हैं, लोभकषायी विशेषाधिक हैं और (उनसे भी) सकषायी जीव विशेषाधिक हैं। सूत्र- २७०
भगवन् ! इन सलेश्यों, कृष्णलेश्यावालों, यावत् शुक्ललेश्यावालों एवं लेश्यारहित जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी , पद्मलेश्यी संख्यातगुणे हैं, तेजोलेश्यी संख्यातगुणे हैं, लेश्या-रहित अनन्तगुणे हैं, कापोतलेश्यी अनन्तगुणे, नीललेश्यी विशेषाधिक; कृष्णलेश्यी विशेषाधिक, उनसे सलेश्य विशेषाधिक हैं सूत्र-२७१
भगवन् ! सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों में कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सम्यमिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं उनसे भी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं । सूत्र - २७२
भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् केवलज्ञानी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी हैं, अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी; ये दोनों तुल्य हैं और विशेषाधिक हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं । भगवन् ! इन मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों तुल्य हैं और अनन्तगुणे हैं । भगवन् ! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, यावत् विभंगज्ञानी जीवोंमें से कौन यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम ! सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी हैं, अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य हैं और विशेषाधिक हैं, विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी, दोनों तुल्य हैं मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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पद/उद्देश /सूत्र और (केवलज्ञानियों से) अनन्तगुणे हैं । सूत्र- २७३
भगवन् ! इन चक्षुदर्शनी यावत् केवलदर्शनी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अवधिदर्शनी हैं, चक्षुदर्शनी जीव असंख्यातगुणे हैं, केवलदर्शनी अनन्तगुणे हैं, उनसे भी अचक्षुदर्शनी जीव अनन्तगुणे हैं सूत्र-२७४
भगवन् ! इन संयतों, असंयतों, संयतासंयतों और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प संयत जीव हैं, संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं, नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव अनन्तगुणे हैं, उनसे भी असंयत जीव अनन्तगुणे हैं। सूत्र-२७५
भगवन् ! इन साकारोपयोग-युक्त और अनाकारोपयोग-युक्त जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प अनाकारो-पयोग वाले जीव हैं, उनसे साकारोपयोग वाले जीव संख्यातगुणे हैं। सूत्र - २७६
भगवन् ! इन आहारकों और अनाहारकजीवों में से ? गौतम ! सबसे कम अनाहारक जीव हैं, उनसे आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं। सूत्र - २७७
भगवन् ! इन भाषक और अभाषक जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प भाषक जीव हैं, उनसे अनन्तगुणे अभाषक हैं। सूत्र - २७८
भगवन ! इन परीत, अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों में ? गौतम ! सबसे थोडे परीत जीव हैं, नोपरीतनोअपरीत जीव अनन्तगुणे हैं, उनसे भी अपरीत जीव अनन्तगुणे हैं। सूत्र - २७९
__ भगवन् ! इन पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, अपर्याप्तक जीव अनन्तगुणे हैं, उनसे भी पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं । सूत्र - २८०
भगवन् ! सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प नोसूक्ष्म-नोबादर जीव हैं, बादर जीव अनन्तगुणे हैं, उनसे भी सूक्ष्म जीव असंख्यातगुणे हैं । सूत्र-२८१
भगवन् ! संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों में ? गौतम ! सबसे अल्प संज्ञी जीव हैं, नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव अनन्तगुणे हैं, उनसे भी असंज्ञीजीव अनन्तगुणे हैं। सूत्र-२८२
भगवन् ! इन भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों में ? गौतम ! सबसे थोड़े अभवसिद्धिक जीव, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे उनसे भी भवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं सूत्र - २८३
भगवन् ! धर्मास्तिकाय यावत् अद्धा-समय इन द्रव्यों में से, द्रव्य की अपेक्षा से कौन यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों ही तुल्य हैं तथा द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प हैं; जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण हैं; पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है; इससे भी अद्धा-समय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण हैं । हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, आदि द्रव्यों में से प्रदेश की अपेक्षा से?
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पद/उद्देश /सूत्र गौतम ! धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं, जीवास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण हैं, पुद्गलास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण हैं, अद्धा-समय प्रदेशापेक्षया अनन्तगुण हैं; इससे आकाशास्तिकाय प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुण हैं।
धर्मास्तिकाय सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा से एक धर्मास्तिकाय (द्रव्य) हैं और वही प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं । इसी तरह अधर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी समझ लेना । काल (अद्धासमय) के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं पूछा जाता, क्योंकि उसमें प्रदेशों का अभाव है।
भगवन् ! धर्मास्तिकाय, आदि द्रव्यों में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन-किससे बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? गौतम ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीन तल्य हैं तथ से सबसे अल्प हैं, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं तथा असंख्यात-गुणे हैं, जीवास्तिकाय, द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुण हैं, वह प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं, पुदगलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं, पुद्गलास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुण हैं । अद्धा-समय द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं, इससे भी आकाशास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं। सूत्र-२८४
भगवन् ! इन चरम और अचरम जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम! अचरम जीव सबसे थोडे हैं. (उनसे) चरम जीव अनन्तगुणे हैं। सूत्र- २८५
भगवन् ! इन जीवों, पुद्गलों, अद्धा-समयों, सर्वद्रव्यों, सर्वप्रदेशों और सर्वपर्यायों में प्रश्न-गौतम ! सबसे अल्प जीव हैं, पुद्गल अनन्तगुण हैं, अद्धा-समय अनन्तगुणे हैं, सर्वद्रव्य विशेषाधिक हैं, सर्वप्रदेश अनन्तगुणे हैं, सर्वपर्याय अनन्तगुणे हैं। सूत्र-२८६
क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में हैं, अधोलोक-तिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, ऊर्ध्वलोक में असंख्येयगुणे हैं, उनसे भी अधोलोक में विशेषाधिक हैं। सूत्र-२८७
क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे थोड़े नैरयिकजीव त्रैलोक्य में हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, उनसे भी अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे अल्प तिर्यंचयोनिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, विशेषाधिक अधोलोक-तिर्यक्लोक में हैं, तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, उनसे भी अधोलोक में विशेषाधिक हैं । क्षेत्र के अनुसार सबसे कम तिर्यचिनी ऊर्ध्वलोक में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं।
क्षेत्र के अनुसार सबसे थोड़े मनुष्य त्रैलोक्य में हैं, ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, अधोलोकतिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं । क्षेत्र के अनुसार सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ त्रैलोक्य में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणी हैं, अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं । क्षेत्र के अनुसार सबसे थोड़े देव ऊर्ध्वलोक में हैं, असंख्यातगुणे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं । इसी तरह देवीओं के सम्बन्ध में भी समझ लेना ।
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पद/उद्देश /सूत्र
सूत्र-२८८
क्षेत्रानुसार सब से थोड़े भवनवासी देव ऊर्ध्वलोकमें हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोकमें असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोकमें असंख्यातगुणे हैं, तिर्यक्लोकमें असंख्यातगुणे हैं, (उन से भी) अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं । भवनवासिनी देवी के सम्बन्ध में यही समझना । क्षेत्रानुसार सबसे अल्प वाणव्यन्तर देव ऊर्ध्वलोक में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोकमें असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, अधोलोक में संख्यातगुणे, (उनसे) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं । वाणव्यन्तर देवी के विषय में भी यहीं समझना ।
क्षेत्र के अनुसार सबसे कम ज्योतिष्क देव ऊर्ध्वलोक में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यकलोक में असंख्यातगुणे हैं, अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, (उनसे भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं । ज्योतिष्कदेवी के सम्बन्ध में भी यहीं समझ लेना । क्षेत्र के अनुसार सबसे कम वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, (उनसे भी) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं । वैमानिक देवी के सम्बन्ध में भी यहीं समझना ।
सूत्र - २८९
क्षेत्र के अनुसार सबसे थोड़े एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। - एकेन्द्रिय अपर्याप्तक और पर्याप्तक के सम्बन्ध में भी इसी तरह समझ लेना। सूत्र - २९०
क्षेत्र की अपेक्षा सब से कम द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, (उन से) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात-गुणे हैं, (उन से) त्रैलोक्यमें असंख्यातगुणे हैं, (उन से) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, (उन से) अधोलोकमें संख्यातगुणे हैं, (और उनसे) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक और पर्याप्तक के सम्बन्धमें भी यही समझना । त्रीइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय जीवों तथा उन के अपर्याप्तक-पर्याप्तक के सम्बन्ध में भी यहीं अल्पबहुत्व जानना। सूत्र-२९१
क्षेत्र अपेक्षा से सबसे अल्प पंचेन्द्रिय त्रैलोक्य में हैं, (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, (उनसे) ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं । -पंचेन्द्रिय के अपर्याप्तक और पर्याप्तक के सम्बन्ध में यहीं समझ लेना । सूत्र - २९२
क्षेत्र के अनुसार सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, और (उनसे) अधोलोक में विशेषाधिक हैं | - ऐसा ही अपर्याप्तक और पर्याप्तक के विषय में जानना । अप्कायिक से वनस्पतिकायिक के सम्बन्ध में भी इसी तरह समझ लेना। सूत्र-२९३
क्षेत्र अपेक्षा से सब से थोड़े त्रसकायिक जीव त्रैलोक्यमें हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोकमें संख्यातगुणे हैं, उन से संख्यातगुणे अधोलोक-तिर्यक्लोकमें हैं, ऊर्ध्वलोकमें (उनसे) संख्यातगुणे हैं, अधोलोक में उनसे संख्यात-गुणे हैं, और (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं । इसी तरह त्रसकायिक अपर्याप्तक और पर्याप्तकों के सम्बन्ध में समझना । सूत्र - २९४
भगवन् ! इन आयुष्यकर्म के बन्धकों और अबन्धकों, पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों, सुप्त और जागृत जीवों, समुद्घात करने वालों और न करने वालों, सातावेदकों और असातावेदकों, इन्द्रियोपयुक्तों और नो-इन्द्रियो-पयुक्तों, साकारोपयोग में उपयुक्तों और अनाकारोपयोग में उपयुक्त जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा
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पद/उद्देश /सूत्र विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े आयुष्कर्म के बन्धक जीव हैं, अपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, सुप्तजीव संख्यातगुणे हैं, समुद्घात वाले संख्यातगुणे हैं, सातावेदक संख्यातगुणे हैं, इन्द्रियोपयुक्त संख्यातगुणे हैं, नो-इन्द्रियो पयुक्त जीव विशेषाधिक हैं, असातावेदक विशेषाधिक हैं, समुद्घात न करते हुए जीव विशेषाधिक हैं, जागृत विशेषाधिक हैं, पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, उनकी अपेक्षा भी आयुष्यकर्म के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। सूत्र - २९५
क्षेत्र के अनुसार सबसे कम पुद्गल त्रैलोक्य में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में (उनसे) अनन्तगुणे हैं, अधोलोकतिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं । दिशाओं के अनुसार सबसे कम पुद्गल ऊर्ध्वदिशा में हैं, अधोदिशा में विशेषाधिक हैं, उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम दोनों में तुल्य और असंख्यातगुणे हैं, दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पश्चिम दोनों में तुल्य हैं और विशेषाधिक हैं, पूर्वदिशा में असंख्यातगुणे हैं, पश्चिमदिशा में विशेषाधिक हैं, दक्षिण में विशेषाधिक हैं, (और उनसे भी) उत्तर में विशेषाधिक हैं।
क्षेत्र के अनुसार सबसे कम द्रव्य त्रैलोक्य में हैं, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्तगुणे हैं, अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे अधिक हैं, अधोलोक में अनन्तगुणे हैं, (और उनसे) तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं । दिशाओं के अनुसार, सबसे थोड़े द्रव्य अधोदिशा में हैं, ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणे हैं, उत्तरपूर्व और दक्षिण-पश्चिम दोनों में तल्य और असंख्यातगणे हैं, दक्षिणपर्व और उत्तरपश्चिम, दोनों में तल्य हैं तथा विशेषाधिक हैं, पूर्व में असंख्यातगुणे हैं, पश्चिम में विशेषाधिक हैं, दक्षिण में विशेषाधिक हैं, (उनसे भी) उत्तर में विशेषाधिक हैं। सूत्र - २९६
भगवन् ! इन परमाणुपुद्गलों तथा संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों में ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से-१. सबसे थोड़े अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं, २. परमाणुपुद्गल अनन्तगुणे हैं, ३. संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध संख्यातगुणे हैं, ४. असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । प्रदेशों की अपेक्षा से, १. सबसे कम अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, २. परमाणुपुद्गल अनन्तगुणे हैं, ३. संख्यातप्रदेशी स्कन्ध संख्यातगुणे हैं, ४. असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे अल्प, द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं, वे ही प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, परमाणुपुद्गल, द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, वे ही प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, वे प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं।
भगवन ! इन एकप्रदेशावगाढ, संख्यातप्रदेशावगाढ और असंख्यातप्रदेशावगाढ पदगलों में प्रश्न-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से-१. सबसे कम द्रव्य की अपेक्षा से एक प्रदेश में अवगाढ़ पुद्गल हैं, २. संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ पुद् गल, संख्यातगुणे हैं, ३. असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल असंख्यात हैं । प्रदेशों की दृष्टि से १. सबसे कम, एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल हैं, २. संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, संख्यातगुणे हैं, ३. असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से सबसे कम एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से हैं, संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, वे ही प्रदेश की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, वे ही, प्रदेश की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं।
भगवन् ! इन एक समय की स्थिति वाले, संख्यात समय की स्थिति वाले और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों में प्रश्न-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से १. सबसे अल्प एक समय की स्थिति वाले पुद्गल हैं, २. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, संख्यातगुणे हैं, ३. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, असंख्यातगुणे हैं । प्रदेशों की अपेक्षा से-१. सबसे कम, एक समय की स्थिति वाले पुद्गल हैं, २. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, संख्यातगुणे हैं, ३. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से सबसे कम पुद्गल, एक समय की स्थिति वाले, संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र संख्यातगुणे हैं, वे ही प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, वे ही प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं।
भगवन् ! इन एकगुण काले, संख्यातगुणे काले, असंख्यातगुणे काले और अनन्तगुण काले पुद्गलों में ? गौतम ! परमाणुपुद्गलों के अनुसार यहाँ भी कहना । इसी प्रकार संख्यातगुणे काले इत्यादि, इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गन्ध एवं रस के तथा स्पर्श के (अल्पबहत्व के) विषय में पूर्ववत् यथायोग्य समझ लेना। सूत्र - २९७
हे भगवन् ! अब मैं समस्त जीवों के अल्पबहत्व का निरूपण करने वाले महादण्डक का वर्णन करूँगा - १. सबसे कम गर्भव्युत्क्रान्तिक हैं, २. मानुषी संख्यातगुणी अधिक हैं, ३. बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक असंख्यात-गुणे हैं, ४. अनुत्तरौपपातिक देव असंख्यातगुणे हैं, ५. ऊपरी ग्रैवेयकदेव संख्यातगुणे हैं, ६. मध्यमग्रैवेयकदेव संख्यातगुणे हैं, ७. नीचले ग्रैवेयकदेव संख्यातगुणे हैं, ८. अच्युतकल्प-देव संख्यातगुणे हैं, ९. आरणकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, १०. प्राणतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, ११. आनतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, १२. सबसे नीची सप्तम पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, १३. छठी तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक संख्यातगुणे हैं, १४. सहस्रारकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, १५. महाशुक्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, १६. पाँचवी धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, १७. लान्तक कल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, १८. चौथी पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, १९. ब्रह्मलोककल्प के देव असंख्यातगुणे, २०. तीसरी वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, २१. माहेन्द्रकल्प के देव संख्यातगुणे, २२. सनत्कुमारकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, २३. दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, २४. सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्यातगणे हैं, २५. ईशानकल्प के देव असंख्यातगणे हैं, २६. ईशानकल्प की देवियाँ संख्यातगणी हैं, २७. सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, २८. सौधर्मकल्प की देवियाँ संख्यातगुणी हैं, २९. भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, ३०. भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, ३१. प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं । उनसे
३२. खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक-पुरुष असंख्यातगुण हैं, ३३. खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ असंख्यातगुणी हैं, ३४. स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, ३५. स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, ३६. जलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, ३७. जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, ४०. ज्योतिष्क-देव संख्यातगुणे हैं, ४१. ज्योतिष्क-देवियाँ संख्यातगुणी हैं, ४२. खेचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक नपुंसक संख्यातगुणे हैं, ४३. स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक नपुंसक संख्यात गुणे हैं, ४४. जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक नपुंसक संख्यातगुणे अधिक हैं, ४५. चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, ४६. पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ४७. (उनकी अपेक्षा) द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ४८. त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ४९. पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५०. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ५१. त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ५२. द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ५३. प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति-कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५४. बादर निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५५. बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५६. बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५७. बादर-वायुकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५८. बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ५९. प्रत्येकशरीर-बादर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं,
दरनिगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, ६१. बादर पथ्वीकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, ६२. बादरअप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ६३. बादर-वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ६४. सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। उनसे
६५. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ६६. सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ६७. सूक्ष्म वायुकायिक, अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ६८. सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, ६९. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ७०. सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ७१. सूक्ष्म वायुकायिकपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ७२. सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ७३. सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र ७४. अभवसिद्धिक (अभव्य) अनन्तगुणे हैं, ७५. सम्यक्त्व से भ्रष्ट अनन्तगुणे हैं, ७६. सिद्ध अनन्तगुणे हैं, ७७. बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, ७८. बादरपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ७९. बादर वनस्पति-कायिकअपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ८०. बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ८१. बादर विशेषाधिक हैं, ८२. सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, ८३. सूक्ष्म-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ८४. सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, ८५. सूक्ष्म-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, ८६. सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, ८७. भवसिद्धिक विशेषाधिक हैं, ८८. निगोद के जीव विशेषाधिक हैं, ८९. वनस्पति जीव विशेषाधिक हैं, ९०. एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, ९१. तिर्यंचयोनिक विशेषाधिक हैं, ९२. मिथ्यादृष्टि-जीव विशेषाधिक हैं, ९३. अविरत जीव विशेषाधिक हैं, ९४. सकषायी जीव विशेषाधिक हैं, ९५. छद्मस्थ जीव विशेषाधिक हैं, ९६. सयोगी जीव विशेषाधिक हैं, ९७. संसारस्थ जीव विशेषाधिक हैं, ९८. उनसे सर्वजीव विशेषाधिक हैं।
पद-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-४-स्थिति सूत्र - २९८
भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की । भगवन् ! अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । भगवन् ! पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तैंतीस सागरोपम की।
रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम है । अपर्याप्तकरत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम है । शर्कराप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन सागरोपम है । भगवन् ! अपर्याप्त शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक-शर्कराप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तीन सागरोपम है।
वालुकाप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात सागरोपम है । अपर्याप्तक-वालुकाप्रभापृथ्वी नारकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त हैं । पर्याप्तक-वालुकाप्रभापृथ्वी नारकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम है । पंकप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य सात और उत्कृष्ट दस सागरोपम है । अपर्याप्तक-पंकप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक-पंकप्रभापृथ्वी नारकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दस सागरोपम है।
धूमप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य दस, उत्कृष्ट १७ सागरोपम है । धूमप्रभापृथ्वी अपर्याप्त नैरयिकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । धूमप्रभापृथ्वी पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस सागरोपम की, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम १७ सागरोपम की है । तमःप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य १७, उत्कृष्ट २२ सागरोपम है । तमःप्रभापृथ्वी अपर्याप्त नैरयिकों की स्थिति जघन्य है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तमःप्रभापृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त कम १७ सागरोपम और उत्कष्ट अन्तर्महर्त कम २२ सागरोपम की है।
अधः सप्तमपृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम है । अपर्याप्तकअधःसप्तम पृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । पर्याप्तक-अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त कम बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तैंतीस सागरोपम की है। सूत्र-२९९
भगवन् ! देवों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम । अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक-देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कम तैंतीस सागरोपम की है । देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है। अपर्याप्तक देवियों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । पर्याप्तक देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम है।
भवनवासी देवों की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष, उत्कृष्ट साधिक एक सागरोपम है । अपर्याप्तक भवनवासी देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । भगवन् ! पर्याप्तक भवनवासी देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम कुछ अधिक सागरोपम है । भगावनसी देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम है । अपर्याप्तक भवनवासी देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक भवनवासी देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम १०००० वर्ष, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े चार पल्योपम हैं । असुरकुमार देव-देवी के विषयमें सामान्य भवनवासी समान ही समझना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र नागकुमार देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपमों की है । अपर्याप्त नागकुमारों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त नागकुमारों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम देशोन दो पल्योपम है । नागकुमार देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की
और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम है । अपर्याप्त नागकुमार देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त नागकुमारदेवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम में अन्त-मुहूर्त कम है। -सूपर्णकुमार से स्तनितकुमार के देव-देवी के विषय में नागकुमार के समान ही समस्त प्रश्नोत्तर समझना । सूत्र - ३००
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । अपर्याप्त पृथ्वीकायिक की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त पृथ्वीकायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक और पर्याप्तक की स्थिति भी समझना । बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष है । बादर पृथ्वी-कायिक अपर्याप्तक की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष की है।
भगवन ! अप्कायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही गई है? गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष है । अपर्याप्त अप्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक अप्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त तथा उत्कष्ट अन्तर्महर्त कम सात हजार वर्ष है । सक्षम अप्कायिकों के औधिक, अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के समान जानना । बादर अप्कायिक जीवों की स्थिति सामान्य अप्कायिक समान ही जानना । केवल पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति में अन्तर्मुहूर्त कम समझना।
भगवन् ! तेजस्कायिक की स्थिति ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात्रि-दिन हैं । तेजस्कायिक अपर्याप्तकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त तेजस्कायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तीन रात्रि-दिन की है । सूक्ष्म तेजस्कायिकों के औधिक, अपर्याप्त और पर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त है । बादर तेजस्कायिक की स्थिति सामान्य तेजस्कायिक समान है । विशेष यह कि उत्कृष्ट पर्याप्तक में अन्तर्महर्त कम करना ।
वायुकायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष है । अपर्याप्तक वायुकायिक जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक वायुकायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन हजार वर्ष है । सूक्ष्म वायुकायिक की औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक तीनों स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । बादर वायुकायिक को सामान्य वायुकायिक के समान जानना । विशेष यह कि पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति में अन्तर्मुहर्त कम करना।
वनस्पतिकायिककी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट १०००० वर्ष है । अपर्याप्त वनस्पतिकायिक की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है । पर्याप्तक वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के औघिक, अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त है । बादर वनस्पतिकायिक को औधिक की तरह ही जानना । विशेष यह कि उन के पर्याप्तकमें अन्तर्मुहूर्त कम करना । सूत्र-३०१
भगवन् ! द्वीन्द्रिय की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष । अपर्याप्त द्वीन्द्रिय स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त द्वीन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अन्तर्मुहूर्त कम बारह वर्ष है । त्रीन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट उनचास रात्रि दिन है । अपर्याप्त त्रीन्द्रिय की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक त्रीन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम उनचार रात्रि-दिन है । चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छह मास है। अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त चतुरिन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम छह मास है। सूत्र-३०२
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है । इनके अपर्याप्त की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । इनके पर्याप्त की जघन्य अन्त-र्मुहर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम है । सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है । इनके अपर्याप्त की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इनके पर्याप्त की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि।
गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति औषिक पंचेन्द्रियतिर्यंच के समान जानना । जलचर पंचे-न्द्रय तिर्यंचयोनिक के समान जानना । सम्मूर्छिम तथा गर्भज ये दोनों जलचर पंचेन्द्रिय की औधिक अपर्याप्त और पर्याप्त की स्थिति सम्मूर्छिम पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिक जीवों के समान जानना ।
चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक की स्थिति संबंधि प्रश्न-इनकी औधिक-अपर्याप्तक-पर्याप्तक ये तीनों की स्थिति औधिक पंचेन्द्रिय तिर्यंच के समान जानना । सम्मर्छिम चतष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त एवं उत्कष्ट चौरासी हजार वर्ष है। इनके अपर्याप्त की जघन्य स्थिति और उत्कष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त है । इनके पर्याप्त की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष है। - गर्भज चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक की स्थिति औधिक तिर्यंच पंचेन्द्रिय के समान जानना।
भगवन ! उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है । इनके अपर्याप्त जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त है । इनके पर्याप्त जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि है । सामान्य सम्मूर्छिम उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष है । इनके अपर्याप्तक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्त-मुहूर्त है । इनके पर्याप्तक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तिरेपन हजार वर्ष की है।
गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के समान जानना । भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति भी सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय-तिर्यंच योनिक जीवों के समान जानना । सम्मूर्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष की है । इनके अपर्याप्तक जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । इनके पर्याप्तक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बयालीस हजार वर्ष की है। गर्भज भजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति सम्मर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के समान जानना।
भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त की है, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्येयभाग की है। इनके अपर्याप्त जीवों की स्थिति और उत्कृष्ट भी अन्त-र्मुहर्त्त की है । इनके पर्याप्त जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है।
भगवन् ! सम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है । इनके अपर्याप्त जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र अन्तर्मुहूर्त की है । इनके पर्याप्त जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बहत्तर हजार वर्ष की है । गर्भज-खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक के समान जानना । सूत्र-३०३
भगवन् ! मनुष्यों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । अपर्याप्तक मनुष्यों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । पर्याप्तक मनुष्यों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम है । सम्मूर्छिम मनुष्यों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है । गर्भज मनुष्यों की स्थिति औधिक मनुष्य समान जान लेना । सूत्र - ३०४
भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की है, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है । अपर्याप्त वाणव्यन्तर की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । पर्याप्तक वाण-व्यन्तर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की है । वाणव्यन्तर देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम है । अपर्याप्त वाणव्यन्तरदेवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्तक वाणव्यन्तरदेवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम अर्द्ध पल्योपम है । सूत्र-३०५
भगवन् ! ज्योतिष्क देवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग है और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम है । अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त ज्योतिष्कदेवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है । ज्योतिष्क देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है । अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त ज्योतिष्क देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के आठवें भाग की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम है।
चन्द्रविमान में देवों की स्थिति सामान्य ज्योतिष्क देवों के समान जान लेना । चन्द्रविमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम है । चन्द्रविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । चन्द्रविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है।
__ भगवन् ! सूर्यविमान में देवों की स्थिति कितने काल की है ? जघन्य पल्योपम के चौथाई भाग और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है । सूर्यविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्त-र्मुहूर्त की है । सूर्यविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थभाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है । सूर्यविमान में देवियों की स्थिति पल्योपम के चतुर्थ भाग और उत्कष्ट पाँच सौ वर्ष अधिक अदपल्योपम है । सर्यविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कष्ट अन्तर्मुहूर्त है । सूर्यविमान में पर्याप्तक देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त कम पल्योपम के चौथाई भाग की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पाँच सौ वर्ष अधिक अर्द्ध पल्योपम की है।
___ग्रहविमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के चौथाई भाग और उत्कृष्ट एक पल्योपम है । ग्रहविमान में अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । ग्रहविमान में पर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम है । ग्रहविमान देवियों की जघन्य स्थिति देवों के समान ही है । उत्कृष्ट स्थिति अर्धपल्योपम की है।
भगवन् ! नक्षत्रविमान में देवों की स्थिति ग्रहविमान की देवियों के समान है । नक्षत्रविमान में देवियों की
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थभाग है और उत्कृष्ट कुछ अधिक चौथाई पल्योपम की है । नक्षत्रविमान में अपर्याप्तक देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । नक्षत्रविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौथाई पल्योपम और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चौथाई भाग से कुछ अधिक है।
ताराविमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग और उत्कृष्ट चौथाई पल्योपम है । भगवन् ! ताराविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ताराविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति
औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम जानना । ताराविमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक की है । ताराविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है । ताराविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम है। सूत्र-३०६
भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल की है ? जघन्य एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम है । अपर्याप्तक वैमानिक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त वैमानिक देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तैंतीस सागरोपम है । वैमानिक देवियों की स्थिति जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है । वैमानिक अपर्याप्त देवियों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पर्याप्त वैमानिक देवियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम है।
भगवन ! सौधर्मकल्प में, देवों की स्थिति जघन्य एक पल्योपम और उत्कष्ट दो सागरोपम है । इनके अपर्याप्तों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है । सौधर्मकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति औघिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम समझना । सौधर्मकल्प में देवियों की स्थिति जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट पचास पल्योपम है । इनके अपर्याप्त की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । सौधर्मकल्प की पर्याप्तक देवियों की स्थिति औधिक
कम समझना । सौधर्मकल्प में परिगृहिता देवियों की स्थिति जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट सात पल्योपम है । इनके अपर्याप्तकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । इनके पर्याप्त की स्थिति औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम समझना । सौधर्मकल्प में अपरिगृहिता देवियों की स्थिति औधिक देवियों के समान जानना
भगवन् ! ईशानकल्प में देवों की स्थिति कितने काल की है ? सौधर्मकल्प के देवों से कुछ अधिक समझना। ईशानकल्प में देवियों की स्थिति सौधर्मकल्प देवियों के समान ही है, विशेष यह की जघन्य स्थिति में कुछ अधिक कहना । ईशानकल्प में परिगृहीता देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट भी नौ पल्योपम है | इनकी अपर्याप्त देवियों की स्थिति अन्तर्मुहर्त्त ही है । इनकी पर्याप्त देवियों की स्थिति इनकी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम है । ईशानकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति इनकी औधिक देवियों के समान ही है।
सनत्कुमारकल्प में देवों की स्थिति जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम है । इनके अपर्याप्त की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है । - इनके पर्याप्तों की स्थिति इनकी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम समझना । माहेन्द्रकल्प के देवों की स्थिति सनत्कुमारदेवों से कुछ अधिक समझना । ब्रह्मलोककल्प में देवों की स्थिति जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त्त है। इनके पर्याप्तकों की स्थिति इनकी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहर्त कम समझना।
लान्तककल्प में देवों की स्थिति जघन्य दस सागरोपम और उत्कृष्ट चौदह सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । इनकी पर्याप्तकों की स्थिति इनकी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहर्त कम समझना । महाशुक्रकल्प में देवों की स्थिति जघन्य चौदह सागरोपम तथा उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है । इनके पर्याप्तकों की स्थिति औधिक से अन्त-र्मुहूर्त कम है । सहस्रारकल्प में देवों की स्थिति जघन्य सत्तरह सागरोपम और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है । इनके पर्याप्तकों की स्थिति ओधिक से अन्तर्मुहूर्त कम है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र आनतकल्प के देवों की स्थिति जघन्य अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम है । भगवन् ! आनतकल्प में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? इनके अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है, इनके पर्याप्तकों की स्थिति औधिक से अन्तर्मुहूर्त कम है । प्राणतकल्प में देवों की स्थिति जघन्य उन्नीस सागरोपम है और उत्कृष्ट बीस सागरोपम है । भगवन् ! प्राणतकल्प में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितन काल तक की कही गई है ? इनके अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । इनके पर्याप्तकों की स्थिति औधिक से अन्तर्मुहुर्त कम है। आरणकल्प में देवों की स्थिति जघन्य बीस सागरोपम और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इनके पर्याप्तकों की स्थिति ओधिक से अन्तर्मुहूर्त कम है । अच्युतकल्प में देवों की स्थिति जघन्य इक्कीस सागरोपम और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम है । इनके अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कष्ट अन्तर्महर्त्त है । इनके पर्याप्तकों की स्थिति ओधिक से अन्तर्महर्त कम है
भगवन ! अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की है । अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य तेईस सागरोपम और उत्कृष्ट चौबीस सागरोपम है। अधस्तन-उपरितन ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य चौबीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम की है। इन तीनों अधस्तन ग्रैवेयकों के अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है तथा इनके पर्याप्तक देवों की स्थिति अपनी अपनी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहर्त कम समझ लेना।
मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य पच्चीस सागरोपम और उत्कृष्ट छब्बीस सागरोपम है । मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य छब्बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्ताईस सागरोपम की है । मध्यमउपरितन ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य सत्ताईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम की है । इन तीनों ग्रैवेयकों के अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहर्त की है और इनके पर्याप्तकों की स्थिति अपनी अपनी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम है।
उपरितन-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की? गौतम ! जघन्य अट्राईस तथा उत्कृष्ट उनतीस सागरोपम है । उपरितनमध्यम ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य उनतीस तथा उत्कृष्ट तीस सागरोपम है । भगवन् ! उपरितन-उपरितन ग्रैवेयकदेवों की स्थिति जघन्य तीस तथा उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम है । इन तीनों के अपर्याप्तक और पर्याप्तक देवों की स्थिति का कथन पूर्व ग्रैवेयकवत् जानना।
भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देवों की स्थिति कितने काल तक की है ? जघन्य इकतीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की है । सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों की स्थिति अजघन्य अनुत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम है । पाँच अनुत्तर विमान के अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है और पर्याप्तक देवों की स्थिति अपनी औधिक स्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम है।
पद-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-५-विशेष
सूत्र-३०७
भगवन् ! पर्याय कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं । जीवपर्याय और अजीवपर्याय । भगवन् ! जीव-पर्याय क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! (वे) अनन्त हैं । भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! असंख्यात नैरयिक हैं, असंख्यात असुर हैं, असंख्यात नागकुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनित-कुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक हैं, यावत् असंख्यात वायुकायिक हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय यावत् असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिकदेव हैं और अनन्तसिद्ध हैं । हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वे (जीवपर्याय) अनन्त हैं सूत्र-३०८
भगवन् ! नैरयिकों के कितने पर्याय हैं? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! आप किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? गौतम! एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य से तुल्य है । प्रदेशों से तुल्य है; अवगाहना से-कथंचित् हीन, कथंचित् तुल्य और कथंचित् अधिक है । यदि हीन है तो असंख्यातभाग अथवा संख्यातभाग हीन है; या संख्यातगुणा अथवा असंख्यातगुणा हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक है; अथवा संख्यातगुणा या असंख्यात -गुणा अधिक है । स्थिति से-कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन यावत् असंख्यातगुण हीन है। अगर अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक यावत् असंख्यातगुण अधिक है।
कृष्णवर्ण-पर्यायों से-कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है, तो अनन्तभाग हीन, असंख्यातभाग हीन या संख्यातभाग हीन होता है; अथवा संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन या अनन्तगुण हीन होता है । यदि अधिक है तो अनन्तभाग अधिक, यावत् अनन्तगुण अधिक होता है । नीलवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण, हारिद्रवर्ण और शुक्लवर्णपर्यायों से-षट्स्थानपतित होता है । सुगन्ध और दुर्गन्धपर्यायों से-षट्स्थान-पतित है । तिक्तरस यावत् मधुररसपर्यायों से-षट्स्थानपतित है । कर्कश यावत् रूक्ष-स्पर्शपर्यायों से-षट्स्थान-पतित होता है । (इसी प्रकार) आभिनिबोधिक यावत् अवधिज्ञानपर्यायों, मतिअज्ञान यावत् विभंगज्ञानपर्यायों, चक्षुदर्शन यावत् अवधिज्ञानपर्यायों से-षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि नारकोंके पर्याय अनन्त हैं सूत्र-३०९
भगवन् ! असुरकुमारों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से तुल्य है; अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, स्पर्श, ज्ञान, अज्ञान, दर्शन आदि पर्यायों से (पूर्वसूत्रवत्) षट्स्थानपतित है । हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि असुरकुमारों के पर्याय अनन्त कहे हैं । इसी प्रकार जैसे नैरयिकों और असुरकुमारों के समान यावत् स्तनितकुमारों के (अनन्तपर्याय कहने चाहिए)। सूत्र-३१०
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है ? गौतम! एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है यावत् असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है यावत् असंख्यातगुण अधिक है । स्थिति से कदाचित् हीन है कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है, या संख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातगुण हीन है । यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है, या संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है । वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों (के पर्यायों) से, मति-अज्ञान-पर्यायों, श्रुत-अज्ञान-पर्यायों एवं अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
भगवन् ! अप्कायिक जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है?
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र गौतम ! एक अप्कायिक दूसरे अप्कायिक से द्रव्य से तुल्य है; प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से त्रिस्थान-पतित है । वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । भगवन् ! तेजस्कायिक जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त, क्योंकि-एक तेजस्कायिक, दूसरे तेजस्कायिक से द्रव्य से तुल्य है, इत्यादि पूर्ववत् । भगवन् ! वायुकायिक जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त, क्योंकि-गौतम ! एक वायुकायिक, दूसरे वायुकायिक से द्रव्य से तुल्य है, इत्यादि पूर्ववत् । भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त, क्योंकि-गौतम ! एक वनस्पति-कायिक दूसरे वनस्पतिकायिक से द्रव्य से तुल्य है, इत्यादि पूर्ववत् । सूत्र - ३११
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है? गौतम ! एक द्वीन्द्रिय जीव दूसरे द्वीन्द्रिय से द्रव्य से और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो, असंख्यातभाग हीन होता है, यावत् असंख्यातगुण हीन होता है । अगर अधिक होता है तो असंख्यातभाग अधिक, यावत् असंख्यातगुणा अधिक होता है । स्थिति से त्रिस्थान-पतीत होता है, तथा वर्णादि से (पूर्ववत् । षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों में समझना । इसी तरह चतुरिन्द्रिय जीवों की अनन्तता होती है । विशेष यह है कि उनमें चक्षुदर्शन भी होता है। सूत्र-३१२
पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नैरयिकों समान कहना । सूत्र-३१३
____ भगवन् ! मनुष्यों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-गौतम ! द्रव्य से एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य से तुल्य है, प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति से भी चतुःस्थानपतित है, तथा वर्णादि एवं चार ज्ञान के पर्यायों से षट्स्थानपतित है, तथा केवलज्ञान पर्यायों से तुल्य है, तीन अज्ञान तथा तीन दर्शन से षट्स्थानपतित है, और केवलदर्शन के पर्यायों से तुल्य है। सूत्र-३१४
वाणव्यन्तर देव अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित हैं तथा वर्ण आदि से षट्स्थानपतित हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक देव ऐसे ही हैं। विशेषता यह कि स्थिति से त्रिस्थानपतित हैं।
सूत्र-३१५
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-गौतम ! जघन्य अवगाहना वाला नैरयिक, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य, प्रदेशों और अवगाहना से तुल्य है; (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थान पतित है, और वर्णादि, तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों से षट्स्थान पतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक, दूसरे उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक से द्रव्य, प्रदेशों और अवगाहना से तुल्य है; किन्तु स्थिति से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है या संख्यातभाग हीन है । यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातभाग अधिक है । वर्ण, इत्यादि से पूर्ववत् षट्स्थानपतित है। अजघन्यअनुत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-गौतम ! मध्यम अवगाहना वाला एक नारक, अन्य मध्यम अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो, असंख्यातभाग हीन है यावत् असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यात भाग अधिक है यावत् असंख्यातगुण अधिक है। वर्ण आदि से (पूर्ववत्) षट्स्थान पतित है। इसीलिए कहा है कि नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं।
भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले नारकों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-गौतम ! एक जघन्य
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है, (पूर्ववत्) वर्ण आदि से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले नारक में भी कहना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाले नारक में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह है कि स्वस्थान में चतुःस्थान-पतित है।
__भगवन् ! जघन्यगुण काले नैरयिकों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-गौतम ! एक जघन्य गुण काला नैरयिक, दूसरे जघन्यगुण काले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, इत्यादि पूर्ववत् यावत् काले वर्ण से तुल्य है शेष वर्णादि से षटस्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कष्टगण काले समझ लेना । इसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट गुण काले में जान लेना । विशेष इतना की काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है । यों काले वर्ण के पर्यायों की तरह शेष चारों वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श की अपेक्षा से भी (समझ लेना)।
जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी नैरयिक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना और स्थिति से चतुः स्थानपतित है, वर्ण आदि से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी में समझना । अजघन्य अनुत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी में भी इसी प्रकार है । विशेष यह कि वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से भी स्वस्थान में षट्स्थानपतित है । श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी में भी ऐसा ही जानना । विशेष यह है कि जिसके ज्ञान होता है, उसके अज्ञान नहीं होता। तीनों ज्ञानी नैरयिकों के समान तीनों अज्ञानी में भी कहना । विशेष यह कि जिसके अज्ञान होते हैं, उसके ज्ञान नहीं होते।
जघन्य चतुदर्शनी नैरयिकों के अनन्तपर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, यावत् तीन अज्ञान से, षट्स्थानपतित है । चक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टचक्षुदर्शनी में भी समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट चक्षुदर्शनी नैरयिकों में भी यहीं जानना । विशेष इतना कि स्वस्थान में भी वह षट्स्थानपतित होता है । चक्षुदर्शनी नैरयिकों के समान अचक्षुदर्शनी एवं अवधिदर्शनी में भी समझना। सूत्र-३१६
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से द्रव्य, प्रदेशों तथा अवगाहना से तुल्य हैं; स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, वर्ण आदि, तीन ज्ञान, तीन अज्ञानों तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहनावाले असुरकुमारों में जानना, तथा इसी प्रकार मध्यम अवगाहनावाले असुर-कुमारों में जानना । विशेष यह कि वह स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है । इसी तरह से स्तनितकुमारों तक जानना। सूत्र-३१७
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक द्रव्य, प्रदेशों तथा अवगाहना से तुल्य हैं, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हैं, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से, दो अज्ञानों से एवं अचक्षुदर्शन से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों में भी जानना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट अवगाहना वाले में भी ऐसा ही समझना । विशेष यह कि वह अवगाहना से भी चतुःस्थानपतित हैं । जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक के अनन्तपर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित हैं, स्थिति से तुल्य हैं, तथा (पूर्ववत्) वर्णादि से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले में भी जानना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिवाले में इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में त्रिस्थानपतित हैं।
जघन्यगुणकाले पृथ्वीकायिक के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्गगुणकाले पृथ्वीकायिक से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं; अवगाहना से चतुःस्थान पतित है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है; काले वर्ण से तुल्य है; तथा अवशिष्ट वर्ण
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पद/उद्देश /सूत्र आदि एवं दो अज्ञानों और अचक्षुदर्शन के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले में भी कहना । मध्यमगुण काले में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार पाँच वर्णों, दो गन्धों, पाँच रसों और आठ स्पर्शों में कहना ।
भगवन् ! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त, क्योंकि-जघन्य मतिअज्ञानी पृथ्वीकायिक द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है; तथा वर्ण आदि से षट्स्थानपतित है; मति-अज्ञान से तुल्य है; श्रुत-अज्ञान तथा अचक्षु-दर्शन से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट-मति-अज्ञानी में जानना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट-मति-अज्ञानी में भी इसी प्रकार कहना. विशेष यह कि यह स्वस्थान में भी षट्स्थानपतित है । मति-अज्ञानी के समान श्रत-अज्ञानी तथा अचक्षदर्शनी को भी कहना । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना । सूत्र-३१८
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीव, द्रव्य, प्रदेश तथा अवगाहना से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित है, वर्ण आदि दो ज्ञानों, दो अज्ञानों तथा अचक्षु-दर्शन के से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले को भी जानना । किन्तु उत्कृष्ट अवगाहना वाले में ज्ञान नहीं होता, इतना अन्तर है । यही अजघन्य-अनुत्कृष्ट अवगाहना वाले में भी कहना । विशेषता यह कि वे स्वस्थान में अवगाहना से चतुःस्थानपतित है । जघन्य स्थितिवाले द्वीन्द्रिय के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थान-पतित हैं, स्थिति से तल्य हैं; तथा वर्ण आदि से, दो अज्ञानों एवं अचक्षदर्शन से षटस्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियजीवों को भी कहना । विशेष यह है कि इनमें दो ज्ञान अधिक कहना । उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रिय के समान मध्यम स्थिति वाले द्वीन्द्रियों में भी कहना । अन्तर इतना ही है कि स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है । जघन्यगुण कृष्णवर्ण वाले द्वीन्द्रिय के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले द्वीन्द्रिय जीव द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, कृष्णवर्णपर्याय से तुल्य है; शेष वर्णादि, दो ज्ञान, दो अज्ञान एवं अचक्षुदर्शन पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले द्वीन्द्रियों में कहना । अजघन्यअनुत्कृष्ट गुण काले द्वीन्द्रिय जीवों को इसी प्रकार (कहना) विशेष यह कि स्वस्थान में षटस्थानपतित होता है । इसी तरह शेष वर्ण आदि के विषय में भी जानना।
जघन्य-आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रियके अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित हैं, वर्ण आदि गंध से षट्स्थानपतित है । आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य हैं; श्रुतज्ञान तथा अचक्षुदर्शन से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों में कहना । मध्यम-आभिनिबोधिक ज्ञानी को भी ऐसा ही कहना किन्तु वह स्वस्थान में षट् स्थानपतित है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मति-अज्ञानी और अचक्षुर्दर्शनी द्वीन्द्रिय जीवों में कहना । विशेषता यह है कि ज्ञान और अज्ञान साथ नहीं होते । जहाँ दर्शन होता है, वहाँ ज्ञान भी हो सकते हैं और अज्ञान भी ।
द्वीन्द्रिय के समान त्रीन्द्रिय के पर्याय-विषय में भी कहना । चतुरिन्द्रिय जीवों में भी यही कहना । अन्तर केवल इतना कि इनके चक्षुदर्शन अधिक हैं।
सूत्र-३१९
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंच द्रव्य, प्रदेशों, और अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, दो ज्ञानों, अज्ञानों और दो दर्शनों से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों को भी ऐसे ही कहना, विशेषता इतनी कि तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थान पतित हैं । इसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचो को कहना । विशेष यह कि ये अवगाहना तथा स्थिति
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पद/उद्देश /सूत्र से चतुःस्थानपतित हैं।
जघन्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यस्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य हैं, तथा वर्ण आदि दो अज्ञान एवं दर्शनों से षट्स्थानपतित हैं । उत्कृष्टस्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों का कथन भी ऐसे ही करना । विशेष यह है कि इनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शनों को जानना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाले को भी ऐसा ही जानना । विशेष यह कि स्थिति से (यह) चतुःस्थानपतित हैं, तथा इनमें तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शनों की भी प्ररूपणा करना।
जघन्यगणकष्ण पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-जघन्यगण काले पंचेन्द्रियतिर्यंच द्रव्य और प्रदेशों से तल्य हैं. अवगाहना और वर्णादि स्थिति से चतःस्थानपतित है, कष्णवर्ण के पर्यायों की शेष वर्ण तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों से षटस्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले में भी समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्टगुण काले में भी इसी प्रकार कहना विशेष यह है कि वे स्वस्थान में भी षट्स्थान-पतित हैं । इस प्रकार शेष वर्णादि (युक्त तिर्यंच में कहना) ।
जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं । क्योंकि-जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंच द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, तथा वर्णादि से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों से तुल्य है, श्रुतज्ञान तथा चक्षुदर्शन और अचक्षु-दर्शन से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों को भी कहना । विशेष यह कि स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तीन ज्ञान, तीन दर्शन तथा स्वस्थान में तुल्य हैं, शेष सब में षट्स्थानपतित है । मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रियों को ऐसे ही समझना । विशेष यह कि स्थिति से चतुःस्थानपतित है; तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रिय में भी कहना ।
__ जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित हैं; स्थिति से त्रिस्थानपतित है तथा वर्णादि
और आभिनिबोधिक तथा श्रुतज्ञान से षट्स्थानपतित है । अवधिज्ञान से तुल्य है । (इसमें) अज्ञान नहीं कहना । चक्षुदर्शनपर्यायों और अचक्षुदर्शन से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंच-योनिक को पर्याय भी कहना । मध्यम अवधिज्ञानी को भी ऐसे ही जानना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थान-पतित है । आभिनिबोधिकज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रिय के समान मति और श्रुत-अज्ञानी जानना, अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यंच के समान विभंगज्ञानी को जानना । चक्षदर्शनी और अचक्षदर्शनी भी आभिनिबोधिकज्ञानी की तरह हैं । अवधिदर्शनी अवधिज्ञानी की तरह हैं । (विशेष यह कि) ज्ञान और अज्ञान साथ नहीं होते। सूत्र-३२०
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य द्रव्य, प्रदेशों तथा अवगाहना से तुल्य हैं, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण आदि से, एवं तीन ज्ञान, दो अज्ञान और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह की स्थिति से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो असंख्यातभागहीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यातभाग अधिक होता है। उनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन होते हैं । अजघन्यअनुत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, तथा आदि के चार ज्ञानों से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान से तुल्य है, तथा तीन अज्ञान और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है, केवलदर्शन से तुल्य है।
जघन्य स्थिति वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले मनुष्य द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है, तथा वर्णादि, दो अज्ञानों और दो दर्शनों से षट्स्थान-पतित है। उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यों में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन हैं ।
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जघन्यजपा
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पद/उद्देश /सूत्र मध्यमस्थिति वाले मनुष्यों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति अवगाहना, तथा आदि के चार ज्ञानों एवं तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन से तुल्य है।
जघन्यगुण काले मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले मनुष्य द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य हैं; तथा अवशिष्ट वर्णादि, चार ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है और केवलज्ञान-केवलदर्शन से तुल्य है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले मनुष्यों में भी समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट गुण काले मनुष्यों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं । इसी प्रकार शेष वर्णादि वाले मनुष्यों को कहना।
जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनष्यों के अनन्तपर्याय हैं। क्योंकि-जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनष्य द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्णादि से षटस्थानपतित है, तथा आभिनिबोधिकज्ञान से तुल्य है, किन्तु श्रुतज्ञान और दो दर्शनों से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनि-बोधिकज्ञानी में जानना । विशेष यह कि वह आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों से तुल्य है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तथा तीन ज्ञानों
और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है। अजघन्य-अनुत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों में ऐसे ही कहना । विशेष यह कि स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, तथा स्वस्थानमें षट्स्थानपतित हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानीमें भी जानना ।
जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्य द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्णादि एवं दो ज्ञानों से षट्स्थानपतित है, तथा अवधिज्ञान से तुल्य है, मनःपर्यवज्ञान और तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञानी में भी कहना । इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों में भी कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में वह षट्स्थानपतित है।
अवधिज्ञानी के समान मनःपर्यायज्ञानी में कहना । विशेष यह कि अवगाहना की अपेक्षा से (वह) त्रिस्थानपतित है । आभिनिबोधिकज्ञानीयों के समान मति और श्रुत-अज्ञानी में कहना । अवधिज्ञानी के समान विभंगज्ञानी (मनुष्यों) को भी कहना । चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी मनुष्यों आभिनिबोधिकज्ञानी के समान हैं । अवधिदर्शनी को अवधिज्ञानी मनुष्यों के समान समझना ।
__ केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि केवलज्ञानी मनुष्य द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण आदि से षट्स्थानपतित है, एवं केवलज्ञान और केवलदर्शन से तुल्य है। केवलज्ञानी के समान केवलदर्शनी में भी कहना । सूत्र-३२१
वाणव्यन्तर देवों में असुरकुमारों के समान जानना । ज्योतिष्कों और वैमानिक देवों में भी इसी प्रकार जानना। विशेष यह कि वे स्वस्थान में स्थिति से त्रिस्थानपतित हैं। सूत्र-३२२
भगवन् ! अजीवपर्याय कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, रूपी अजीवपर्याय और अरूपी अजीवपर्याय | भगवन् ! अरूपी-अजीव के पर्याय कितने प्रकार के हैं? गौतम! दस । (१) धर्मास्तिकाय, (२) धर्मास्तिकाय का देश, (३) धर्मास्तिकाय के प्रदेश, (४) अधर्मास्तिकाय, (५) अधर्मास्तिकाय का देश, (६) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, (७) आकाशास्तिकाय, (८) आकाशास्तिकाय का देश, (९) आकाशास्तिकाय के प्रदेश (१०) अद्धासमय के पर्याय । सूत्र-३२३
भगवन ! रूपी अजीव पर्याय कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध-प्रदेश और परमाणुपुद्गल (के पर्याय) । भगवन् ! क्या वे संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! वे अनन्त हैं। भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! परमाणु-पुदगल अनन्त हैं; द्विप्रदेशिक यावत् दशप्रदेशिक-स्कन्ध अनन्त हैं, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं । हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा है कि वे अनन्त हैं।
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पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-३२४
भगवन् ! परमाणुपुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? गौतम ! अनन्त । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम ! एक परमाणुपुद्गल, दूसरे परमाणुपुद्गल से द्रव्य, प्रदेशों और अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अत्यधिक है । यदि हीन है, तो असंख्यातभाग हीन है, संख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातगुण हीन है, अथवा असंख्यातगुण हीन है; यदि अधिक है, तो यावत् असंख्यातगुण अधिक है । कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो अनन्तभाग, असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण या अनन्तगुण-हीन है । यदि अधिक है तो यावत् अनन्तगुण अधिक है । इसी प्रकार अवशिष्ट वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । स्पर्शों में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा गया है कि परमाणु-पुदगलों के अनन्त पर्याय प्ररूपित हैं।
द्विप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध, द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है । यदि हीन हो तो एक प्रदेश हीन होता है । यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक होता है । स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्ण आदि से और उपर्युक्त चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्धों में कहना । विशेषता यह कि अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो एक या द्विप्रदेशों से हीन है । यदि अधिक हो तो एक अथवा दो प्रदेश अधिक होता है । इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्धों तक कहना । विशेष यह कि अवगाहना से प्रदेशों की वृद्धि करना; यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध नौ प्रदेश-हीन तक होता है।
संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है । यदि हीन हो तो संख्यात भाग हीन या संख्यातगुण हीन होता है । यदि अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है । अवगाहना से द्विस्थानपतित होता है । स्थिति से चतुःस्थानपतित होता है । वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों के पर्यायों से षटस्थानपतित होता है। असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे हैं । क्योंकि-असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । अनन्त प्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित है।
एक प्रदेश के अवगाढ़ पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-प्रदेश में अवगाढ़ पुद्गल द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों से षट् स्थानपतित है । इसी प्रकार दसप्रदेशावगाढ़ स्कन्धों तक के पर्यायों को जानना । संख्यातप्रदेशावगाढ़ स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से द्विस्थानपतित है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों से षट्स्थानपतित है।
एक समय स्थितिवाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-एक समय स्थितिवाले पुद्गल, द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित हे, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है, वर्णादि से षट्स्थानपतित है । इस प्रकार यावत् दस समय की स्थितिवाले पुद्गलों को समझना । संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि वह स्थिति से द्विस्थानपतित है। असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों भी इसी प्रकार है। विशेषता यह कि वह स्थिति से चतुःस्थानपतित है।
एकगुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-एकगुण काले पुद्गल द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से षट्
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र स्थानपतित हैं, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य हैं तथा अवशिष्ट वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार यावत् दशगु काले में समझना । संख्यातगुणकाले का (कथन) भी इसी प्रकार जानना । विशेषता यह कि स्वस्थान में द्विस्थानपतित हैं । इसी प्रकार असंख्यातगुण काले को समझना । विशेष यह कि स्वस्थान में चतुःस्थानपतित हैं । इसी तरह अनन्तगुण काले को जानना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं । इसी प्रकार शेष सब वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों को समझना।
जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य, प्रदेशों और अवगाहना से तुल्य हैं, स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं, कृष्णवर्ण के पर्यायों से षट्-स्थानपतित हैं, शेष वर्ण, गन्ध और रस तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित हैं । उत्कृष्ट अवगाहना वाले में भी इसी प्रकार कहना । अजघन्य-अनत्कष्ट अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध नहीं होते।
जघन्य अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुदगलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-द्विप्रदेशी पुदगलों के समान जघन्य अवगाहनावाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के विषय में कहना । इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहनावाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों में कहना। इसी तरह मध्यम अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों में कहना।
जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी पुद्गल-पर्याय को जघन्य और उत्कृष्ट द्विप्रदेशी पुद्गलों के पर्याय की तरह समझना । इसी प्रकार मध्यम अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी स्कन्ध का कथन करना । विशेष यह कि अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य, कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन होता है, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक होता है। इसी प्रकार दशप्रदेशी स्कन्ध तक का कथन करना । विशेष यह कि मध्यम अवगाहना वाले में एक-एक प्रदेश की परिवृद्धि करना । इस प्रकार यावत् दशप्रदेशी तक सात प्रदेश बढ़ते हैं।
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से द्विस्थानपतित है, अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है और वर्णादि चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले में भी कहना। अजघन्य-अनुत्कृष्ट अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों को भी ऐसा ही समझना । विशेष यह कि वह स्वस्थान में द्विस्थानपतित हैं।
जघन्य अवगाहना वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से चतुःस्थानपतित है और वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले में भी इसी प्रकार समझना । मध्यम अवगाहना वाले को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह की स्वस्थान में चतुःस्थानपतित है।
भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से षट्स्थानपतित हैं, अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से चतुःस्थान पतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार समझना, विशेष यह कि स्थिति से भी तुल्य है । मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों से षट्स्थानपतित है।
जघन्य स्थिति वाले परमाणुपुद्गल के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थितिवाले परमाणुपुद्गल द्रव्य, प्रदेशों, अवगाहना तथा स्थिति से तुल्य हैं एवं वर्णादि तथा दो स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले में समझना । मध्यम स्थिति वाले में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति से चतुःस्थानपतित है।
जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन और यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक है । स्थिति से तुल्य है और वर्णादि तथा चार स्पर्शों से षट् स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों में कहना । मध्यम स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों को मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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जपा
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पद/उद्देश /सूत्र भी इसी प्रकार कहना । विशेषता यह कि स्थिति से वह चतुःस्थानपतित हैं । इसी प्रकार दशप्रदेशी स्कन्ध तक में समझ लेना । विशेष यह कि इसमें एक-एक प्रदेश की क्रमशः वृद्धि करना । अवगाहना के तीनों गमों में यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक ऐसे ही कहना । (क्रमशः) नौ प्रदेशों की वृद्धि हो जाती है।
___ जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेश और अवगाहना से द्विस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है, वर्णादि तथा चतुःस्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों में कहना । मध्यम स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि स्थिति से चतुःस्थानपतित है।
भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तल्य है, प्रदेशों और अवगाहना से चतःस्थानपतित है, स्थिति से तल्य है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों से षटस्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कष्ट स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों में कहना । मध्यम स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों में इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थान-पतित है।
जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है और वर्णादि से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति से चतुःस्थानपतित है।
जघन्यगुण काले परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले परमाणुपुद्गल द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य है, शेष वर्ण नहीं होते तथा गन्ध, रस और दो स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले को समझना । इसी प्रकार मध्यमगुण काले को भी कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है।
जघन्यगुण काले द्विप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है । यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक है स्थिति से चतुःस्थानपतित होता है, कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य और शेष वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले को समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्टगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित कहना । इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों में समझना । विशेषता यह है कि प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए । अवगाहना से उसी प्रकार है।
भगवन् ! जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों और अवगाहना से द्विस्थानपतित है तथा स्थिति से चतुःस्थानपतित है, कृष्ण वर्ण के पर्यायों से तुल्य है और अवशिष्ट वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों में कहना । अजघन्य-अनुत्कृष्टगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों में भी इसी प्रकार कहना । विशेषता यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं।
भगवन् ! जघन्यगुण काले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले असंख्यातप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों, स्थिति और अवगाहना से चतुःस्थानपतित है तथा कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य है और शेष वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले को कहना । इसी प्रकार मध्यमगुण काले में भी कहना । विशेष इतना कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं।
जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के प तुल्य है तथा अवशिष्ट वर्ण आदि से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले में जानना । इसी प्रकार मध्यगुण
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पद/उद्देश /सूत्र काले कहना । इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध और रस भी कहना । विशेष यह कि सुगन्ध और दुर्गन्धवाले परमाणुपुद्गल साथ-साथ नहीं होते । तिक्त रस वाले में शेष रस का कथन नहीं करना, कटु आदि रसों में भी ऐसा ही समझना ।
__ भगवन् ! जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है एवं वर्ण, गन्ध तथा रस से षट्स्थानपतित है, कर्कशस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है और अवशिष्ट सात स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुणकर्कश में समझना । मध्यमगुणकर्कश को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट् स्थानपतित है । मृदु, गुरु और लघु स्पर्श में भी इसी प्रकार जानना।
जघन्यगुण शीत परमाणुपुद्गलों के कितने अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गल द्रव्य, प्रदेशों और अवगाहना से तुल्य हैं, स्थिति से चतुःस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध और रसों से षट्स्थानपतित हैं, शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है । इसमें उष्णस्पर्श का कथन नहीं करना । स्निग्ध और रूक्षस्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत के पर्यायों में कहना । मध्यमगुणशीत में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं।
जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणशील द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य हैं, अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन होता है, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक होता है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है तथा वर्ण, गंध और रस के पर्यायों से षट्स्थानपतित है एवं शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध तथा रूक्ष स्पर्श से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत को जानना । मध्यमगुणशीत को भी इसी प्रकार समझना । इसी प्रकार दशप्रदेशी स्कन्धों तक को कहना । विशेष यह कि अवगाहना से पर्याय की वृद्धि करनी चाहिए । यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक नौ प्रदेश बढ़ते हैं।
जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणशील संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों और अवगाहना से द्विस्थानपतित है; स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि से षट्स्थान-पतित है तथा शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष स्पर्श से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण शीत को भी समझना । अजघन्य-अनुत्कृष्टगुण शीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों को भी ऐसा ही समझना । विशेष यह कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं।
जघन्यगुण शीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि के पर्यायों से षट्स्थानपतित है, शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों को भी कहना । मध्यमगुणशील असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित होता है।
__ जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेश स्कन्ध द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि से षट्स्थान-पतित है; शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है और शेष सात स्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट गुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में कहना । मध्यमगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है । शीतस्पर्श-स्कन्धों के पर्यायों के समान उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों में कहना । इसी प्रकार परमाणुपुद्गल में इन सभी का प्रतिपक्ष नहीं कहा जाता, यह कहना चाहिए। सूत्र- ३२५
भगवन् ! जघन्यप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय हैं ? गौतम ! अनन्त | भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! एक जघन्यप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्यप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है । यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन और यदि अधिक हो तो भी एक प्रदेश अधिक होता है । स्थिति से चतुःस्थानपतित है और वर्ण, गन्ध, रस तथा ऊपर के चार स्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्ध द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति से भी चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा अष्टस्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थान-पतित है । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-मध्यमप्रदेशी स्कन्ध द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों के पर्यायों से षट्स्थान-पतित है।
जघन्य अवगाहना वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य अवगाहना वाले पुद्गल द्रव्य से तुल्य हैं. प्रदेशों से षटस्थानपतित है, अवगाहना से तुल्य है, स्थिति से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्णादि और ऊपर के स्पशों से षटस्थानपतित है । उत्कष्ट अवगाहना वाले पदगल-पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति से तल्य है। मध्यम अवगाहना वाले पदगलों के अनन्त पर्याय हैं। क्योंकि-मध्यम अवगाहना वाले पदगल द्रव्य से तुल्य हैं, प्रदेशों से षट्स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है और वर्णादि से षट्स्थानपतित है
जघन्य स्थिति वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं । क्योंकि-जघन्य स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य से तुल्य है; प्रदेशों से षट्स्थानपतित है; अवगाहना से चतुःस्थानपतित है, स्थिति से तुल्य है और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले में भी कहना । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाले पुद्गलों को भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्थिति से भी यह चतुःस्थानपतित है।
जघन्यगुण काले पुद्गलों के अनन्तपर्याय हैं । क्योंकि-जघन्यगुण काले पुद्गल द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से षट् स्थानपतित है, अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य है, शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शों से षट्स्थानपतित है । हे गौतम ! इसी कारण जघन्यगुण वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं । इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले पुद्गलों को समझना । मध्यमगुण काले पुद्गलों के पर्यायों में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है । कृष्णवर्ण के पर्यायों के समान शेष वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों को, यावत् अजघन्यअनुत्कृष्ट गुण रूक्षस्पर्श स्वस्थान में षट्स्थानपतित है, तक कहना ।
पद-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-६ व्युत्क्रान्ति सूत्र-३२६
द्वादश, चतुर्विशति, सान्तर, एकसमय, कहाँ से ? उद्वर्त्तना, परभव-सम्बन्धी आयुष्य और आकर्ष, ये आठ द्वार (इस व्युत्क्रान्तिपद में) हैं । सूत्र - ३२७
भगवन् ! नरकगति कितने काल तक उपपात से विरहित है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक । भगवन् ! तिर्यञ्चगति कितने काल तक उपपात से विरहित है ? गौतम ! नरकगति समान जानना । भगवन् ! मनुष्यगति कितने काल तक उपपात से विरहित है ? गौतम ! नरकगति समान जानना । भगवन् ! देवर कितने काल तक उपपात से विरहित है ? गौतम ! नरकगति समान जानना । भगवन् सिद्धगति कितने काल तक सिद्धि से रहित है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह महीनों तक ।
भगवन् ! नरकगति कितने काल तक उद्वर्त्तना से विरहित है ? गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक । इसी तरह तिर्यंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति का उद्वर्त्तना विरह भी नरकगति समान जानना । सूत्र-३२८
भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिक कितने काल तक उपपात से विरहित हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय का, उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक । शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य एक समय और उत्कृष्टतः सात रात्रि-दिन तक उपपात से विरहित रहते हैं । वालुकापृथ्वी के नारक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अर्द्धमास तक उपपात से विरहित रहते हैं । पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक मास तक उपपातविरहित रहते हैं । धूमप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो मास तक उपपात से विरहित होते हैं । तमःप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार मास उपपातविरहित रहते हैं । तमस्तमापृथ्वी के नैरयिक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास उपपात से विरहित रहते हैं।
भगवन् ! असुरकुमार कितने काल तक उपपात से विरहित रहते हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक । इसी तरह स्तनितकुमार तक जान लेना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल तक उपपात से विरहित हैं ? गौतम ! प्रतिसमय उपपात से अविरहित हैं । इसी तरह वनस्पतिकायिक तक जानना । द्वीन्द्रिय जीवों का उपपातविरह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त रहता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय में समझना । सम्मूर्छिम पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक का उपपातविरह जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त है । गर्भजपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात से विरहित रहते हैं । सम्मूर्छिम मनुष्य जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त उपपात से विरहित कहे हैं । गर्भज मनुष्य जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात से विरहित कहे हैं।
भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक । ज्योतिष्क देव जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त उपपात विरहित कहे हैं।
भगवन् ! सौधर्मकल्प में देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त । ईशानकल्प में यही काल जानना । सनत्कुमार देवों का उपपातविरहकाल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट नौ रात्रि दिन और बीस मुहुर्त है। माहेन्द्र देवों का उपपातविरहकाल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट बारह रात्रि-दिन और दस मुहूर्त है । ब्रह्मलोक देव जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट साढ़े बाईस रात्रि-दिन उपपातविरहकाल रहते हैं । लान्तक देवों का उपपातविरह जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट पैंतालीस रात्रि-दिन है । महाशुक्र देवों का उपपातविरह जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट अस्सी रात्रि-दिन है । सहस्रार देवों का उपपात-विरहकाल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट सौ रात्रि-दिन है । आनतदेव का उपपातविरह काल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यात मास है। प्राणतदेव जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यात मास उपपात विरहित हैं । आरण देवों का उपपातविरह काल जघन्य
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यातवर्ष है । अच्युतदेव का उपपातविरह काल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट संख्यात वर्ष है ।
भगवन् ! अधस्तन ग्रैवेयक देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यात सौ वर्ष तक । मध्यम ग्रैवेयकदेव जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष उपपात-विरहित कहे हैं । ऊपरी ग्रैवेयक देवों का उपपातविरह जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट संख्यात लाख वर्ष है । विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों का उपपातविरह जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट असंख्यातकाल है। सर्वार्थसिद्ध देवों का उपपातविरह जघन्य एक समय उत्कृष्ट पल्योपम का संख्यातवा भाग है।
भगवन् ! सिद्ध जीवों का उपपात-विरह कितने काल है ? जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह मास । सूत्र - ३२९
भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक कितने काल तक उद्वर्त्तना विरहित कहे हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त्त । उपपात-विरह समान सिद्धों को छोड़कर अनुत्तरौपपातिक देवों तक कहना । विशेष यह कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के निरूपण में च्यवन' शब्द कहना । सूत्र-३३०
भगवन् ! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? गौतम ! दोनों । इसी तरह तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव, , असुरकुमारादिभवनपति, ये सब सान्तर और निरन्तर उत्पन्न होते हैं । पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पति-कायिक तक सब निरन्तर ही उत्पन्न होते हैं । द्वीन्द्रिय यावत् सर्वार्थसिद्ध देव तक सब सान्तर और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । सूत्र-३३१
भगवन् ! नैरयिक सान्तर उद्वर्त्तन करते हैं अथवा निरन्तर उद्वर्त्तन करते हैं ? गौतम ! वे सान्तर भी उद्वर्त्तन करते हैं और निरन्तर भी, उपपात के कथन अनुसार सिद्धों को छोड़कर उद्वर्त्तना में भी वैमानिकों तक कहना। सूत्र-३३२
भगवन् ! एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात । इसी प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी तक समझ लेना । असुरकुमार से स्तनितकुमार तक यहीं कहना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव एक समयमें कितने उत्पन्न होते हैं? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार वायुकायिक तक कहना । वनस्पतिकायिक जीव स्वस्थान में उपपात की अपेक्षा प्रतिसमय बिना विरह के अनन्त उत्पन्न होते हैं तथा परस्थान में प्रतिसमय बिना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक, सम्मूर्छिम मनुष्य, वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म यावत् सहस्रार कल्प के देव, इन सब को नैरयिकों के समान जानना । गर्भज मनुष्य, आनत यावत् अनुत्तरौपपातिक देव; ये सब जघन्यतः एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्टतः संख्यात उत्पन्न होते हैं । सिद्ध भगवान एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टतः एक सौ आठ होते हैं। सूत्र-३३३
भगवन् ! नैरयिक एक समय में कितने उद्वर्तित होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात । उपपात के समान सिद्धों को छोड़कर अनुत्तरौपपातिक देवों तक उद्वर्त्तना में भी कहना। विशेष यह कि ज्योतिष्क और वैमानिक के लिए 'च्यवन' शब्द कहना । सूत्र-३३४
भगवन् ! नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नैरयिक, तिर्यंचयोनिकों तथा मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! यदि तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो कौन से तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) सिर्फ पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो कौन से पंचन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) जलचर, स्थलचर और खेचर तीनों से उत्पन्न होते हैं । वे
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पद/उद्देश /सूत्र जलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में सम्मर्छिम और गर्भज दोनों से आकर उत्पन्न होते हैं । (वे) सम्मूर्छिमजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों में पर्याप्तक सम्मूर्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक से नहीं। भगवन् ! यदि गर्भज-जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तक से (अथवा) अपर्याप्तकगर्भज-जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) पर्याप्तक-गर्भज-जलचर से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त से नहीं।
(भगवन् !) यदि (वे) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या चतुष्पद-स्थलचर से उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) परिसर्पस्थलचर से? गौतम ! (वे) चतुष्पद-स्थलचर से भी और परिसर्प-स्थलचर-तिर्यंचयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं । यदि चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो (वे) सम्मर्छिम से भी और गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर से भी उत्पन्न होते हैं, यदि सम्मर्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो (वे) पर्याप्तक-सम्मूर्छिम० से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं । यदि गर्भज-चतुष्पद० से उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष आयुवाले० से नहीं । यदि (वे) संख्यात वर्ष की आयुवाले गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क० से होते हैं, अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क० से नहीं।
भगवन् ! यदि (वे) परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या उरःपरिसर्प-स्थलचर - पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) भुजपरिसर्प० से? गौतम ! वे दोनों से ही उत्पन्न होते हैं । यदि उर:परिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो सम्मूर्छिम-उर:परिसर्प-स्थलचर० से उत्पन्न होते हैं और गर्भज-उरःपरिसर्प० से भी । यदि (वे) सम्मूर्छिम-उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो पर्याप्तक-सम्मूर्छिम-उर:परिसर्प से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं । यदि गर्भज-उरः परिसर्प-स्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्तक-गर्भज-उर:परिसर्प० से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं।
(भगवन् !) यदि (वे) भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूर्छिमभुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भज-भुजपरिसर्प० गौतम ! (वे) दोनों से । यदि सम्मूर्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो (वे) पर्याप्तक-सम्मूर्छिमभुजपरिसर्प० से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं । यदि गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्तक-गर्भज-भुजपरिसर्प से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं।
(भगवन !) यदि खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मर्छिम खेचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, या गर्भज खेचर० से ? गौतम ! दोनों से । यदि सम्मर्छिम खेचर-पंचेनि योनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो पर्याप्तक सम्मूर्छिम खेचर० से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक० से नहीं । यदि (वे) गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो संख्यातवर्ष की आयुवाले गर्भज खेचर० से उत्पन्न होते हैं, असंख्यातवर्षायुष्क० से नहीं । यदि (वे) संख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क गर्भज० से उत्पन्न होते हैं अपर्याप्तक० से नहीं।
(भगवन् !) यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूर्छिम मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, अथवा गर्भज से ? गौतम ! गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं । सम्मूर्छिम से नहीं । यदि (वे) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो० गौतम ! (वे) कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो० गौतम ! (वे) कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज० और अन्तर्वीपज० से नहीं । यदि कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो (वे) संख्यात वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज० से उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष आयुवाले० से नहीं । यदि संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क० वाले उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक-संख्यात वर्षायुष्क० नहीं।
औधिक नारकों के उपपात के समान रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के उपपात में कहना । शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों का उपपात भी औधिक नैरयिकों के समान समझना । विशेष यह कि सम्मूर्छिमों का निषेध करना । शर्कराप्रभापथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के समान वालुकाप्रभा में कहना । विशेष यह कि भुजपरिसर्प का निषेध
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र करना । वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान पंकप्रभा में उत्पत्ति कहना । विशेष यह की खेचर का निषेध करना । पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान धूमप्रभा का उत्पाद कहना । विशेष यह कि चतुष्पद का निषेध करना। धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के समान तमःप्रभा में समझना । विशेष यह कि स्थलचर का निषेध करना ।
___ यदि वे (धूमप्रभापृथ्वी नारक) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या जलचर० से या स्थलचर० से अथवा खेचर० से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों से उत्पन्न होते हैं, स्थलचर० और खेचर० से नहीं । यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज से नहीं । यदि कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो (वे) संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं असंख्यातवर्षायुष्क० से नहीं । यदि संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्तकों से उत्पन्न होते
अपर्याप्तकों से नहीं । यदि वे पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो गौतम (वे) स्त्रियों, पुरुषों और नपुंसकों से भी उत्पन्न होते हैं।
भगवन् ! अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनकी उत्पत्ति-सम्बन्धी प्ररूपणा इसी प्रकार तमःप्रभापृथ्वी के समान समझना । विशेष यह कि स्त्रियों का निषेध करना । सूत्र - ३३५, ३३६
असंज्ञी निश्चय ही पहली (नरकभूमि) में, सरीसृप दूसरी तक, पक्षी तीसरी तक, सिंह चौथी तक, उरग पाँचवी तक । तथा- स्त्रियाँ छठी (नरकभूमि) तक और मत्स्य एवं मनुष्य (पुरुष) सातवीं तक उत्पन्न होते हैं । नरकपृथ्वीयों में इनका यह उत्कृष्ट उपपात समझना। सूत्र-३३७
भगवन् ! असुरकुमार कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार नारकों के समान असुरकुमारों का भी उपपात कहना । विशेष यह कि असंख्यातवर्ष की आयुवाले, अकर्मभूमिज एवं अन्तर्दीपज मनुष्यों और तिर्यंचयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना सूत्र-३३८, ३३९
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! तिर्यंचयोनिकों, मनुष्ययोनिकों तथा देवों से उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं। यदि एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं तो पृथ्वीकायिकों यावत् वनस्पतिकायिकों से भी उत्पन्न होते हैं। यदि पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं तो सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं ? यदि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों से वे उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्त अथवा अपर्याप्त दोनों से ही उत्पन्न होते हैं । यदि बादर पृथ्वीकायिकों से वे उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्त या अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों तक कहना ।
यदि द्वीन्द्रिय से वे (एकेन्द्रिय जीव) उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त द्वीन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त से? गौतम ! दोनों से । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय से भी (वे) उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचों से उत्पन्न होते हैं इत्यादि प्रश्न | जिन-जिन से नैरयिकों का उपपात कहा है, उन-उन से पृथ्वीकायिकोंका उपपात कहना । विशेष यह कि पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से भी उत्पन्न होते हैं
यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूर्छिम मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या गर्भज से ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दोनों से उत्पन्न होते हैं । यदि गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा अकर्मभूमिज० से ? (गौतम !) नैरयिकों के उपपात समान वही (पृथ्वीकायिक आदि में समझना) विशेष यह कि अपर्याप्तक मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं।
(भगवन् !) यदि देवों से उत्पन्न होते हैं, तो कौन से देवों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! भवनवासी यावत् वैमानिक देवों से । यदि भवनवासी देवों से उत्पन्न होते हैं तो असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक से उत्पन्न होते हैं। यदि वाणव्यन्तर देवों से उत्पन्न होते हैं, तो पिशाचों यावत् गन्धर्वो से उत्पन्न होते हैं । यदि ज्योतिष्क देवों से
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र उत्पन्न होते हैं तो चन्द्र यावत् ताराविमान के देवों से उत्पन्न होते हैं । यदि वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं तो कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से ही उत्पन्न होते हैं । यदि कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं तो सौधर्म और ईशान कल्प के देवों से ही उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अप्कायिकों की उत्पत्ति में कहना ।
इसी प्रकार तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की उत्पत्ति में समझना । विशेष यह है कि यहाँ देवों का निषेध करना । वनस्पतिकायिकों की उत्पत्ति के विषय में, पृथ्वीकायिकों के समान जानना । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति तेजस्कायिकों और वायुकायिकों के समान समझना । सूत्र-३४०
भगवन ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नैरयिकों यावत देवों से भी उत्पन्न होते हैं। यदि नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमी के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं । यदि तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि एकेन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पृथ्वीकायिकों से यावत् वनस्पतिकायिकों से उत्पन्न होते हैं? गौतम ! पृथ्वीकायिकों के उपपात समान पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का उपपात कहना । विशेष यह कि सहस्रारकल्पोपपन्न वैमानिक देवों तक से भी उत्पन्न होते हैं। सूत्र-३४१
____ भगवन् ! मनुष्य कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नैरयिकों से यावत् देवों से उत्पन्न होते हैं । यदि नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, तो रत्नप्रभापृथ्वी यावत् तमःप्रभापृथ्वी तक के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, अधःसप्तमीपृथ्वी के नहीं । यदि मनुष्य तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रिय आदि से उत्पन्न होते हैं ? पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के उपपात समान मनुष्यों को भी कहना । विशेष यह कि (मनुष्य) अधःसप्तमीनरकपृथ्वी के नैरयिकों, तेजस्कायिकों और वायुकायिकों से उत्पन्न नहीं होते । उपपात सर्व देवों से कहना । सूत्र-३४२
भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! असुरकुमारों की उत्पत्ति के समान वाणव्यन्तर देवों की भी उत्पत्ति कहना। सूत्र-३४३
भगवन् ! ज्योतिष्क देव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ज्योतिष्क देवों का उपपात असुरकुमारों के समान समझना । विशेष यह कि ज्योतिष्कों की उत्पत्ति सम्मूर्छिम असंख्यातवर्षायुष्क-खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों को तथा अन्तर्दीपज मनुष्यों को छोड़कर कहना। सूत्र-३४४
भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों तथा मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार सौधर्म और ईशान कल्प के देवों में कहना । सनत्कुमार देवों में भी यहीं कहना । विशेष यह कि ये असंख्यातवर्षायुष्क अकर्मभूमिकों को छोड़कर उत्पन्न होते हैं । सहस्रारकल्प तक भी यहीं कहना।
____ आनत देव सिर्फ मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं । (वे) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्छिम से नहीं । यदि (वे) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न हैं तो कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्यों से ही उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपज से नहीं । यदि (वे) कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो संख्यात वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष आयुवाले से नहीं । यदि संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो (वे) पर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तको से नहीं।
___यदि (वे) पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? (या) मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यों से ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, सम्यमिथ्यादृष्टि० मनुष्यों से नहीं । यदि (वे) सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) संयत सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या असंयत सम्यग्दृष्टि से अथवा संयतासंयत सम्यग्दृष्टि से? गौतम ! तीनों से । अच्युतकल्प के देवों तक इसी प्रकार कहना । इसी प्रकार ग्रैवेयकदेवों में भी समझना । विशेष यह की असंयतों और संयतासंयतों का निषेध करना।
___ यदि (वे) संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो अप्रमत्त संयत-सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं प्रमत्तसंयत० से नहीं । यदि वे अप्रमत्तसंयतों से उत्पन्न होते हैं, तो वे ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त-अप्रमत्तसंयतों से भी उत्पन्न होते हैं। सूत्र-३४५
भगवन् ! नैरयिक जीव अनन्तर उद्वर्त्तन करके कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे तिर्यंचयोनिकों में या मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में ही उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार उपपात के समान उद्वर्त्तना भी कहना । विशेष यह कि वे सम्मूर्छिमों में उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार समस्त नरक में उद्वर्त्तना कहना । विशेष यह कि सातवी नरकपृथ्वी से मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते। सूत्र-३४६
___भगवन् ! असुरकुमार अनन्तर उद्वर्त्तना करके कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियों तिर्यंचयोनिकों में ही उत्पन्न होते हैं । यदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं तो (वे) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु तेजस्कायिक और वायुकायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । यदि पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं तो (वे) बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म में नहीं । यदि बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं तो (वे) पर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं अपर्याप्तकों में नहीं । इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी कहना | पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों में (सम्मूर्छिम को छोड़कर) नैरयिकों की उद्वर्त्तना के समान कहना चाहिए । असुरकुमारों की तरह स्तनितकुमारों तक की उद्वर्त्तना समझ लेना। सूत्र-३४७
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव अनन्तर उद्वर्त्तन करके कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम (वे) तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । इनके उपपात के समान इनकी उद्वर्त्तना भी कहनी चाहिए । इसी प्रकार अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों (की भी उद्वर्त्तना कहना ।) इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक को भी कहना । विशेष यह कि मनुष्य में निषेध करना । सूत्र-३४८
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक अनन्तर उद्वर्त्तना करके कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम (वे) नैरयिकों यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तो रत्नप्रभा यावत् अधः-सप्तमीपृथ्वी के नैरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । इनके उपपात के समान इनकी उद्वर्त्तना भी कहना । विशेष यह कि ये असंख्यातवर्षों की आयुवालों में भी उत्पन्न होते हैं।
(भगवन् !) यदि (वे) मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूर्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भज में? गौतम ! दोनों में । इनके उपपात के समान उद्वर्त्तना भी कहना । विशेष यह कि अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्यों में भी ये उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) देवों में उत्पन्न होते हैं तो सभी देवों में उत्पन्न होते हैं । यदि (वे) भवनपति देवों में उत्पन्न होते हैं तो सभी (भवनपतियों) में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और सहस्रारकल्प तक के वैमानिक देवों में निरन्तर उत्पन्न होते हैं। सूत्र - ३४९
___भगवन् ! मनुष्य अनन्तर उद्वर्त्तन करके कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) नैरयिकों यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! क्या (मनुष्य) नैरयिक आदि सभी स्थानों में उत्पन्न होते हैं ? हा गौतम ! होते हैं, कहीं भी इनके उत्पन्न
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र होने का निषेध नहीं करना, यावत् कईं मनुष्य सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण पाते हैं और सर्व दुःखों का अन्त भी करते हैं। सूत्र-३५०
वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म एवं ईशान देवलोक के वैमानिक देवों की उद्वर्त्तन-प्ररूपणा असुर-कुमारों के समान समझना । विशेष यह कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए च्यवन करते हैं। कहना । भगवन् ! सनत्कुमार देव अनन्तर च्यवन करके, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमारों के समान समझना । विशेष यह कि एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार सहस्रार देवों तक कहना । आनत देवों से अनुत्तरौपपातिक देवों तक इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न नहीं होते, मनुष्यों में भी पर्याप्तक संख्यात-वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । सूत्र-३५१
भगवन् ! आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर नैरयिक परभव का आयु बांधता है ? गौतम ! नियत से छह मास आयु शेष रहने पर । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक कहना । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव का आयु बांधते हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं, सोपक्रम आयुवाले और निरुपक्रम आयुवाले । जो निरुपक्रम आयुवाले हैं, वे नियम से आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करते हैं तथा सोपक्रम आयुवाले कदाचित् आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर, कदाचित् आयु के तीसरे का तीसरा भाग शेष रहने पर और कदाचित् आयु के तीसरे के तीसरे का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं । अप्कायिक यावत् वनस्पतिकायिकों तथा विकलेन्द्रियों को इसी प्रकार कहना ।
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधता है ? गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं । संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क । जो असंख्यात वर्ष आयुवाले हैं, वे नियम से छह मास आयु शेष रहते परभव का आयु बांधते हैं और संख्यातवर्ष आयुवाले हैं, वे दो प्रकार के हैं । सोपक्रम और निरुपक्रम आयुवाले । निरुपक्रम आयुवाले हैं, नियमतः आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं । सोपक्रम आयुवाले का कथन सोपक्रम पृथ्वीकायिक समान जानना । मनुष्यों को इसी प्रकार कहना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों को नैरयिकों के समान कहना । सूत्र-३५२
भगवन् ! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! छह प्रकार का । जातिनामनिधत्तायु, गतिनामनिधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानामनिधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्तायु और अनुभावनामनिधत्तायु । भगवन् ! नैरयिकों का आयुष्यबन्ध कितने प्रकार का कहा है ? पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना।
भगवन् ! जीव जातिनामनिधत्तायु को कितने आकर्षों से बांधते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से । इसी प्रकार वैमानिक तक समझ लेना । इसी प्रकार गतिनामनिधत्तायु यावत् अनुभावनामनिधत्तायु को जानना।
भगवन् ! इन जीवों में यावत् आठ आकर्षों से बन्ध करनेवालों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम जीव जातिनामनिधत्तायु को आठ आकर्षों से बांधने वाले हैं, सात आकर्षों से बांधने वाले (इनसे) संख्यातगुणे हैं, यावत् इसी अनुक्रम से एक आकर्ष से बांधने वाले (इनसे भी) संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार गतिनामनिधत्तायु यावत् अनुभावनामनिधत्तायु को (जानना ।) इसी प्रकार ये छहों ही अल्पबहुत्व-सम्बन्धी दण्डक जीव से आरम्भ करके कहना ।
पद-६-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-७-उच्छ्वास सूत्र - ३५३
भगवन् ! नैरयिक कितने काल से उच्छ्वास लेते और निःश्वास छोड़ते हैं ? गौतम ! सतत सदैव उच्छ्वासनिःश्वास लेते रहते हैं। भगवन ! असुरकुमार ? गौतम ! वे जघन्यतः सात स्तोक में और उत्कृष्टतः एक पक्ष में श्वास लेते और छोड़ते हैं । भगवन् ! नागकुमार ? गौतम ! वे जघन्य सात स्तोक और उत्कृष्टतः मुहर्तपृथक्त्व में श्वास लेते और छोड़ते हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक समझना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल से श्वासोच्छवास लेते हैं ? गौतम ! विमात्रा से । इसी प्रकार मनुष्यों तक जानना । वाणव्यन्तर देवों में नागकुमारों के समान कहना । भगवन् ! ज्योतिष्क ? गौतम ! (वे) जघन्यतः और उत्कृष्ट भी मुहूर्तपृथक्त्व से उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं।
भगवन् ! वैमानिक देव कितने काल से उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं ? गौतम ! जघन्य मुहर्तपृथक्त्व में और उत्कृष्ट तेंतीस पक्ष में | सौधर्मकल्प के देव जघन्य मुहर्तपृथक्त्व में, उत्कृष्ट दो पक्षों में उच्छवास निःश्वास लेते हैं । ईशानकल्प के देव के विषय में सौधर्मदेव से सातिरेक समझना । सनत्कुमार देव जघन्य दो पक्ष में और उत्कृष्टतः सात पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । माहेन्द्रकल्प में सनत्कुमार से सातिरेक जानना । ब्रह्मलोककल्प देव जघन्य सात पक्षों में और उत्कृष्ट दस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । लान्तककल्पदेव जघन्य दस और उत्कृष्ट चौदह पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । महाशुक्रकल्पदेव जघन्यतः चौदह और उत्कृष्टतः सत्रह पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । सहस्रारकल्पदेव जघन्य सत्रह और उत्कृष्ट अठारह पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । आनतकल्पदेव जघन्य अठारह और उत्कृष्ट उन्नीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । प्राणतकल्पदेव जघन्यतः उन्नीस और उत्कृष्टतः बीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । आरणकल्पदेव जघन्यतः बीस और उत्कृष्टतः ईक्कीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। अच्युतकल्पदेव जघन्यतः ईक्कीस और उत्कृष्टतः बाईस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं।
भगवन् ! अधस्तन-अधस्तनौवेयक देव कितने काल से उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं ? गौतम ! जघन्यतः बाईस पक्षों में और उत्कृष्टतः तेईस पक्षों में | अधस्तन-मध्यमग्रैवेयक देव जघन्यतः तेईस और उत्कृष्टतः चौबीस पक्षों में उच्छवास निःश्वास लेते हैं। अधस्तन-उपरितन ग्रैवेयकदेव जघन्यतः चौबीस और उत्कृष्टतः पच्चीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । मध्यम-अधस्तनौवेयक देव जघन्यतः पच्चीस और उत्कृष्टतः छब्बीस पक्षों में उच्छ्वास यावत् निःश्वास लेते हैं । मध्यम-मध्यमग्रैवेयकदेव जघन्यतः छब्बीस और उत्कृष्टतः सत्ताईस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। मध्यमउपरितनग्रैवेयक देव जघन्यतः सत्ताईस और उत्कृष्टतः अट्ठाईस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । उपरितन-अधस्तनप्रैवेयकदेव जघन्यतः अट्ठाईस और उत्कृष्टतः उनतीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। उपरितनमध्यमग्रैवेयकदेव जघन्यतः उनतीस और उत्कृष्टतः तीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । उपरितनउपरितनग्रैवेयकदेव जघन्यतः तीस और उत्कृष्टतः इकतीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । अनुत्तरौपपातिक देव जघन्यतः इकतीस और उत्कृष्टतः तेंतीस पक्षों में उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । विशेष यह कि सर्वार्थ सिद्ध देवों का काल अजघन्योत्कृष्ट तेंतीस पक्ष का है।
पद-७-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-८-संज्ञा सूत्र- ३५४
भगवन् ! संज्ञाएं कितनी हैं ? गौतम ! दश । आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । भगवन् ! नैरयिकों में कितनी संज्ञाएं हैं ? हे गौतम ! पूर्ववत् दश । इसी प्रकार पृथ्वीकायिक यावत् वैमानिक तक सभी जीवों में दश संज्ञाएं हैं। सूत्र - ३५५
भगवन् ! नैरयिक कौन सी संज्ञावाले हैं ? गौतम ! बहुलता से बाह्य कारण की अपेक्षा वे भयसंज्ञा से उपयुक्त हैं, (किन्तु) आन्तरिक अनुभवरूप से (वे) आहार-भय-मैथुन और परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी हैं । भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त, भयसंज्ञोपयुक्त, मैथुनसंज्ञोपयुक्त एवं परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारकों में से कौन किनसे अल्प, बहुल, तल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे थोडे मैथनसंज्ञोपयक्त, नैरयिक हैं, उनसे संख्यातगणे आहारसंज्ञोप-यक्त हैं, उनसे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नैरयिक संख्यातगुणे हैं और उनसे भी संख्यातगुणे अधिक भयसंज्ञोपयुक्त नैरयिक हैं।
भगवन ! तिर्यंचयोनिक जीव ? गौतम ! बहलता से बाहा कारण की अपेक्षा आहारसंज्ञोपयक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्य अनुभवरूप से आहार यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं । भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यंचयोनिक जीवों में कौन, किनसे अल्प, बहुल, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यंचयोनिक होते हैं, (उनसे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे, (उनसे) भयसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे और उनसे भी आहारसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे हैं।
भगवन् ! मनुष्य ? गौतम ! बहुलता से बाह्य कारण से (वे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्यानुभवरूप भाव से आहार यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं । भगवन् ! आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों में कौन किनसे अल्प, बहुल, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य भवसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (उनसे) आहारसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे, (उनसे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे, उनसे संख्यातगुणे मैथुनसंज्ञोपयुक्त हैं।
भगवन् ! देव ? गौतम ! बाहुल्य से बाह्य कारण से (वे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक अनुभवरूप से (वे) आहार यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं । भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देवों में से कौन किनसे अल्प, बहुल, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े आहारसंज्ञोपयुक्त देव हैं, (उनसे) भयसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे, (उनसे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त संख्यातगुणे और उनसे संख्यात-गुणे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देव हैं।
पद-८-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-९-योनि सूत्र - ३५६
भगवन ! योनि कितने प्रकार की हैं? तीन प्रकार की। शीत योनि, उष्ण योनि और शीतोष्ण योनि । सूत्र-३५७
भगवन ! नैरयिकों की कौन सी योनि है ? गौतम ! शीतयोनि और उष्ण योनि होती है, शीतोष्ण नहीं होती। असुरकुमार देवों की केवल शीतोष्ण योनि होती है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना ।
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की कौन सी योनि है ? गौतम ! शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनि होती है । इसी तरह अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को जानना । तेजस्का-यिक जीवों की केवल उष्ण योनि होती है।
भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की कौन सी योनि होती है ? गौतम ! शीत, उष्ण और शीतोष्ण भी होती है । सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों को इसी तरह जानना । गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की केवल शीतोष्ण योनि होती है । मनुष्यों की शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनि भी होती है । सम्मूर्छिम मनुष्यों को इसी तरह जानना । गर्भज मनुष्यों की केवल शीतोष्ण योनि होती है ।
भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों की योनि क्या शीत है, उष्ण है अथवा शीतोष्ण है ? गौतम ! उनकी शीतोष्ण योनि होती है । इसी प्रकार ज्योतिष्कों और वैमानिक देवों को समझना । भगवन् ! इन शीतयोनिक जीवों, उष्ण-योनिक जीवों, शीतोष्णयोनिक जीवों तथा अयोनिक जीवों में से कौन किनसे अल्प है, बहल है, तुल्य है, अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव शीतोष्णयोनिक हैं, उष्णयोनिक जीव उनसे असंख्यातगुणे, उनसे अयोनिक जीव अनन्तगुणे और उनसे शीतयोनि जीव अनन्तगणे हैं। सूत्र - ३५८
भगवन ! योनि कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की। सचित्त योनि, अचित्त योनि और मिश्र योनि । भगवन ! नैरयिकों की योनि क्या सचित्त है, अचित्त है अथवा मिश्र है ? गौतम ! नारकों की योनि केवल अचित्त होती है । इसी तरह असुरकुमार से स्तनितकुमार तक जानना । पृथ्वीकायिक जीवों की योनि सचित्त, अचित्त और मिश्र होती है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक समझना । सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों एवं सम्मूर्छिम मनुष्यों में भी इसी प्रकार जानना । गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों तथा गर्भज मनुष्यों की योनि मिश्र होती है । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की योनि अचित्त है।
भगवन् ! इन सचित्तयोनिक जीवों, अचित्तयोनिक जीवों, मिश्रयोनिक जीवों तथा अयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुल, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? गौतम ! मिश्रयोनिक जीव सबसे थोड़े होते हैं, (उनसे) अचित्तयोनिक जीव असंख्यातगुणे, (उनसे) अयोनिक जीव अनन्तगुणे, उनसे सचित्तयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं। सूत्र-३५९
भगवन् ! योनि कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की । संवृत योनि, विवृत योनि और संवृतविवृतयोनि | भगवन् ! नैरयिकों की योनि क्या संवृत होती है, विवृत होती है अथवा संवृत-विवृत है ? गौतम ! नैरयिकों की योनि केवल संवृत होती है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना । द्वीन्द्रिय जीवों की योनि विवृत होती है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना । सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक एवं सम्मूर्छिम मनुष्यों में ऐसा ही है । गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और गर्भज मनुष्यों की योनि संवृत-विवृत होती है । वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की योनि संवृत होती है।
भगवन् ! इन संवृतयोनिक, विवृतयोनिक, संवृत-विवृतयोनिक तथा अयोनिक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुल, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? गौतम ! सबसे कम संवृत-विवृतयोनिक जीव हैं, (उनसे) विवृत-योनिक जीव असंख्यातगुणे, (उनसे) अयोनिक जीव अनन्तगुणे, उनसे संवृतयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना’
सूत्र - ३६०
भगवन् ! योनि कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की । कूर्मोन्नता, शंखावर्त्ता और वंशीपत्रा । कूर्मोन्नता योनि में उत्तमपुरुष गर्भ में उत्पन्न होते हैं । जैसे- अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव । शंखावर्त्ता योनि स्त्रीरत्न की होती है । शंखावर्त्ता योनि में बहुत-से जीव और पुद्गल आते हैं, गर्भरूप में उत्पन्न होते चय उपचय होता है, किन्तु निष्पत्ति नहीं होती । वंशीपत्रा योनि सामान्यजनों की होती है। उनमें से साधारण जीव गर्भ में आते हैं पद-९ का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
पद / उद्देश / सूत्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१०-चरमाचरम सूत्र-३६१
भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई है ? गौतम ! आठ पृथ्वीयाँ हैं - रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा और ईषत्प्राग्भारा ।
भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अचरम है, अनेक चरमरूप है, अनेक अचरमरूप है, चरमान्त बहुप्रदेशरूप है अथवा अचरमान्त बहुप्रदेशरूप है ? गौतम ! नियमतः (वह) अचरम और अनेकचरमरूप है तथा चरमान्त अनेकप्रदेशरूप और अचरमान्त अनेकप्रदेशरूप है । युं यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी तक कहना । सौधर्मादि से लेकर अनुत्तर विमान तक और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी इसी तरह समझना । लोक और अलोक में भी इसी तरह कहना। सूत्र - ३६२
। इस रत्नप्रभापथ्वी के अचरम और बहवचनान्त चरम, चरमान्तप्रदेशों तथा अचरमान्तप्रदेशों में द्रव्यों, प्रदेशों से और द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? गौतम! द्रव्य से इस रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम सबसे कम है । उससे (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं । अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । प्रदेशों से 'चरमान्तप्रदेश' सबसे कम हैं । उनसे अचर मान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों से सबसे कम इस रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम है । उससे असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं। अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों ही विशेषाधिक हैं । (उनसे) प्रदेशापेक्षया चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) असंख्यातगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार तमस्तमःपृथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर लोक ऐसा ही समझना । सूत्र-३६३
भगवन् ! अलोक के अचरम, चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में अल्पबहुत्व-गौतम ! द्रव्य सेसबसे कम अलोक का एक अचरम है । उससे असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं । अचरम और (बहुवच-नान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । प्रदेशों से सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, उनसे अनन्तगुणे अचर-मान्त प्रदेश हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है । उससे बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं | अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । उनसे चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे भी अनन्तगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! लोकालोक के अचरम, (बहुवचनान्त) चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में अल्प-बहत्वगौतम ! द्रव्य से-सबसे कम लोकालोक का एक-एक अचरम है । उससे लोक के (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं, लोक और अलोक का अचरम और (बहवच-नान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । प्रदेशों से-सबसे थोड़े लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं, उनसे लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं । लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम लोकअलोक का एक-एक अचरम है, उससे लोक के (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं । लोक और अलोक का अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। लोक के चरमान्तप्रदेश (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं, (उनसे) लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोकके अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश
और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। उनसे सब द्रव्य विशेषाधिक हैं । उनसे सर्व प्रदेश अनन्तगुणे हैं और उनसे सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-३६४
भगवन् ! परमाणुपुद्गल क्या चरम है ? अचरम है ? अवक्तव्य है ? अथवा अनेक चरमरूप है ?, अनेक अचरमरूप है ?, बहुत अवक्तव्यरूप है ? अथवा चरम और अचरम है ? या एक चरम और अनेक अचरमरूप है ? अथवा अनेक चरमरूप और एक अचरम है ? या अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है ? यह प्रथम चतुर्भंगी हुई। अथवा चरम और अवक्तव्य है ? अथवा एक चरम और बहुत अवक्तव्यरूप है ? या अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है ? अथवा अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है ? यह द्वितीय चतुर्भंगी हुई । अथवा अचरम और अवक्तव्य है ? अथवा एक अचरम और बहुअवक्तव्यरूप है ? या अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है? अथवा अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है ? यह तृतीय चतुर्भंगी हुई । अथवा (परमाणुपुद्गल) एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है ? या एक चरम, एक अचरम और बहुत अवक्तव्यरूप हैं ? अथवा एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है ? अथवा एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्य हैं ? अथवा अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है ? अथवा अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्य है ? या अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है ? अथवा अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्य हैं ? इस प्रकार ये छब्बीस भंग हैं । हे गौतम ! परमाणुपुद्गल नियम से अवक्तव्य है सूत्र-३६५
भगवन ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में प्रश्न-गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध कथंचित चरम और कथंचित अवक्तव्य है।
भगवन् ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित अवक्तव्य है, कथंचित अनेक चरमरूप और एक अचरम है और कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है।
भगवन् ! चतुष्पदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित अवक्तव्य है । कथंचित् अनेक चरम रूप और एक अचरम है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है और कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है।
भगवन् ! पंचप्रदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित अवक्तव्य है, कथंचित् चरम और अचरम है, कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, (तथा) कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है तथा कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है।।
भगवन् ! षट्प्रदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् चरम और अचरम है, कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् अनेक चरम और एक अचरम है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् एक चरम और अवक्तव्य है, कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है और कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है।
भगवन् ! सप्तप्रदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् चरम और अचरम है, कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है, कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र है, कथंचित् एक चरम, अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है।
भगवन् ! अष्टप्रदेशिक स्कन्ध ? गौतम ! १. कथंचित् चरम है, ३. कथंचित् अवक्तव्य है, ७. कथंचित् एक चरम और एक अचरम है, ८. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप है, ९. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम है, १०. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है, ११. कथंचित् चरम और अवक्तव्य है, १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, १३. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है, १४. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, १९. कथंचित् चरम, अचरम और अवक्तव्यरूप है, २०. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, २१. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, २२. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, २४. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, २५. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, और २६. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है। सूत्र-३६६
परमाणुपुद्गल में तृतीय भंग, द्विप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम और तृतीय भंग, त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम, तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ भंग होता है। सूत्र-३६७
चतुःप्रदेशीस्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ भंग है। सूत्र-३६८
पंचप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम, तृतीय, सप्तम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश, त्रयोदश, तेईसवाँ, चौबीसवाँ और पच्चीसवाँ भंग जानना। सूत्र-३६९
षट्प्रदेशीस्कन्ध में द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, बीसवाँ, ईक्कीसवाँ और बाईसवाँ छोडकर, शेष भंग होते हैं। सूत्र-३७०
सप्तप्रदेशीस्कन्ध में दूसरे, चौथे, पाँचवे, छठे, पन्द्रहवे, सोलहवे, सत्रहवे, अठारहवे और बाईसवे भंग के सिवाय शेष भंग होते हैं। सूत्र-३७१
शेष सब स्कन्धों में दूसरा, चौथा, पाँचवां, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, इन भंगों को छोड़कर, शेष भंग होत हैं। सूत्र-३७२
भगवन् ! संस्थान कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच - परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र और आयत । भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार यावत् आयत तक समझना । भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशी है, असंख्यातप्रदेशी है अथवा अनन्तप्रदेशी है ? गौतम ! कदाचित् संख्यातप्रदेशी, कदाचित् असंख्यातप्रदेशी और कदाचित् अनन्तप्रदेशी है । इसी प्रकार आयत तक समझना
भगवन् ! संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशों में, असंख्यात प्रदेशों में अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? गौतम ! केवल संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक समझना । भगवन ! असंख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में, असंख्यात प्रदेशों में अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र होता है ? गौतम ! कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। इसी प्रकार आयत संस्थान तक कहना । भगवन् ! अनन्तप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में, असंख्यात प्रदेशों में अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? गौतम ! कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक समझना ।
भगवन् ! संख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, अनेक चरमरूप है, अनेक अचरमरूप है, चरमान्तप्रदेश है अथवा अचरमान्तप्रदेश है ? गौतम ! वह नियम से अचरम, अनेक चरम रूप चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश है । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक कहना । भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान में पूर्ववत् प्रश्न-गौतम ! संख्यातप्रदेशी के समान ही समझना । इसी प्रकार यावत आयतसंस्थान तक समझना | भगवन ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ परिमण्डल संस्थान में पूर्ववत् प्रश्न-गौतम ! संख्यातप्रदेशावगाढ़ की तरह समझना । इसी प्रकार यावत् आयतसंस्थान तक कहना । भगवन ! अनन्तप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ परिमण्डलसंस्थान ? गौतम ! संख्यातप्रदेशी संख्यात-प्रदेशावगाढ के समान यावत् आयतसंस्थान पर्यन्त समझना । अनन्तप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ के समान अनन्त-प्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ (परिमण्डलादि के विषय में) आयतसंस्थान तक कहना।
भगवन् ! संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्यप्रदेश इन दोनों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! द्रव्य से-संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ परिमण्डल संस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है (उससे) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, अचरम और बहुवचनान्त चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । प्रदेशों से संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश सबसे थोड़े हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों से-संख्यातप्रदेशी-संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है, उनसे अनेक चरम संख्यातगुणे हैं, (उनसे) एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं, चरमा-न्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश ये दोनों विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार की योजना वृत्त, त्रयस्र, चतुरस्र और आयत संस्थान में कर लेना।
भगवन् ! असंख्यातप्रदेशों एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान में पूर्ववत् अल्पबहत्व-गौतम ! द्रव्य से असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे थोड़ा है, (उससे) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । प्रदेशों से असंख्यात-प्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश, सबसे कम हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यात-गुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों से-असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे कम है, (उनसे) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, (उनसे) एक अचरम और बहुत चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार आयत तक के (चरमादि के अल्पबहुत्व के) विषय में (कथन करना चाहिए ।)
भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान में पूर्ववत् अल्पबहुत्व-गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमादि के अल्पबहुत्व के समान कहना । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक जानना । भगवन् ! अनन्तप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अल्पबहुत्व में संख्यातप्रदेशावगाढ़ संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान कहना । विशेष यह है कि संक्रम में अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक कहना । भगवन्! अनन्तप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डल संस्थान में रत्नप्रभापृथ्वी के चरम, अचरम आदि के समान समझ लेना । विशेषता यह है कि संक्रम में अनन्तगुणा है। इसी प्रकार यावत् आयतसंस्थान तक समझ लेना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-३७३
भगवन् ! जीव गतिचरम से चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है । भगवन्! (एक) नैरयिक गतिचरम से चरम है या अचरम ? गौतम ! कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है । इसी प्रकार (एक) वैमानिक तक जानना । भगवन् ! (अनेक) नैरयिक गतिचरम से चरम हैं अथवा अचरम ? गौतम ! चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार (अनेक) वैमानिक तक कहना ।
भगवन् ! (एक) नैरयिक स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम? गौतम ! कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है। (एक) वैमानिक देव-पर्यन्त इसी प्रकार कहना । भगवन! (अनेक) नैरयिक स्थितिचरम से चरम हैं अथवा अचरम? गौतम ! चरम भी हैं और अचरम भी। (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार कहना।
भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम से चरम है या अचरम ? गौतम ! कथंचित चरम है और कथंचित अचरम । (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार कहना चाहिए । भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम से चरम हैं या अचरम ? गौतम ! चरम भी हैं और अचरम भी । (अनेक) वैमानिक तक इसी प्रकार समझना।
भगवन् ! भाषाचरम से (एक) नैरयिक चरम है या अचरम ? गौतम ! कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम । इसी तरह (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना । भगवन् ! भाषाचरम से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? गौतम ! चरम भी हैं और अचरम भी । एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक तक इसी प्रकार कहना।
भगवन् ! (एक) नैरयिक आनापन चरम से चरम है या अचरम ? इसी प्रकार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना। भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आनापानचरम से चरम हैं या अचरम ? गौतम ! चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार (अनेक) वैमानिक तक कहना ।
आहारचरम से (एक) नैरयिक कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम । (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । (अनेक) नैरयिक आहारचरम से चरम भी हैं और अचरम भी । वैमानिक देवों तक इसी प्रकार कहना।
(एक) नैरयिक भावचरम से कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम हैं । इसी प्रकार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना । (अनेक) नैरयिक भावचरम से चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार (अनेक) वैमानिकों तक कहना ।
(एक) नैरयिक वर्णचरम से कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम । इसी प्रकार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना । (अनेक) नैरयिक वर्णचरम से चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार (अनेक) वैमानिक तक कहना।
(एक) नैरयिक गंधचरम से कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम । (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । गन्धचरम से (अनेक) नैरयिक चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार वैमानिक तक कहना।
(एक) नैरयिक रसचरम से कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम । (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । (अनेक) नैरयिक रसचरम चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार वैमानिक तक (कहना ।)
(एक) नैरयिक स्पर्शचरम से कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम । (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना। (अनेक) नैरयिक स्पर्शचरम से चरम भी हैं और अचरम भी । इसी प्रकार अनेक वैमानिक तक कहना। सूत्र-३७४
गति, स्थिति, भव, भाषा, आनापान, आहार, भाव, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से चरमादि जानना ।
पद-१०-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद-११- भाषा
पद / उद्देश / सूत्र
सूत्र - ३७५
भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवधारिणी है; मैं ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है; भगवन् ! क्या मैं ऐसा मानूँ ? क्या ऐसा चिन्तन करूँ कि भाषा अवधारिणी है ? हाँ, गौतम ! यह सर्व सत्य है ।
भगवन्! अवधारिणी भाषा क्या सत्य है, मृषा है, सत्यामृषा है, अथवा असत्यामृषा है ? गौतम ! वह कदाचित् सत्य होती है, कदाचित् मृषा होती है, कदाचित् सत्यामृषा होती है और कदाचित् असत्याभाषा (भी) होती है। भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? गौतम! आराधनी (भाषा है, वह सत्य है, विराधनी भाषा) मृषा है, आराधनी-विराधनी सत्यामृषा है, और जो न आराधनी है, न विराधनी है और न ही आराधनी विराधनी है, वह असत्यामृषा भाषा है । हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि अवधारिणी भाषा कदाचित् सत्य यावत् कदाचित् असत्यामृषा है ।
सूत्र - ३७६
भगवन् ! 'गायें', 'मृग', 'पशु', 'पक्षी' क्या यह भाषा प्रज्ञापनी हैं ? यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन अथवा नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है? हाँ, ऐसा ही है ।
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भगवन् ! यह जो स्त्री- आज्ञापनी, पुरुष आज्ञापनी अथवा नपुंसक आज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है, यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है जो स्त्री प्रज्ञापनी है और जो पुरुष प्रज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसकप्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है। जाति में स्त्रीवचन, जाति में पुरुषवचन, अथवा जाति में नपुंसकवचन, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है । जाति में जो स्त्री- आज्ञापनी है, जाति में जो पुरुषआज्ञापनी है, या जाति में जो नपुंसक आज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है। जाति में जो स्त्री- प्रज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष प्रज्ञापनी है, अथवा जाति में जो नपुंसक - प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है ।
सूत्र - ३७७
भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका बोलती हुई ऐसा जानती है कि मैं बोल रही हूँ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय संज्ञी के भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका आहार करती हुई जानती है कि मैं इस आहार को करता हूँ या करती हूँ ? गौतम ! संज्ञी को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका यह जानते हैं कि ये मेरे माता-पिता है ? गौतम ! पूर्ववत् । भगवन् ! मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका क्या यह जानते हैं कि यह मेरे स्वामी का घर है ? गौतम ! पूर्ववत् । भगवन् ! क्या मन्द कुमार या मन्द कुमारिका यह जानते हैं कि यह मेरे भर्ता का दारक है। गौतम पूर्ववत् ।
भगवन् ! ऊंट, बैल, गधा, घोड़ा, बकरा और भेड़ क्या बोलता हुआ यह जानता है कि यह मैं बोल रहा हूँ ? गौतम ! संज्ञी को छोड़कर यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! उष्ट्र से एलक तक आहार करता हुआ यह जानता है कि में यह आहार कर रहा हूँ ? गौतम ! पूर्ववत् । भगवन् ! ऊंट यावत् एलक क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का पुत्र है ? गौतम संज्ञी को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है।
सूत्र - ३७८
भगवन् ! मनुष्य, महिष, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, वृक, द्वीपिक, ऋक्ष, तरक्ष, पाराशर, रासभ, सियार, बिडाल, शुनक, कोलशुनक, लोमड़ी, शशक, चीता और चिल्ललक, ये और इसी प्रकार के जो अन्य जीव हैं, क्या वे सब एकवचन हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! मनुष्यों से लेकर बहुत चिल्ललक तथा इसी प्रकार के जो अन्य प्राणी हैं, वे सब क्या बहुवचन हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! मनुष्य की स्त्री यावत् चिल्ललक स्त्री और अन्य इसी प्रकार के जो भी (जीव) हैं, क्या वे सब स्त्रीवचन हैं ? हाँ, गौतम हैं। भगवन् ! मनुष्य से चिल्ललक तक तथा जो अन्य भी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र इसी प्रकार के प्राणी हैं, क्या वे सब पुरुषवचन हैं ? हाँ, गौतम ! हैं।
भगवन् ! कांस्य, कंसोक, परिमण्डल, शैल, स्तूप, जाल, स्थाल, तार, रूप, अक्षि, पर्व, कुण्ड, पद्म, दुग्ध, दधि, नवनीत, आसन, शयन, भवन, विमान, छत्र, चामर, शृंगार, अंगन, निरंगन, आभरण और रत्न, ये और इसी प्रकार के अन्य जितने भी (शब्द) हैं, वे सब क्या नपुंसकवचन हैं ? हाँ, गौतम ! हैं।
__भगवन् ! पृथ्वी स्त्रीवचन है, आउ पुरुषवचन है और धान्य, नपुंसकवचन है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है । भगवन् ! पृथ्वी, यह भाषा स्त्रीआज्ञापनी है, अप यह भाषा पुरुष-आज्ञापनी है और धान्य, यह भाषा नपुंसक-आज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! पृथ्वी, यह स्त्री-प्रज्ञापनी भाषा है, अप, यह पुरुष-प्रज्ञापनी भाषा है और धान्य, यह नपुंसक-प्रज्ञापनी भाषा है, क्या यह भाषा आराधनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! इसी प्रकार स्त्री या पुरुष अथवा नपुंसकवचन बोलते हुए क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। सूत्र-३७९
भगवन् ! भाषा की आदि क्या है ? भाषा का प्रभव-स्थान क्या है ? आकार कैसा है ? पर्यवसान कहाँ होता है ? गौतम ! भाषा की आदि जीव है । उत्पादस्थान शरीर है । वज्र के आकार की हैं । लोक के अन्त में उसका पर्यवसान होता है। सूत्र-३८०,३८१
भाषा कहाँ से उद्भूत होती है ? कितने समयों में बोली जाती है ? कितने प्रकार की है ? और कितनी भाषाएं अनुमत हैं ? भाषा का उद्भव शरीर से होता है । समयों में बोली जाती है । भाषा चार प्रकार की है, उनमें से दो भाषाएं अनुमत हैं। सूत्र - ३८२
भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की । पर्याप्तिका और अपर्याप्तिका | पर्याप्तिका भाषा दो प्रकार की है । सत्या और मृषा । भगवन् ! सत्या-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! दस प्रकार की | जनपदसत्या, सम्मतसत्या, स्थापनासत्या, नामसत्या, रूपसत्या, प्रतीत्यसत्या, व्यवहारसत्या, भाव-सत्या, योगसत्या और औपम्यसत्या । सूत्र-३८३
दस प्रकार के सत्य हैं - जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य और दसवाँ औपम्यसत्य । सूत्र-३८४
भगवन् ! मृषा-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! दस प्रकार की । क्रोधनिःसृता, माननिःसृता, मायानिःसृता, लोभनिःसृता, प्रेयनिःसृता, द्वेषनिःसृता, हास्यनिःसृता, भयनिःसृता, आख्यायिका-निःसृता और उपघातनिःसृता। सूत्र-३८५
क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनिःसृत, प्रेयनिःसृत, द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, आख्यायिकानिःसृत और दसवाँ उपघातनिःसृत असत्य । सूत्र - ३८६
भगवन् ! अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की । सत्या-मृषा और असत्यामृषा। भगवन् ! सत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! दस प्रकार की । उत्पन्नमिश्रिता, विगतमिश्रिता, उत्पन्न-विगतमिश्रिता, जीवमिश्रिता, अजीवमिश्रिता, जीवाजीवमिश्रिता, अनन्त-मिश्रिता, परित्तमिश्रिता, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अद्धामिश्रिता और अद्धद्धामिश्रिता । भगवन् ! असत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की है ? गौतम ! बारह प्रकार की । यथासूत्र-३८७-३८८
आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, पृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुलोमा, अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संशयकरणी, व्याकृता और अव्याकृता भाषा। सूत्र-३८९
भगवन् ! जीव भाषक हैं या अभाषक ? गौतम ! दोनों । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम! जीव दो प्रकार के हैं । संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । जो असंसारसमापन्नक जीव हैं, वे सिद्ध हैं और सिद्ध अभाषक होते हैं, जो संसारसमापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के हैं-शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक। जो शैलेषीप्रतिपन्नक हैं, वे अभाषक हैं । जो अशैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं । एकेन्द्रिय और अनेकेन्द्रिय। जो एकेन्द्रिय हैं, वे अभाषक हैं । जो अनेकेन्द्रिय हैं, वे दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं । जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं।
भगवन् ! नैरयिक भाषक हैं या अभाषक । गौतम ! दोनों । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं और जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं । इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त सभी में समझना । सूत्र-३९०
भगवन् ! भाषाजात कितने हैं ? गौतम ! चार । सत्यभाषाजात, मृषाभाषाजात, सत्यामृषाभाषाजात और असत्यामृषाभाषाजात ।
भगवन् ! जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं, मृषाभाषा बोलते हैं, सत्यामृषाभाषा बोलते हैं अथवा असत्यामृषाभाषा बोलते हैं ? गौतम ! चारों भाषा बोलते हैं । भगवन् ! क्या नैरयिक सत्यभाषा बोलते हैं, यावत् असत्यामृषाभाषा बोलते हैं ? गौतम ! चारों भाषा बोलते हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक यहीं समझना। विकलेन्द्रिय जीव केवल असत्यामषा भाषा बोलते हैं।
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं ? यावत् क्या असत्यामृषा भाषा बोलते हैं? गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव सिर्फ एक असत्यामृषा भाषा बोलते हैं; सिवाय शिक्षापूर्वक अथवा उत्तरगुणलब्धि से वे चारों भाषा बोलते हैं । मनुष्यों से वैमानिकों तक की भाषा के विषय में औधिक जीवों के समान कहना सूत्र-३९१
भगवन ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, सो स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! (वह) स्थित द्रव्यों को ही ग्रहण करता है । भगवन् ! (जीव) जिन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, उन्हें क्या द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से अथवा भाव से ग्रहण करता है ? गौतम ! वह द्रव्य से भी यावत् भाव से भी ग्रहण करता है।
भगवन् ! जिन द्रव्यों को द्रव्यतः ग्रहण करता है, क्या वह उन एकप्रदेशी (द्रव्यों) को ग्रहण करता है, यावत् अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को? गौतम ! (जीव) सिर्फ अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है । जिन द्रव्यों को क्षेत्रतः ग्रहण करता है, क्या वह एकप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ? गौतम! (वह) असंख्यातप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है । (जीव) जिन द्रव्यों को कालतः ग्रहण करता है, क्या (वह) एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को? गौतम ! (वह) एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी । (जीव) जिन द्रव्यों को भावतः ग्रहण करता है, क्या वह वर्णवाले, गन्धवाले, रसवाले अथवा स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? गौतम ! वह चारों को ग्रहण करता है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भावतः जिन वर्णवान् द्रव्यों को ग्रहण करता है क्या (वह) एक वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् पाँच वर्ण वाले द्रव्यों को? गौतम ! ग्रहण द्रव्यों की अपेक्षा से एक वर्ण वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् पाँच वर्ण वाले द्रव्यों को भी । (किन्तु) सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पाँच वर्णों वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है । जैसे किकाले, नीले, लाल, पीले और शुक्ल । भगवन् ! वर्ण से जिन काल द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण काले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? अथवा यावत् अनन्तगुण काले द्रव्यों को ? गौतम ! (वह) एकगुणकृष्ण यावत् अनन्तगुणकृष्ण को भी ग्रहण करता है । इसी प्रकार शुक्ल वर्ण तक कहना । भावतः जिन गन्धवान् भाषा-द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) एक गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? या दो गन्ध वाले को ? गौतम ! द्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक गन्धवाले भी ग्रहण करता है, तथा दो गन्धवाले भी, (किन्तु) सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः दो गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है । गन्ध से सुगन्ध वाले जिन द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण सुगन्ध वाले ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले ? गौतम ! (वह) एकगुण सुगन्ध वाले भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले भी । इसी तरह दुर्गन्ध के विषय में जानना।
भावतः रसवाले जिन भाषा-द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह एक रस वाले ग्रहण करता है, यावत् पाँच रस वाले ? गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से एक रस वाले, यावत् पाँच रसवाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है; किन्तु सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पाँच रस वाले को ग्रहण करता है । रस से तिक्त रस वाले जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या उन एकगुण तिक्तरसवाले को ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण तिक्तरसवाले ? गौतम ! एकगुण तिक्तरसवाले भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण तिक्तरसवाले भी । इसी प्रकार यावत् मधुर रस वाले भाषाद्रव्यों में कहना । भावतः जिन स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, (तो) क्या (वह) एक स्पर्शवाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् आठ स्पर्शवाले ? गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से एक स्पर्शवाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, दो यावत् चार स्पर्शवाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु पाँच यावत् आठ स्पर्शवाले को ग्रहण नहीं करता । सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः चार स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है; शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । स्पर्श से जिन शीतस्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण शीतस्पर्श वाले ग्रहण करता है, यावत् अनन्त-गुण ? गौतम ! (वह) एकगुण शीतद्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण भी । इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शवाले में जानना।
भगवन् ! जिन एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्पृष्ट द्रव्यों को ? गौतम ! (वह) स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को ही ग्रहण करता है। भगवन ! जिन स्पृष्ट द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा 3 द्रव्यों को ? गौतम ! वह अवगाढ़ द्रव्यों को ही ग्रहण करता है । भगवन् ! जिन अवगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा परम्परावगाढ़ द्रव्यों को? गौतम ! (वह) अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ही ग्रहण करता है । भगवन् ! जिन अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) अणुरूप द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा बादर द्रव्यों को? गौतम ! दोनों को । भगवन् ! जिन अणुद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या उन्हें ऊर्ध्व (दिशा में) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अधः दिशा में अथवा तिर्यक् दिशा में स्थित द्रव्यों को ? गौतम ! तीनों दिशा में से ग्रहण करता है । भगवन् ! (जीव) जिन (अणुद्रव्यों) को तीनों दिशा में से ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आदि में ग्रहण करता है, मध्य में अथवा अन्त में ? गौतम ! वह उन को तीनों में से ग्रहण करता है । जिन (भाषा) को जीव आदि, मध्य और अन्त में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्व-विषयक द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा अविषयक द्रव्यों को ? गौतम ! वह स्वविषयक द्रव्यों को ही ग्रहण करता है । भगवन् ! जिन स्वविषयक द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अथवा अनानुपूर्वी से ? गौतम ! उनको आनुपूर्वी से ही ग्रहण
। है । भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, क्या उन्हें तीन दिशाओं से ग्रहण करता है, यावत् छह दिशाओं से? गौतम ! नियमतः छह दिशाओं से ग्रहण करता है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-३९२
स्पृष्ट, अवगाढ़, अनन्तरावगाढ़, अणु, बादर, ऊर्ध्व, अधः, आदि स्वविषयक, आनुपूर्वी तथा नियम से छह दिशाओं से (भाषायोग्य द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है।) सूत्र-३९३
भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन्हें सान्तर ग्रहण करता है या निरन्तर ? गौतम ! दोनों । सान्तर ग्रहण करता हुआ जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः असंख्यात समय का अन्तर है और निरन्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय प्रतिसमय बिना विरह के ग्रहण करता है । भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है, क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर? गौतम ! सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं । सान्तर निकालता हुआ जीव एक समय में द्रव्यों को ग्रहण करता है और एक समय में निकालता है । इस ग्रहण और निःसरण से जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तमुहूर्त तक ग्रहण और निःसरण करता है।
भगवन् ! जीव भाषा के रूप में गृहीत जिन द्रव्यों को निकालता है, उन द्रव्यों को भिन्न निकालता है, अथवा अभिन्न ? गौतम ! भिन्न द्रव्यों को निकालता है, अभिन्न द्रव्यों को भी निकालता है। जिन भिन्न द्रव्यों के वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं तथा जिन अभिन्न द्रव्यों को निकालता है, वे द्रव्य असंख्यात अवगाहनवर्गणा तक जा कर भेद को प्राप्त हो जाते हैं । फिर संख्यात योजनों तक आगे जाकर विध्वंस होते हैं। सूत्र-३९४
भगवन् ! उन द्रव्यों के भेद कितने हैं ? गौतम ! पाँच-खण्डभेद, प्रतरभेद, चूर्णिकाभेद, अनुतटिकाभेद और उत्कटिका भेद ।
___ वह खण्डभेद किस प्रकार का होता है ? खण्डभेद (वह है), जो लोहे, रांगे, शीशे, चाँदी अथवा सोने के खण्डों का, खण्डक से भेद करने पर होता है । वह प्रतरभेद क्या है ? जो बांसों, बेंतों, नलों, केले के स्तम्भों, अभ्रक के पटलों का प्रतर से भेद करने पर होता है । वह चूर्णिकाभेद क्या है ? जो तिल, मूंग, उड़द, पिप्पली, कालीमिर्च के चूर्णिका से भेद करने पर होता है । वह अनतटिकाभेद क्या है ? जो कपों, तालाबों, हदों, नदियों, वावडियों, पुष्करिणियों, दीर्घिकाओं, गुंजालिकाओं, सरोवरों और नाली के द्वारा जल का संचार होनेवाले पंक्तिबद्ध सरोवरों के अनुतटिकारूप में भेद होता है । वह उत्कटिकाभेद कैसा है ? मूषों, मगूसों, तिल की फलियों, मूंग की फलियों, उड़द की फलियों अथवा एरण्ड के बीजों के फटने या फाड़ने से जो भेद होता है, वह उत्कटिकाभेद है।
भगवन् ! खण्डभेद से, प्रतरभेद से, चूर्णिकाभेद से, अनुतटिकाभेद से और उत्कटिकाभेद से भिदने वाले इन भाषाद्रव्यों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े भाषाद्रव्य उत्कटिका-भेद से, उनसे अनन्तगुणे अनुतटिकाभेद से, उनसे चूर्णिकाभेद से अनन्तगुणे हैं, उनसे अनन्तगुणे प्रतरभेद से और उनसे भी अनन्तगुणे अधिक खण्डभेद से भिन्न होनेवाले द्रव्य हैं। सूत्र - ३९५
भगवन् ! नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें स्थित (ग्रहण करता) है अथवा अस्थित ? गौतम ! (औधिक) जीव के समान नैरयिक में भी कहना । इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिकों तक कहना । जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या (वे) उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, अथवा अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! (वे स्थित भाषाद्रव्यों को ग्रहण करते हैं ।) जिस प्रकार एकत्व-एकवचनरूप में कथन किया गया था, उसी प्रकार पृथक्त्व रूप में वैमानिक तक समझना। सूत्र-३९६
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्थितिद्रव्यों को ग्रहण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ? गौतम ! औधिक जीव के समान कहना । विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों के विषय में पृच्छा नहीं करना । जैसे सत्यभाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहा है, वैसे ही मृषा तथा सत्यामृषाभाषा में भी कहना । असत्यामृषाभाषा में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह है कि असत्यामृषाभाषा के ग्रहण में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करना-भगवन् ! विकलेन्द्रिय जीव जिन द्रव्यों को असत्यामृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ? गौतम ! औधिक दण्डक के समान समझना । इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व के ये दस दण्डक कहना ।
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उनका वह सत्यभाषा, मृषाभाषा, सत्यामृषाभाषा अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? गौतम ! वह केवल सत्यभाषा के रूप में निकालता है । इसी प्रकार वैमानिक तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर कहना । भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें वह सत्यभाषा के रूप में अथवा यावत् असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? गौतम ! केवल मृषाभाषा के रूप में ही निकालता है। इसी प्रकार सत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों में भी समझना । असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों में भी इसी प्रकार समझना । विशेषता यह कि असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों के विषय में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करना । जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है, उसी भाषा के रूप में ही द्रव्यों को निकालता है । इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व के ये आठ दण्डक कहने चाहिए। सूत्र-३९७
भगवन् ! वचन कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! सोलह प्रकार के । एकवचन, द्विवचन, स्त्रीवचन, पुरुषवचन, नपुंसकवचन, अध्यात्मवचन, उपनीतवचन, अपनीतवचन, उपनीतापनीतवचन, अपनीतोपनीतवचन, अतीतवचन, प्रत्युत्पन्नवचन, अनागतवचन, प्रत्यक्षवचन और परोक्षवचन । इस प्रकार एकवचन (से लेकर) परोक्षवचन (तक) बोलते हुए की क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। सूत्र-३९८
भगवन् ! भाषाजात कितने हैं ? गौतम ! चार । सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा । भगवन् ! इन चारों भाषा-प्रकारों को बोलता हुआ (जीव) आराधक होता है, अथवा विराधक ? गौतम ! उपयोगपूर्वक बोलने वाला आराधक होता है, विराधक नहीं । उससे पर जो असंयत, अविरत, पापकर्म का प्रपिघात और प्रत्याख्यान न करने वाला सत्यभाषा, मृषाभाषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा बोलता हुआ आराधक नहीं, विराधक है। सूत्र-३९९
भगवन् ! इन सत्यभाषक, मृषाभाषक, सत्यामृषाभाषक और असत्यामृषाभाषक तथा अभाषक जीवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव सत्यभाषक हैं, उनसे असंख्या-तगुणे सत्यामृषाभाषक हैं, उनसे मृषाभाषक असंख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातगुणे असत्यामृषाभाषक जीव हैं और उनसे अभाषक जीव अनन्तगुणे हैं।
पद-११-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-१२-शरीर सूत्र-४००
भगवन ! शरीर कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । भगवन् ! नैरयिकों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर । इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक समझना । पृथ्वीकायिकों के तीन शरीर हैं, औदारिक, तैजस एवं कार्मणशरीर । इसी प्रकार वायुकायिकों को छोड़कर चतुरिन्द्रियों तक जानना । वायुकायिकों में चार शरीर हैं, औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर । इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में समझना । मनुष्यों के पाँच शरीर हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के शरीरों नारकों की तरह कहना। सूत्र-४०१
__भगवन् ! औदारिक शरीर कितने हैं ? गौतम ! दो प्रकार के-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, काल से-वे असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से-अनन्तलोकप्रमाण हैं । द्रव्यतः-मुक्त
रेक शरीर अभवसिद्धिक जीवों से अनन्तगणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। भगवन ! वैक्रिय शरीर कितने हैं? गौतम ! दो प्रकार के-बद्ध और मुक्त, जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, कालतः वे असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणी-प्रमाण तथा प्रत्तर के असंख्यातवें भाग हैं । जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं | कालतः वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं; औदारिक शरीर के मुक्तों के समान वैक्रियशरीर के मुक्तों में भी कहना।
भगवन् ! आहारक शरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे कदाचित् होते हैं, कदाचित नहीं होते । यदि हों तो जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं । जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं । औदारिक शरीर के मुक्त के समान कहना । भगवन् ! तैजसशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो प्रकार के-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे अनन्त हैं, कालतः-अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः-अनन्तलोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः-सिद्धों से अनन्तगुणे तथा सर्वजीवों से अनन्तवें भाग कम हैं । जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं, कालत:-वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः-वे अनन्तलोकप्रमाण हैं । द्रव्यतः-(वे) समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं । इसी प्रकार कार्मणशरीर में भी कहना । सूत्र-४०२
भगवन् ! नैरयिकों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! दो, बद्ध और मुक्त । बद्ध औदारिकशरीर उनके नहीं होते । मुक्त औदारिकशरीर अनन्त होते हैं, (औधिक) औदारिक मुक्त शरीरों के समान (यहाँ-नारयिकों के मुक्त औदारिकशरीरों में) भी कहना चाहिए । भगवन् ! नैरयिकों के वैक्रियशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो, बद्ध और मुक्त। जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं । कालतः-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः-असंख्यात श्रेणी-प्रमाण हैं । (श्रेणी) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल की दूसरे वर्गमूल से गुणित (करने पर निष्पन्न राशि जितनी) होती है अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घन-प्रमाणमात्र श्रेणियों जितनी है तथा जो मुक्त वैक्रियशरीर हैं, उनके परिमाण के विषय में (नारकों के) मुक्त औदारिक शरीर के समान कहना । नैरयिकों के आहारकशरीर दो प्रकार के हैं । बद्ध और मुक्त । (नारकों के) औदारिक बद्ध और मुक्त के समान आहारकशरीरों के विषय में कहना । (नारकों के) तैजस-कार्मण शरीर उन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान कहना। सूत्र-४०३
भगवन् ! असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! नैरयिकों के औदारिकशरीरों के समान इनके विषय में भी कहना । भगवन् ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में वे अपहृत होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों (जितने) हैं । (वे श्रेणियाँ) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग (प्रमाण हैं ।) उन श्रेणियों की
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) हैं । जो मुक्त शरीर हैं, उनके विषय में मुक्त
औदारिक शरीरों के समान कहना । (इनके) (बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिकशरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए । तैजस और कार्मण शरीरों के वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना। स्तनितकुमारों तक शरीरों को भी इसी प्रकार कहना । सूत्र-४०४
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात काल से-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से वे असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं | कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः अनन्तलोकप्रमाण हैं | (द्रव्यतः वे) अभव्यों से अनन्तगुणे हैं, सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं । पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे उनको नहीं होते । जो मुक्त हैं, वे उनके औदारिकशरीरों के समान कहना । उनके आहारकशरीरों को उनके वैक्रियशरीरों के समान समझना । तैजस-कार्मणशरीरों का उन्हीं के औदारिकशरीरों के समान समझना । इसी प्रकार अप्कायिकों और तेजस्कायिकों को भी जानना।
भगवन् ! वायुकायिक जीवों के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । इन औदारिक-शरीरों को पृथ्वीकायिकों के अनुसार समझना । वायुकायिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं । (कालतः) यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में उनका पूर्णतः अपहरण होता है। किन्तु कभी अपहरण किया नहीं गया है (उनके) मुक्त शरीरों को पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों को पृथ्वीकायिकों की तरह कहना । वनस्पतिकायिकों की प्ररूपणा पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । विशेष यह है कि उनके तैजस और कार्मण शरीरों का निरूपण औधिक तैजस-कार्मण-शरीरों के समान करना।
भगवन ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिकशरीर हैं? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध औदारिक-शरीर हैं, वे असंख्यात हैं । कालतः-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः-असंख्यात श्रेणि-प्रमाण हैं । (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटाकोटी योजनप्रमाण है । (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्ग-मूल के समान होती है। द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है । काल की अपेक्षा से-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यात भाग प्रतिभाग से (अपहार होता है) । जो मुक्त
औदारिक शरीर हैं, वे औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के समान कहना । (उनके) वैक्रिय और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते । मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) औधिक के समान करना । तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में उन्हीं के औधिक औदारिकशरीरों के समान कहना । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के विषय में इसी प्रकार कहना । उनके वैक्रिय शरीरों में विशेषता है-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं, बद्ध और मुक्त । जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा असुरकुमारों के समान करना । विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग समझना । उनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार समझना।
भगवन् ! मनुष्य के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं । जघन्य पद में संख्यात होते हैं । संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं । अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्ग-प्रमाण हैं; अथवा छियानवै छेदन-कदायी राशि (जितनी संख्या है ।) उत्कृष्टपद में असंख्यात हैं । कालतः-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवस-र्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से-एक रूप जिनमें प्रक्षिप्त किया गया है, ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है, उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार की मार्गणा होती है-कालत:-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों से अपहार होता है ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र क्षेत्रतः-(वे) तीसरे वर्गमूल से गुणित अंगुल का प्रथम वर्गमूल (-प्रमाण हैं ।) उनमें जो मुक्त औदारिकशरीर हैं, उनके विषय में औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान है । मनुष्यों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे संख्यात हैं । समय-समय में अपहृत होते-होते संख्यातकाल में अपहृत होते हैं; किन्तु अपहृत नहीं किए गए हैं । जो मुक्त वैक्रियशरीर हैं, वे औधिक औदारिकशरीरों के समान है | आहारक-शरीरों की प्ररूपणा औधिक
के समान समझना । तैजस-कार्मणशरीरों का निरूपण उन्हीं के औदारिकशरीरों के समान समझना। वाणव्यन्तर देवों के औदारिक और आहारक शरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान जानना । इनके वैक्रियशरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान है । विशेषता यह है कि उन (असंख्यात) श्रेणियों की विष्कम्भसूची कहना । प्रतर के पूरण और अपहार में वह सूची संख्यात योजनशतवर्ग-प्रतिभाग है । (इनके) मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन औधिक औदारिकशरीरों की तरह समझना । इनके तैजस और कार्मण शरीरों को उनके ही वैक्रियशरीरों के समान समझना । ज्योतिष्क देवों की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझना) विशेषता यह कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण प्रतिभाग रूप प्रतर के पूरण और अपहार में समझना । वैमानिकों की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझना ।) विशेषता यह कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियाँ हैं । शेष पूर्ववत् जानना।
पद-१२-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१३-परिणाम सूत्र-४०५
भगवन ! परिणाम कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं-जीव-परिणाम और अजीव-परिणाम । सूत्र-४०६
भगवन् ! जीवपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! दस प्रकार का-गतिपरिणाम, इन्द्रियपरिणाम, कषायपरिणाम, लेश्यापरिणाम, योगपरिणाम, उपयोगपरिणाम, ज्ञानपरिणाम, दर्शनपरिणाम, चारित्रपरिणाम और वेदपरिणाम ।
सूत्र-४०७
भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का-निरयगतिपरिणाम, तिर्यग्गति-परिणाम, मनुष्यगतिपरिणाम और देवगतिपरिणाम । इन्द्रियपरिणाम पाँच प्रकार का है-श्रोत्रेन्द्रियपरिणाम, चक्षुरिन्द्रियपरिणाम, घ्राणेन्द्रियपरिणाम, जिह्वेन्द्रियपरिणाम और स्पर्शेन्द्रियपरिणाम | कषायपरिणाम चार प्रकार का हैक्रोधकषायपरिणाम, मानकषायपरिणाम, मायाकषायपरिणाम और लोभकषायपरिणाम । लेश्यापरिणाम छह प्रकार का है-कृष्णलेश्यापरिणाम, नीललेश्यापरिणाम, कापोतलेश्यापरिणाम, तेजोलश्यापरिणाम, पद्मलेश्या-परिणाम और शुक्ललेश्यापरिणाम । योगपरिणाम तीन प्रकार का है-मनोयोगपरिणाम, वचनयोगपरिणाम और काययोगपरिणाम । उपयोगपरिणाम दो प्रकार का है-साकारोपयोगपरिणाम और अनाकारोपयोगपरिणाम ।
ज्ञान-परिणाम पाँच प्रकार का है-आभिनिबोधिकज्ञानपरिणाम, श्रुतज्ञानपरिणाम, अवधिज्ञानपरिणाम, मनःपर्यवज्ञान-परिणाम, केवलज्ञानपरिणाम। अज्ञानपरिणाम तीन प्रकार का-मति-अज्ञानपरिणाम, श्रुतअज्ञानपरिणाम और विभंगज्ञानपीरणाम । भगवन् ! दर्शनपरिणाम ? तीन प्रकार का है-सम्यग्दर्शनपरिणाम, मिथ्यादर्शनपरिणाम और सम्यग्मिथ्यादर्शनपरिणाम । चारित्रपरिणाम पाँच प्रकार का है-सामायिकचारित्रपरिणाम, छेदोपस्थापनीयचारित्रपरिणाम, परिहारविशुद्धिचारित्रपरिणाम, सूक्ष्मसम्परायचारित्रपरिणाम और यथाख्यातचारित्रपरिणाम | वेदपरिणाम तीन प्रकार का है-स्त्रीवेदपरिणाम, पुरुषवेदपरिणाम और नपुंसकवेदपरिणाम ।
नैरयिक जीव गतिपरिणाम से नरकगतिक, इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय, कषायपरिणाम से क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, लेश्यापरिणाम से कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावान हैं; योगपरिणाम से वे मनोयोगी, वचन योगी और काययोगी हैं; उपयोगपरिणाम से साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वाले हैं; ज्ञानपरिणाम से आभिनि-बोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानी हैं; अज्ञानपरिणाम से मति, श्रुत और विभंगज्ञानी भी हैं; दर्शनपरिणाम से वे सम्यग-दृष्टि, मिथ्यादृष्टि हैं और सम्यमिथ्यादृष्टि भी हैं; चारित्रपरिणाम से अचारित्री हैं; वेदपरिणाम से नपुंसकवेदी हैं । असुरकुमारों को भी इसी प्रकार जानना । विशेषता यह कि वे देवगतिक हैं; कृष्ण तथा नील, कापोत एवं तेजो-लेश्यावाले भी होते हैं; वे स्त्रीवेदक और पुरुषवेदक भी हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना ।
___ पृथ्वीकायिकजीव गतिपरिणाम से तिर्यंचगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से एकेन्द्रिय हैं, शेष, नैरयिकों के समान समझना । विशेषता यह कि लेश्यापरिणाम से (ये) तेजोलेश्यावाले भी होते हैं । योगपरिणाम से काययोगी होते हैं, इनमें ज्ञानपरिणाम नहीं होता । अज्ञानपरिणाम से ये मति और श्रुत-अज्ञानी हैं; दर्शनपरिणाम से मिथ्यादृष्टि हैं, इसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों को (समझना ।) तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों इसी प्रकार है । विशेष यह है कि लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा नैरयिकों के समान कहना । द्वीन्द्रियजीव गतिपरिणाम से तिर्यंचगतिक हैं, इन्द्रिय परिणाम से द्वीन्द्रिय हैं। शेष नैरयिकों की तरह समझना । विशेषता यह कि (वे) वचनयोगी भी होते हैं, काययोगी भी, ज्ञानपरिणाम से आभिनिबोधिक ज्ञानी भी होते हैं और श्रुतज्ञानी भी; अज्ञानपरिणाम से मतिअज्ञानी भी होते हैं और श्रुत-अज्ञानी भी; दर्शनपरिणाम से सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी; इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक समझना । विशेष यह कि इन्द्रिय की वृद्धि कर लेना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव गतिपरिणाम से तिर्यंचगतिक हैं। शेष नैरयिकों के समान है । विशेष यह कि लेश्यापरिणाम से यावत् शुक्ललेश्यावाले भी होते हैं; चारित्रपरिणाम से वे
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अचारित्री और चारित्राचारित्री भी हैं; वेद परिणाम से वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक और नपुंसक-वेदक भी होते हैं।
मनुष्य, गतिपरिणाम से मनुष्यगतिक हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय भी; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी, यावत् अकषायी भी होते हैं; लेश्यापरिणाम से कृष्णलेश्या यावत् अलेश्यी भी हैं; योगपरिणाम से मनोयोगी यावत् अयोगी भी हैं; उपयोगपरिणाम से नैरयिकों के समान हैं; ज्ञानपरिणाम से आभिनिबोधिकज्ञानी से यावत् केवलज्ञानी तक भी होते हैं; अज्ञानपरिणाम से तीनों ही अज्ञानवाले हैं, दर्शनपरिणाम से तीनों ही दर्शन हैं; चारित्रपरिणाम से चारित्री, अचारित्री और चारित्राचारित्री भी होते हैं; वेदपरिणाम से (ये) स्त्रीवेदक यावत् अवेदक भी होते हैं । वाणव्यन्तर देव गतिपरिणाम से देवगतिक हैं, शेष असुरकुमारों की तरह समझना । इसी प्रकार ज्योतिष्कों के समस्त परिणामों में भी समझना । विशेष यह कि लेश्यापरिणाम से (वे सिर्फ) तेजोलेश्या वाले होते हैं। वैमानिकों को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि वे तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। सूत्र - ४०८
भगवन् ! अजीवपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम! दस प्रकार का-बन्धनपरिणाम, गतिपरिणाम, संस्थान परिणाम, भेदपरिणाम, वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम, रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम, अगुरुलघुपरिणाम और शब्दपरिणाम सूत्र-४०९
___ भगवन् ! बन्धनपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-स्निग्धबन्धनपरिणाम और रूक्षबन्धनपरिणाम । सूत्र-४१०
समस्निग्धता और समरूक्षता होने से बन्ध नहीं होता । विमात्रा वाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व के होने पर स्कन्धों का बन्ध होता है। सूत्र-४११
दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ स्निग्ध का तथा दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्ष का एवं स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है; किन्तु जघन्यगुण को छोड़कर, चाहे वह सम हो अथवा विषम हो । सूत्र -४१२
भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का-स्पृशद्गतिपरिणाम और अस्पृशद्गतिपरिणाम, अथवा दीर्घगतिपरिणा और ह्रस्वगतिपरिणाम | संस्थानपरिणाम पाँच प्रकार का है-परिमण्डलसंस्थान-परिणाम, यावत् आयतसंस्थानपरिणाम | भेदपरिणाम पाँच प्रकार का है-खण्डभेदपरिणाम, यावत् उत्कटिका भेदपरिणाम | वर्णपरिणाम पाँच प्रकार का है-कृष्णवर्णपरिणाम, यावत् शुक्ल वर्णपरिणाम | गन्धपरिणाम दो प्रकार का हैसुगन्धपरिणाम और दुर्गन्धपरिणाम । रसपरिणाम पाँच प्रकार का है-तिक्तरसपरिणाम, यावत् मधुर-रसपरिणाम | स्पर्शपरिणाम आठ प्रकार का है-कर्कश स्पर्शपरिणाम, यावत् रूक्षस्पर्शपरिणाम । अगुरुलघुपरिणाम एक ही प्रकार का है। शब्दपरिणाम दो प्रकार का है-सुरभि शब्दपरिणाम और दुरभि शब्दपरिणाम ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१४-कषाय सूत्र-४१३
भगवन् ! कषाय कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । भगवन् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ? गौतम ! चार-क्रोधकषाय यावत् लोभकषाय । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना । सूत्र-४१४
__ भगवन् ! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित है ? गौतम ! चार स्थानों पर-आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, उभय-प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । क्रोध की तरह मान, माया और लोभ में भी एकएक दण्डक कहना।
भगवन् ! कितने स्थानों से क्रोध की उत्पत्ति होती है ? चार-क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । इसी प्रकार मान, माया और लोभ में भी कहना । इसी प्रकार ये चार दण्डक होते
सूत्र-४१५
भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । इसी प्रकार मान से, माया से और लोभ की अपेक्षा से भी चार दण्डक होते हैं। सूत्र-४१६
भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का आभोगनिवर्तित, अनाभोगनिवर्तित, उप-शान्त और अनुपशान्त । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । क्रोध के समान ही मान, माया और लोभ के विषय में जानना सूत्र-४१७
भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया ? गौतम ! चार कारणों से-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं ? गौतम ! चार कारणों से-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करेंगे? गौतम ! चार कारणों से-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन और निर्जरा के विषय में तीनों प्रश्न समझना । सूत्र-४१८
आत्मप्रतिष्ठित, क्षेत्र की अपेक्षा से, अनन्तानुबन्धी, आभोग, अष्ट कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा यह पद सहित सूत्र कथन हुआ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१५-इन्द्रिय
उद्देशक-१ सूत्र-४१९
संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, कति-प्रदेश, अवगाढ़, अल्पबहुत्व, स्पृष्ट, प्रविष्ट, विषय, अनागार, आहार । तथासूत्र-४२०
___ आदर्श, असि, मणि, उदपान, तैल, फाणित, वसा, कम्बल, स्थूणा, थिग्गल, द्वीप, उदधि, लोक और अलोक ये चौबीस द्वार इस उद्देशक में हैं। सूत्र-४२१
भगवन ! इन्द्रियाँ कितनी हैं? गौतम ! पाँच-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिहेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय किस आकार की है ? कदम्बपुष्प के आकार की । चक्षुरिन्द्रिय मसूर-चन्द्र के आकार की है। घ्राणेन्द्रिय अतिमुक्तकपुष्प आकार की । जिह्वेन्द्रिय खुरपे आकार की है। स्पर्शेन्द्रिय नाना प्रकार के आकार की है
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का बाहल्य कितना है ? गौतम ! अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण । इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय तक समझना । भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितनी पृथु है ? गौतम ! अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण । इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय में जानना । जिह्वेन्द्रिय अंगुल-पृथक्त्व विशाल है । भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय के पृथुत्व (विस्तार) के विषय में पृच्छा (का समाधान क्या है ?) स्पर्शेन्द्रिय शरीरप्रमाण पृथु है।
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेशवाली है ? गौतम ! अनन्त-प्रदेशी । इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय तक कहना । सूत्र-४२२
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ़ है ? गौतम ! असंख्यात प्रदेशों में । इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय तक कहना । भगवन् ! इन पाँचों इन्द्रियों से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! अवगाहना से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय असंख्यात-गुणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय संख्यातगुणी है । प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय असंख्यातगुणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय संख्यातगुणी है । अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, अवगाहना से श्रोत्रेन्द्रिय संख्यात गुणी है, घ्राणेन्द्रिय अवगाहना से संख्यातगुणी है, जिह्वेन्द्रिय अवगाहना से असंख्यागुणी है, स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना से संख्यातगुणी है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से चक्षुरिन्द्रिय प्रदेशार्थता से अनन्तगुणी है, श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेशों से संख्यातगुणी है, घ्राणेन्द्रिय प्रदेशों से संख्यातगुणी है, जिह्वेन्द्रिय प्रदेशों से असंख्यातगुणी है, स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों से संख्यातगुणी है।
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण कितने हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय तक कहना । भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के मृदु और लघु गुण कितने हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) स्पर्शनेन्द्रिय तक के मृदु-लघु गुण के विषय में कहना चाहिए।
___ भगवन् ! इन पाँचो इन्द्रियों के कर्कश-गुरु-गुणों और मृदु-लघु-गुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, उनसे) घाणेन्द्रिय के अनन्तगणे हैं. (उनसे) जिहेन्द्रिय के अनन्तगणे हैं (और उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के अनन्तगणे हैं। मृदु-लघु गुणों में सबसे थोड़े स्पर्शनेन्द्रिय हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) चक्षुरिन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं । कर्कश-गुरुगुणों और मृदु-लघुगुणों में से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के अनन्त-गुणे हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) स्पर्शेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं । स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र के अनन्तगुणे हैं, (और उनसे) चक्षुरिन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं। सूत्र-४२३
भगवन् ! नैरयिकों के कितनी इन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! पाँच-श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय तक । भगवन् ! नारकों की श्रोत्रेन्द्रिय किस आकार की होती है ? गौतम ! कदम्बपुष्प के आकार की । इसी प्रकार समुच्चय जीवों में पंचेन्द्रियों के समान नारकों की भी वक्तव्यता कहना । विशेष यह कि नैरयिकों की स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की है, यथाभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । वे दोनों हुण्डकसंस्थान की है।
भगवन् ! असुरकुमारों के कितनी इन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! पाँच, समुच्चय जीवों के समान असुरकुमारों की इन्द्रियसम्बन्धी वक्तव्यता कहना । विशेष यह कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की है, यथा-भवधारणीय समचतुरस्रसंस्थान वाली है और उत्तरवैक्रिय नाना संस्थान वाली होती है। इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी इन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! एक स्पर्शनेन्द्रिय (ही) है । भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय किस आकार की है ? गौतम ! मसूर-चन्द्र के आकार की है । पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय का बाहल्य अंगुल से असंख्यातवें भाग है । उनका पृथुत्व उनके शरीरप्रमाणमात्र है । पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय अनन्तप्रदेशी है । और वे असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ है।
भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय, अवगाहना की अपेक्षा और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा सबसे कम है, प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी (अधिक) है । भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण कितने
नन्त । इसी प्रकार मद-लघगणों के विषय में भी समझना । भगवन ! इन पथ्वी-कायिकों की
के कर्कश-गरुगणों और मदलघगणों में से कौन, किससे अल्प, बहत, तल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! कर्कश और गुरु गुण सबसे कम हैं, उनसे मृदु तथा लघु गुण अनन्तगुणे हैं । पृथ्वी-कायिकों के समान अप्कायिकों से वनस्पतिकायिकों तक समझ लेना, किन्तु इनके संस्थान में विशेषता है-अप्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय बिन्दु के आकार की है, तेजस्कायिकों की सूचीकलाप के आकार की, वायुकायिकों की पताका आकार की तथा वनस्पतिकायिकों का आकार नाना प्रकार का है।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितनी इन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! दो, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय । दोनों इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश और अवगाहना के विषय में औधिक के समान कहना । विशेषता यह कि स्पर्श-नेन्द्रिय हुण्डकसंस्थान वाली होती है । भगवन् ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों (दोनों) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! अवगाहना की अपेक्षा से-द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय सबसे कम है, (उससे) संख्यात गुणी स्पर्शनेन्द्रिय है । प्रदेशों से सबसे कम द्वीन्द्रिय की जिह्वेन्द्रिय है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय संख्यात गुणी है । अवगाहना
और प्रदेशों से-द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय अवगाहना से सबसे कम है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय संख्यातगुणी अधिक है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से जिह्वेन्द्रिय प्रदशों से अनन्तगुणी है । (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है । भगवन् ! द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय के कितने कर्कश-गुरुगुण हैं ? गौतम ! अनन्त । इसी प्रकार इनकी स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण और मृदु-लघुगुण भी समझना । भगवन् ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों तथा मृदु-लघुगुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे थोड़े द्वीन्द्रियों के जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण हैं, (उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं । (इन्द्रिय) के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं (और उनसे) जिह्वेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं।
इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय में कहना । विशेष यह है कि इन्द्रिय की परिवृद्धि करना । त्रीन्द्रिय जीवों की घ्राणेन्द्रिय थोड़ी होती है, चतुरिन्द्रिय जीवों की चक्षुरिन्द्रिय थोड़ी होती है । पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों के इन्द्रियों के संस्थानादि नारकों की इन्द्रिय-संस्थानादि के समान समझना । विशेषता यह कि उनकी स्पर्शनेन्द्रिय छह प्रकार के
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पद/उद्देश /सूत्र संस्थानो वाली है । समयचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्जक, वामन और हुण्डक । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को असुरकुमारों के समान कहना । सूत्र -४२४
भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सूनती है या अस्पृष्ट शब्दों को ? गौतम ! स्पृष्ट शब्दों को सूनती है, अस्पृष्ट को नहीं । (चक्षुरिन्द्रिय) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती । (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं । इस प्रकार रसों के और स्पर्शों के विषय में भी समझना । विशेष यह कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करती है।
भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सूनती है या अप्रविष्ट शब्दों को ? गौतम ! प्रविष्ट शब्दों को सूनती है, अप्रविष्ट को नहीं । इसी प्रकार स्पृष्ट के समान प्रविष्ट के विषय में भी कहना । सूत्र-४२५
__ भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से आये अविच्छिन्न शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट शब्दों को सूनती है । भगवन् ! चक्षु-रिन्द्रिय का विषय कितना है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है । घ्राणेन्द्रिय का विषय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नौ योजनों से आए अविच्छिन्न पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट गन्धों को सूंघ लेती है । घ्राणेन्द्रिय के समान जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिमाण के सम्बन्ध में भी जानना । सूत्र-४२६
भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल हैं, क्या वे पुद् गल सूक्ष्म हैं ? क्या वे सर्वलोक को अवगाहन करके रहते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? कोई देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व यावत् लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता-देखता । हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य यावत् नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म हैं । वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं ।
भगवन् ! क्या नारक उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका) आहार करते हैं अथवा नहीं जानते - देखते और नहीं आहार करते ? गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार करते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से पंचेन्द्रियतिर्यंचों तक कहना । भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानतेदेखते हैं और आहरण करते हैं ? अथवा नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते हैं ? गौतम ! कोई -कोई मनुष्य जानते-देखते हैं और आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और आहरण करते हैं । क्योंकि-मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । संज्ञीभूत दो प्रकार के हैं-उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं । वाण-व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता नैरयिकों के समान जानना।
भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं ? गौतम ! मनुष्यों के समान वैमानिकों की वक्तव्यता समझना । विशेष यह कि वैमानिक दो प्रकार के हैं-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं | जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक | जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के
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पद/उद्देश /सूत्र हैं-उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। सूत्र-४२७
भगवन् ! दर्पण देखता हुआ मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको देखता है ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ? गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु प्रतिबिम्ब देखता है। इसी प्रकार असि, मणि, उदपान, तेल, फाणित और वसा के विषय में समझना । सूत्र-४२८
भगवन् ! कम्बलरूप शाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है ? हाँ, गौतम ! रहता है। भगवन् ! स्थूणा ऊपर उठी हई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? हाँ, गौतम ! रहती है।
भगवन् ! आकाशथिग्गल अर्थात् लोक किस से स्पृष्ट है ?, कितने कार्यों से स्पृष्ट है ? इत्यादि प्रश्नो-गौतम! लोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है; इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जानना । आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है ।
जम्बूद्वीप धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है । इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है, पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं है; अद्धा-समय से स्पृष्ट है।
इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और बाह्य पुष्करार्द्ध में इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि बाह्य पुष्करार्ध से लेकर आगे के समुद्र एवं द्वीप अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं है । स्वयम्भूरमण-समुद्र तक इसी प्रकार है। सूत्र - ४२९-४३१
जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, पुष्करद्वीप, वरुणद्वीप, क्षीरवर, घृतवर, क्षोद, नन्दीश्वर, अरुणवर, कुण्डलवर, रुचक । आभरण, वस्त्र, गन्ध, उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधि, रत्न, वर्षधर, द्रह, नदियाँ, विजय, वक्षस्कार, कल्प, इन्द्र । कुरु, मन्दर, आवास, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, नाग, यक्ष, भूत और स्वयम्भूरमण समुद्र यह क्रम है। सूत्र-४३२
इस प्रकार बाह्यपुष्करार्द्ध के समान स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) 'अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं होता' | भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? इत्यादि समस्त वक्तव्यता लोक (आकाश थिग्गल) के समान जानना । अलोक धर्मास्तिकाय से यावत् आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है; (वह) आकाशास्तिकाय के देश तथा प्रदेशों से स्पृष्ट हैं; (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पृष्ट नहीं है, यावत् अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं है | अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त हैं, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है।
पद-१५ उद्देशक-२ सूत्र-४३३,४३४
इन्द्रियोपचय, निर्वर्तना, निर्वर्तना के असंख्यात समय, लब्धि, उपयोगकाल, अल्पबहत्वमें विशेषाधिक उपयोग काल, अवग्रह, अवाय, ईहा, व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, अतीतबद्धपुरस्कृत द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय यह १२ द्वार हैं। सूत्र-४३५
भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, श्रोत्रेन्द्रियोपचय, चारिन्द्रियोपचय, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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पद/उद्देश /सूत्र घ्राणेन्द्रियोपचय, जिह्वेन्द्रियोपचय और स्पर्शनेन्द्रियोपचय । भगवन् ! नैरयिकों के इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का है? गौतम ! पाँच प्रकार का, श्रोत्रेन्द्रियोपचय यावत् स्पर्शनेन्द्रियोपचय । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के इन्द्रियो-पचय के विषय में कहना । जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, उसके उतने ही प्रकार का इन्द्रियोपचय कहना चाहिए।
भगवन् ! इन्द्रियनिवर्त्तना कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की, श्रोत्रेन्द्रियनिवर्त्तना यावत् स्पर्शनेन्द्रियनिर्वर्त्तना । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, उसकी उतनी ही इन्द्रियनिवर्त्तना कहना । भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्तना कितने समय की है ? गौतम ! असंख्यात समयों के अन्तमुहर्त की है । इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रियनिर्वर्तना-काल तक कहना । इसी प्रकार नैरयिकों यावत् वैमानिकों की इन्द्रियनिर्वर्तना के काल में कहना।
भगवन् ! इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की-श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शनेन्द्रियलब्धि । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ही इन्द्रियलब्धि कहनी चाहिए । इन्द्रियों का उपयोगकाल पाँच प्रकार का है, श्रोत्रेन्द्रिय-उपयोगकाल यावत् स्पर्शने-न्द्रियउपयोगकाल । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक समझना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने ही इन्द्रियोपयोगकाल कहने चाहिए।
भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के जघन्य उपयोगाद्धा, उत्कृष्ट उपयोगाद्धा और जघन्योत्कृष्ट उपयोगाद्धा में कौन, किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! जघन्य उपयोगाद्धा चक्षुरिन्द्रिय का सबसे कम है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे घ्राणेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे जिह्वेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे स्पर्शेन्द्रिय का विशेषाधिक है । उत्कृष्ट उपयोगाद्धा में चक्षुरिन्द्रिय का सबसे कम है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे घ्राणेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे जिह्वेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे स्पर्शेन्द्रिय का विशेषाधिक है । जघन्योत्कृष्ट उपयोगाद्धा से सबसे कम चक्षु-रिन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे घ्राणेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे जिह्वेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे स्पर्शेन्द्रिय का विशेषाधिक है, स्पर्शेन्द्रिय के जघन्य उपयोगाद्धा से चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, उससे घ्राणेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे जिह्वेन्द्रिय का विशेषाधिक है, उससे स्पर्शेन्द्रिय का विशेषाधिक है।
भगवन ! इन्द्रिय-अवग्रहण कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, श्रोत्रेन्द्रिय-अवग्रहण यावत स्पर्शेन्द्रिय-अवग्रहण । इसी प्रकार नारकों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने अवग्रहण समझना। सूत्र-४३६
भगवन् ! इन्द्रिय-अवाय कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, श्रोत्रेन्द्रिय अवाय यावत् स्पर्शेन्द्रिय अवाय । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने
कहना । भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की-श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा यावत् स्पर्शेन्द्रिय-ईहा। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ईहा कहना।।
भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का है ? अवग्रह दो प्रकार का है, अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । भगवन् ! व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का है, श्रोत्रेन्द्रियावग्रह, घ्राणेन्द्रियावग्रह, जिह्वेन्द्रियावग्रह और स्पर्शेन्द्रियावग्रह | भगवन् ! अर्थावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? अर्थावग्रह छह प्रकार का है, श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह यावत् स्पर्शेन्द्रिय-अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय अर्थावग्रह ।
भगवन् ! नैरयिकों के कितने अवग्रह हैं ? गौतम ! दो-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक कहना । पृथ्वीकायिकों के दो अवग्रह हैं । अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । पृथ्वी-कायिकों को एक स्पर्शेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह ही है । पृथ्वीकायिकों को एक स्पर्शेन्द्रिय-अर्थावग्रह ही है । इसी प्रकार वनस्पति
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पद/उद्देश/सूत्र कायिक तक कहना । इसी प्रकार द्वीन्द्रियों के अवग्रह में समझना । विशेष यह कि द्वीन्द्रियों के व्यंजनावग्रह तथा अर्थावग्रह दो प्रकार के हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में भी समझना । विशेष यह है कि इन्द्रिय की परिवृद्धि होने से एक-एक व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह की भी वृद्धि कहना । चतुरिन्द्रिय जीवों के व्यञ्जनावग्रह तीन प्रकार के, अर्थावग्रह चार प्रकार के हैं । वैमानिकों तक शेष समस्त जीवों के अवग्रह नैरयिकों समान समझना। सूत्र-४३७
भगवन् ! इन्द्रियाँ कितने प्रकार की कही हैं ? गौतम ! दो प्रकार की, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियाँ आठ प्रकार की हैं-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन । नैरयिकों को ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक समझना । पृथ्वीकायिकों को एक स्पर्शनेन्द्रिय है । वनस्पतिकायिकों तक इसी प्रकार कहना । द्वीन्द्रिय को दो द्रव्येन्द्रियाँ हैं, स्पर्शनेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय । त्रीन्द्रिय के चार द्रव्येन्द्रियाँ हैं, दो घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन | चतुरिन्द्रिय जीवों के छह द्रव्येन्द्रियाँ हैं, दो नेत्र, दो घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन | शेष सबके नैरयिकों की तरह आठ द्रव्येन्द्रियाँ कहना ।
भगवन् ! एक-एक नैरयिक की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त । कितनी बद्ध हैं ? गौतम ! आठ । एक-एक नैरयिक की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ हैं, सोलह हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं । एकएक असुरकुमार के अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ आठ हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) आठ हैं, नौ हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं । स्तनितकुमार तक इसी प्रकार कहना । पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक में भी इसी प्रकार कहना । विशेषतः इनकी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ एक मात्र स्पर्शनेन्द्रिय है। तेजस्का-यिक
और वायुकायिक मैं भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि इनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नौ या दस होती हैं । द्वीन्द्रियों में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि इनकी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ दो हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय में समझना । विशेष यह कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ ४ हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय में भी जानना । विशेष यह कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ छ हैं।
पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में असुरकुमार के समान समझना । विशेष यह कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी मनुष्य के होती हैं, किसी के नहीं होती । जिसके होती है, उसके आठ, नौ, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । सनत्कुमार यावत् अच्युत और ग्रैवेयक देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में नैरयिक के समान जानना । एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । विजयादि चारों में से प्रत्येक की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ आठ हैं । और पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) आठ, सोलह, चौबीस या संख्यात होती हैं । सर्वार्थसिद्ध देव की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त, बद्ध आठ और पुरस्कृत भी आठ होती हैं।
भगवन् ! (बहुत-से) नारकों की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? असंख्यात हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार यावत् (बहुत-से) ग्रैवेयक देवों में समझना । विशेष यह कि मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होती हैं । (बहुत-से)
वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं, बद्ध असंख्यात हैं (और) पुरस्कृत असंख्यात हैं । सर्वार्थसिद्ध देवों की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध संख्यात हैं (और) पुरस्कृत संख्यात हैं।
भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त हैं | बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं
। होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । एक-एक नैरयिक की असुरकुमार पर्याय में अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती है, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । इसी प्रकार एक-एक नैरयिक की यावत् स्तनितकुमारपर्याय में कहना । भगवन् ! एक-एक नैरयिक की पृथ्वीकायपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । पुरस्कृत किसी की होती हैं, किसी की नहीं
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र होती । जिसकी होती हैं, उसकी एक, दो, तीन या संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । इसी प्रकार एक-एक नारक की यावत् वनस्पतिकायपन में कहना ।
___ भगवन् ! एक-एक नैरयिक की द्वीन्द्रियपन में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! अनन्त । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती । जिसकी होती हैं, उसकी दो, चार, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रियपन में समझना । विशेष यह कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ चार, आठ या बारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियपन में जानना । विशेष यह कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ छह, बारह, अठारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याय में असुरकुमार समान कहना।
मनुष्यपर्याय में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । मनुष्यों को छोडकर शेष सबकी पुरस्कत द्रव्येन्द्रियाँ मनुष्यपन में किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, ऐसा नहीं कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म से लेकर ग्रैवेयक देव तक के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत इन्द्रियाँ किसी की हैं, किसी की नहीं हैं । जिसकी हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं है । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं । सर्वार्थसिद्ध-देवपन में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । नैरयिक के समान असुरकुमार के विषय में भी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक तक कहना । विशेष यह कि जिसकी स्वस्थान में जितनी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहना ।
भगवन् ! एक-एक मनुष्य की नैरयिकपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त हैं | बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! किसी की होती है, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याय में कहना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में से जिसकी जितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहना । भगवन् ! मनुष्य की मनुष्यपर्याय में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ आठ हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं ? वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और यावत् ग्रैवेयक देवत्व के रूप में नैरयिकत्व रूप में उक्त अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के समान समझना।
एक-एक मनुष्य की विजय यावत् अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती । जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं । एक-एक मनुष्य की सर्वार्थसिद्ध-देवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देव की तथारूप में अतीत, बद्ध और पुरस्कृत देवेन्द्रियों की वक्तव्यता नैरयिक के समान कहना । सौधर्मकल्प देव की भी नैरयिक के समान कहना । विशेष यह है कि सौधर्म देव की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, आठ या सोलह होती हैं । (सौधर्मदेव की) सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में द्रव्येन्द्रियों नैरयिक के समान समझना । ग्रैवेयकदेव तक यावत् सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र एक-एक विजय यावत् अपराजित देव की नैरयिक के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं है । इन चारों की प्रत्येक की, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकत्वरूप में द्रव्येन्द्रियों को इसी प्रकार समझना । (इन्हीं की प्रत्येक की) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह, या चौबीस होती हैं, अथवा संख्यात होती हैं । वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवत्व के रूप में द्रव्येन्द्रियों नैरयिकत्वरूप अनुसार कहना । सौधर्मदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस अथवा संख्यात होती हैं। यावत् ग्रैवेयकदेवत्व के रूप में इसी प्रकार समझना । विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूपमें अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं उसकी आठ होती हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ आठ हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसके आठ होती हैं।
भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! नहीं हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं | जिसकी होती हैं, वे आठ होती हैं । भगवन् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की नारकपन में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ अतीत हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्व को छोड़कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्वरूप में (एक-एक सर्वार्थ-सिद्धदेव की) वक्तव्यता समझना । विशेष यह है कि मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) आठ हैं । (एक-एक सर्वार्थसिद्ध देव की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्वरूप में अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) किसी की हैं और किसी की नहीं हैं। जिसकी होती हैं, वे आठ होती हैं। बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) आठ हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं।
भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की नारकत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं । भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की असुरकुमारत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? अनन्त हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं । (बहुत-से नारकों की) यावत् ग्रैवेयकदेवत्वरूप में द्रव्येन्द्रियाँ इसी प्रकार जानना । नैरयिकों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप के अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं । (नैरयिकों की) सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में द्रव्येन्द्रियाँ भी इसी प्रकार जानना । असुरकुमारों यावत् (बहुत-से) पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की सर्वार्थसिद्ध देवत्वरूप में प्ररूपणा इसी प्रकार करना । विशेष यह कि वनस्पतिकायिक की विजय यावत् सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । मनुष्यों और सर्वार्थसिद्धदेवों को छोड़कर सबकी स्वस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं, परस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । वनस्पति-कायिकों की स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं।
मनुष्यों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । मनुष्यों की यावत् ग्रैवेयकदेवत्वरूप में इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । मनुष्यों की विजय यावत् अपराजित-देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात हैं । बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध-देवत्वरूप में भी समझ लेना । (बहुत-से) वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान जानना । सौधर्मदेवों की अतीतादि की वक्तव्यता इसी प्रकार है । विशेष यह कि विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं, बद्ध नहीं हैं तथा पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं । (बहुत-से) यावत् ग्रैवेयकदेवों की द्रव्येन्द्रियाँ भी इसी प्रकार समझना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? गौतम ! अनन्त हैं | बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्कदेवत्वरूप में भी कहना । विशेष यह कि इनकी मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । बद्ध (द्रव्ये-न्द्रियाँ) नहीं हैं । पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं । (विजयादि चारों की) सौधर्मादि देवत्व से लेकर ग्रैवेयकदेवत्व के रूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता इसी प्रकार है । इनकी स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं । बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ भी असंख्यात हैं । (इन चारों देवों) की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत असंख्यात हैं।
भगवन ! सर्वार्थसिद्ध देवों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? गौतम ! अनन्त हैं । बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । मनुष्य को छोड़कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व तक के रूप में भी इसी प्रकार कहना । (इनकी) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कत संख्यात हैं। विजय यावत अपराजित देवत्व के रूप में इनकी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात हैं । बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । सर्वार्थ-सिद्ध देवों की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात हैं । पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं।
भगवन ! भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? गौतम ! पाँच -श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक । भगवन ! नैरयिकों की कितनी भावेन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! पाँच, श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक । इसी प्रकार जिसकी जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी वैमानिकों तक कहना । भगवन् ! एक-एक नैरयिक की कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! अनन्त हैं।
कितनी (भावेन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? पाँच हैं । पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? वे पाँच हैं, दस हैं, ग्यारह हैं, संख्यात हैं या असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों यावत् स्तनितकुमार की भावेन्द्रियों में कहना । विशेष यह है कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पाँच, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । इसी प्रकार पृथ्वीकाय से चतुरिन्द्रिय तक कहना । विशेष यह कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ छह, सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । पंचेन्द्रियतिर्यंच-योनिक यावत् ईशानदेव की अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में असुरकुमारों की भावेन्द्रियों की तरह कहना । विशेष यह कि मनुष्य की पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । सनत्कुमार से लेकर ग्रैवेयकदेव तक नैरयिकों के समान कहना । विजय यावत् अपराजित देव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पाँच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पाँच, दस, पन्द्रह या संख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धदेव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध और पुरस्कृत पाँच हैं।
भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की अतीत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? अनन्त हैं । बद्ध भावेन्द्रियाँ असंख्यात हैं। पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं । इसी प्रकार-द्रव्येन्द्रियों के बहुवचन के दण्डक समान भावेन्द्रियों में कहना । विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की बद्ध भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं । एक-एक नैरयिक की नैरयिकत्व के रूप में अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं । इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ पाँच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी पाँच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । इसी प्रकार असुर-कुमारत्व यावत् स्तनितकुमारत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों को कहना ।) विशेष यह कि इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ नहीं हैं। (एकएक नैरयिक की) पृथ्वीकायत्व से लेकर यावत् द्वीन्द्रियत्व के रूप में भावेन्द्रियों का द्रव्येन्द्रियों की तरह कहना । त्रीन्द्रियत्व के रूप में भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ तीन, छह, नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियत्व रूप में भी कहना । विशेष यह कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ चार, आठ, बारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं । इस प्रकार ये (द्रव्येन्द्रियों के विषय में कथित) ही चार गम यहाँ समझना । विशेष-तृतीय गम में जिसकी जितनी भावेन्द्रियाँ हों, उतनी पुरस्कृत भावेन्द्रियों में समझना । चतुर्थ गम में जिस प्रकार सर्वार्थसिद्ध की सर्वार्थसिद्धत्व के रूप में कितनी भावेन्द्रियाँ अतीत हैं ? नहीं हैं ।' बद्ध भावेन्द्रियाँ संख्यात हैं, पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ नहीं हैं, यहाँ तक कहना।
पद-१५-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-१६-प्रयोग सूत्र -४३८
भगवन् ! प्रयोग कितने प्रकार का है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार का-सत्यमनःप्रयोग, असत्य मनःप्रयोग, सत्य - मषा मनःप्रयोग, असत्या-मषा मनःप्रयोग इसी प्रकार वचनप्रयोग भी चार प्रकार का है-औदारिक शरीरकाय-प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, आहारकशरीरकाय-प्रयोग, आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और कार्मण शरीरकाय-प्रयोग । सूत्र - ४३९
___भगवन् ! जीवों के कितने प्रकार के प्रयोग हैं ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार के, सत्यमनःप्रयोग से (लेकर) कार्मणशरीरकाय-प्रयोग तक । भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार के प्रयोग हैं ? गौतम ! ग्यारह प्रकार के, सत्यमनःप्रयोग से लेकर असत्यामृषावचन-प्रयोग, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और कार्मणशरीरकायप्रयोग । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक समझना । भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने प्रयोग हैं ? गौतम ! तीन, औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और कार्मणशरीरकाय-प्रयोग। इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों तक समझना । विशेष यह कि वायुकायिकों के पाँच प्रकार के प्रयोग हैं, औदारिकशरीरकायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग और वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग तथा कार्मणशरीरकाय-प्रयोग।
भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने प्रकार के प्रयोग हैं ? गौतम ! चार, असत्यामृषावचन-प्रयोग, औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और कार्मणशरीरकाय-प्रयोग | इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक समझना । भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के कितने प्रकार के प्रयोग हैं ? गौतम ! तेरह, सत्यमनःप्रयोग यावत् असत्यामृषामनःप्रयोग इसी प्रकार वचनप्रयोग, औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और कार्मणशरीरकाय-प्रयोग । भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार के प्रयोग हैं ? गौतम ! पन्द्रह, सत्यमनःप्रयोग से लेकर कार्मणशरीरकाय-प्रयोग तक । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग के विषय में नैरयिकों के समान समझना। सूत्र-४४०
भगवन् ! जीव सत्यमनःप्रयोग होते हैं अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? गौतम ! जीव सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् मृषामनःप्रयोगी, सत्यामृषामनःप्रयोगी, आदि तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं, अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा एक आहारकमिश्रकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत-से जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं । ये चार भंग हुए।
(द्विकसंयोगी चार भंग)-अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी, अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी । वे समुच्चय जीवों के प्रयोग की अपेक्षा से आठ भंग हए । भगवन् ! नैरयिक ? गौतम ! नैरयिक सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी भी होते हैं, अथवा कोई एक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा कोई अनेक नैरयिक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों यावत् स्तनितकुमारों में कहना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी हैं, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी हैं अथवा कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी हैं? गौतम ! तीनों हैं । इसी प्रकार अप्कायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक कहना विशेष यह है कि वायुकायिक वैक्रियशरीरकाय-प्रयोगी भी हैं और वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी भी हैं। भगवन् !
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र द्वीन्द्रिय जीव ? गौतम ! सभी द्वीन्द्रिय जीव असत्यामषावचन-प्रयोग भी होते हैं, औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं । अथवा कोई एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, या बहुत-से (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । चतुरिन्द्रियों तक इसी प्रकार समझना । पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों को नैरयिकों के समान कहना । विशेष यह कि यह औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है तथा औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होता है । अथवा कोई पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं।
भगवन् ! मनुष्य संबंधी प्रश्न-गौतम ! मनुष्य सत्यमनःप्रयोगी यावत् औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं, और वैक्रियशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं । अथवा कोई एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा कोई एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा कोई एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा कोई एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । (इस प्रकार) एक-एक के (संयोग से) आठ भंग होते हैं।
अथवा कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । इस प्रकार ये चार भंग हैं । अथवा एक औदारिक-मिश्र० और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अथवा एक औदारिकमिश्र० और अनेक आहारकमिश्रशरीर-काय-प्रयोगी हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्र० और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक औदारिकमिश्र० और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । ये (द्विकसंयोगी) चार भंग हैं।
अथवा कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्र० और (एक) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा एक औदारिकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक औदारिकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । ये चार भंग हैं । अथवा एक आहारक० और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा एक आहारक अनेक आहारकमिश्र-शरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक आहारक० और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक आहारक० और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । ये चार भंग हैं । इसी प्रकार आहारक और कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी की एक चतुर्भंगी होती है। इसी प्रकार आहारकमिश्र और कार्मणशरीरकायप्रयोगी की एक चतुर्भंगी होती है । इस प्रकार (द्विकसंयोगी कुल) चौबीस भंग हुए।
अथवा एक औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीर-कायप्रयोगी होता है, अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र ये आठ भंग हैं । इसी प्रकार औदारिकमिश्र, आहारक और कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी के आठ भंग समझ लेना। इसी प्रकार औदारिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणशरीरकाय-प्रयोग से लेकर आठ भंग कर लेना । इसी प्रकार आहारक, आहारकमिश्र और कार्मणशरीरकाय-प्रयोग को लेकर आठ भंग कर लेना । इस प्रकार त्रिकसंयोग के ये सब मिलकर कुल बत्तीस भंग जान लेने चाहिए।
अथवा एक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा एक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा एक औदारिकमिश्र०, एक आहारक० अनेक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा एक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा एक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा एक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा एक औदारिकमिश्र० अनेक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा एक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, एक औदारिकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीर-काय-प्रयोगी होते हैं; अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और एक कार्मण-शरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, एक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्र० अनेक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, एक आहारकमिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, अनेक आहारकमिश्र० और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; अथवा अनेक औदारिकमिश्र०, अनेक आहारक०, अनेक आहारक-मिश्र० और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । इस प्रकार चतुःसंयोगी ये सोलह भंग होते हैं तथा ये सभी असंयोगी ८, द्विकसंयोगी २४, त्रिकसंयोगी ३२ और चतुःसंयोगी १६ मिलकर अस्सी भंग होते हैं।
वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग असुरकुमारों के प्रयोग के समान समझना । सूत्र-४४१
भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच-प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपात-गति और विहायोगति ।
वह प्रयोगगति क्या है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति । प्रयोग के समान प्रयोगगति भी कहना । भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की है, वे पूर्ववत् जानना । भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की प्रयोगगति है ? गौतम ! ग्यारह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति इत्यादि । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त जिसको जितने प्रकार की गति है, उसकी उतने प्रकार की गति कहना | भगवन् ! जीव क्या सत्यमनःप्रयोगगति वाले हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकाय-प्रयोगगतिक हैं ? गौतम! जीव सभी प्रकार की गतिवाले होते हैं । उसी प्रकार वैमानिकों तक कहना।
वह ततगति किस प्रकार की है? ततगति वह है, जिसके द्वारा जिस ग्राम यावत सन्निवेश के लिए प्रस्थान किया हुआ व्यक्ति (अभी) पहुँचा नहीं, बीच मार्ग में ही है । वह बन्धनछेदनगति क्या है ? बन्धनछेदनगति वह है, जिसके द्वारा जीव शरीर से अथवा शरीर जीव से पृथक् होता है । उपपातगति कितने प्रकार की है ? तीन प्रकार कीक्षेत्रोपपातगति, भवोपपातगति और नोभवोपपातगति ।
क्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? पाँच प्रकार की-नैरयिकक्षेत्रोपपातगति, तिर्यंचयोनिकक्षेत्रोपपात-गति, मनुष्यक्षेत्रोपपातगति, देवक्षेत्रोपपातगति और सिद्धक्षेत्रोपपातगति । नैरयिकक्षेत्रोपपातगति सात प्रकार की है -
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र रत्नप्रभापृथ्वी० यावत् अधस्तनसप्तमपृथ्वीनैरयिकक्षेत्रोपपातगति । तिर्यंचयोनिकक्षेत्रोपपातगति पाँच प्रकार की है, एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति । मनुष्यक्षेत्रोपपातगति दो प्रकार की है । सम्मूर्छिम० और गर्भज-मनुष्यक्षेत्रोपपातगति । देवक्षेत्रोपपातगति चार प्रकार की है, भवनपति० यावत् वैमानिक देव क्षेत्रो-पपातगति । सिद्धक्षेत्रोपपातगति अनेक प्रकार की है, जम्बूद्वीप में, भरत और ऐरवत क्षेत्र में सब दिशाओं में, सब विदिशाओं में, क्षुद्र हिमवान् और शिखरी वर्षधरपर्वत में, हैमवत और हैरण्यवत वर्ष में, शब्दापाती और विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत में, महाहिमवन्त और रुक्मी नामक वर्षधर पर्वतों में, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में, गन्धापाती और माल्यवन्त वृत्तवैताढ्यपर्वत में, निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत में, पूर्वविदेह और अपरविदेह में, देवकुरु और उत्तरकुरु में तथा मन्दरपर्वत में, इन सब की सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति हैं । लवण-समुद्र में, धातकीषण्डद्वीप में, कालोदसमुद्र में, पुष्करवरद्वीपादार्द्ध में इन सबकी सब दिशाओ-विदिशाओं में सिद्ध-क्षेत्रोपपातगति है।
भवोपपातगति कितने प्रकार की है ? चार प्रकार की, नैरयिक से देवभवोपपातगति पर्यन्त । नैरयिक भवोपपातगति सात प्रकार की है, इत्यादि सिद्धों को छोड़कर सब भेद कहना । क्षेत्रोपपातगति के समान भवोपपात-गति में कहना । नोभवोपपातगति किस प्रकार की है ? दो प्रकार की, पुदगल-नोभवोपपातगति और सिद्ध-नोभवोपपातगति । पुद्गल-नोभवोपपातगति क्या है ? जो पुद्गल परमाणु लोक के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त तक एक ही समय में चला जाता है, अथवा पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक, अथवा चरमान्त से उत्तरी या उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक तथा ऊपरी चरमान्त से नीचले एवं नीचले चरमान्त से ऊपरी चरमान्त तक एक समय में ही गति करता है; यह पुद्गल-नोभवोपपातगति कहलाती है । सिद्ध-नोभवोपपातगति दो प्रकार की है, अनन्तरसिद्ध० और परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति । अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति पन्द्रह प्रकार की है । तीर्थ-सिद्धअनन्तरसिद्ध० यावत् अनेकसिद्ध-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति । परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति अनेक प्रकार की है । अप्रथमसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति, एवं द्विसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति यावत् अन्तसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति
विहायोगति कितने प्रकार की है ? सत्तरह प्रकार की । स्पृशद्गति, अस्पृशद्गति, उपसम्पद्यमानगति, अनुपसम्पद्यमानगति, पुद्गलगति, मण्डूकगति, नौकागति, नयगति, छायागति, छायानुपापगति, लेश्यागति, लेश्यानुपातगति, उद्दिश्यप्रविभक्तगति, चतुःपुरुषप्रविभक्तगति, वक्रगति, पंकगति और बन्धनविमोचनगति । वह स्पृशद्-गति क्या है ? परमाणु पुद्गल की अथवा द्विप्रदेशी यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धो की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, वह स्पशदगति है । अस्पृशद्गति किसे कहते हैं ? पूर्वोक्त परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की परस्पर स्पर्श किये बिना ही जो गति होती है, वह अस्पृशद्गति है । उपसम्पद्यमानगति वह है, जिसमें व्यक्ति राजा, युवराज, ईश्वर, तलवार, माडम्बिक, इभ्य, सेठ, सेनापति या सार्थवाह को आश्रय करके गमन करता हो । इन्हीं पूर्वोक्त (राजा आदि) का परस्पर आश्रय न लेकर जो गति होती है, वह अनुपसम्पद्यमान गति है।
पुद्गलगति क्या है ? परमाणु पुद्गलों की यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की गति पुद्गलगति है । मेंढ़क जो उछल-उछल कर गति करता है, वह मण्डूकगति कहलाती है । जैसे नौका पूर्व वैताली से दक्षिण वैताली की ओर जलमार्ग से जाती है, अथवा दक्षिण वैताली से अपर वैताली की ओर जलपथ से जाती है, ऐसी गति नौकागति है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन सात नयों की जो प्रवृत्ति है, वह नयगति है । अश्व, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गन्धर्व, वृषभ, रथ और छत्र की छाया का आश्रय करके जो गमन होता है, वह
ति है । छाया पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती हैं, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है । कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शरूप में बार-बार जो परिणत होती हैं, इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर जो उसी के वर्ण यावत् स्पर्श रूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है । जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव) काल करता है, उसी लेश्यावाले में उत्पन्न होता है । जैसे-कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में । -यह लेश्यानुपातगति है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र उद्दिश्यप्रविभक्तगति क्या है ? आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि, गणधर अथवा गणावच्छेदक को लक्ष्य करके जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है । चतुःपुरुषप्रविभक्तगति किसे कहते हैं ? जैसे-१. किन्हीं चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ और एक ही साथ पहुँचे, २. एक साथ प्रस्थान हुआ, किन्तु एक साथ नहीं पहुँचे, ३. एक साथ प्रस्थान नहीं हुआ, किन्तु पहुँचे एक साथ, तथा ४. प्रस्थान एक साथ नहीं हुआ और एक साथ भी नहीं पहुँचे, यह चतुःपुरुषप्रविभक्तगति है । वक्रगति चार प्रकार की है । घट्टन से, स्तम्भन से, श्लेषण से और प्रपतन से । जैसे कोई पुरुष कादे में, कीचड़ में अथवा जल में (अपने) शरीर को दूसरे के साथ जोड़कर गमन करता
उसकी) यह (गति) पंकगति है । वह बन्धनविमोचनगति क्या है ? अत्यन्त पक कर तैयार हुए, अतएव बन्धन से विमक्त आमों, आम्रातकों, बिजौरों, बिल्वफलों, कवीठों, भद्र फलों, कटहलों, दाडिमों, पारेवत फल, अखरोटों, चोर
अथवा तिन्दकफलों की रुकावट न हो तो स्वभाव से ही जो अधोगति होती है, वह बन्धनविमोचनगति है।
पद-१६-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१७-लेश्या
उद्देशक-१ सूत्र-४४२
समाहार, सम-शरीर और सम उच्छवास, कर्म, वर्ण, लेश्या, समवेदना, समक्रिया तथा समायुष्क, यह सात द्वार इस उद्देशक में है। सूत्र -४४३
भगवन ! क्या सभी नारक समान आहार, समान शरीर तथा समान उच्छवास-निःश्वास वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-नारक दो प्रकार के हैं-महाशरीरवाले और अल्पशरीर वाले । जो महा-शरीर वाले होते हैं, वे बहुत अधिक पुद्गलों का-आहार करते हैं, परिणत करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं और से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं । वे बार-बार आहार करते हैं, परिणत करते हैं, उच्छ्व सन और निःश्वसन करते हैं । जो अल्पशरीरवाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् निःश्वास छोड़ते हैं । वे कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वसन करते हैं । इस हेतु से ऐसा कहा है कि नारक सभी समान आहारवाले यावत् समान निःश्वासवाले नहीं होते हैं सूत्र-४४४
भगवन् ! नैरयिक क्या सभी समान कर्मवाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-नारक दो प्रकार के हैं, पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अल्प कर्मवाले हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे महाकर्म वाले हैं।
भगवन ! क्या नैरयिक सभी समान वर्णवाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि-गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के हैं । पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अधिक विशुद्ध वर्णवाले होते हैं और जो पश्चादुपपन्नक होते हैं, वे अविशुद्ध वर्णवाले होते हैं । वर्णसमान लेश्या से भी नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध जानना
भगवन् ! सभी नारक क्या समान वेदनावाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के हैं, संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । जो संज्ञीभूत हैं, वे महान् वेदनावाले हैं और उनमें जो असंज्ञी-भूत हैं, वे अल्पतर वेदनावाले हैं। सूत्र-४४५
भगवन् ! सभी नारक समान क्रियावाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-गौतम ! नारक तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएं होती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया | जो मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि हैं, उनके नियत पाँच क्रियाएं होती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया ।
भगवन् ! क्या सभी नारक समान आयुष्यवाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । गौतम ! नैरयिक चार प्रकार के हैं, कईं नारक समान आयुवाले और समान उत्पत्तिवाले होते हैं, कईं समान आयुवाले, किन्तु विषम उत्पत्तिवाले होते हैं, कईं विषम आयुवाले और एक साथ उत्पत्तिवाले होते हैं तथा कईं विषम आयुवाले और विषम उत्पत्तिवाले होते हैं। सूत्र-४४६
भगवन् ! सभी असुरकुमार क्या समान आहार वाले हैं ? इत्यादि यह अर्थ समर्थ नहीं है । शेष कथन नैरयिकों के समान है। भगवन् ! सभी असुरकुमार समान कर्मवाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । क्योंकि-असुरकुमार दो प्रकार के हैं-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक | पूर्वोपपन्नक हैं, वे महाकर्मवाले हैं । पश्चादुपपन्नक हैं, वे अल्पतर कर्मवाले हैं । इसी प्रकार वर्ण और लेश्या के लिए प्रश्न-गौतम ! असुरकुमारों में जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अविशुद्धतर वर्णवाले हैं तथा जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे विशुद्धतर वर्णवाले हैं । इसी प्रकार लेश्या में कहना । (असुरकुमारों की) वेदना, क्रिया एवं आयु के विषय में नैरयिकों के समान कहना । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-४४७
___पृथ्वीकायिकों के आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में नैरयिकों के समान कहना | भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदनावाले होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । क्योंकि-सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं । वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते हैं । भगवन् ! सभी पृथ्वीकायिक समान क्रियावाले होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। क्योंकि-सभी पृथ्वीकायिक मायी-मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके नियत रूप से पाँचों क्रियाएं होती हैं । पृथ्वी-कायिकों के समान ही यावत् चतुरिन्द्रियों की वेदना और क्रिया कहना ।
पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों को नैरयिक जीवों के अनुसार समझना । विशेष यह कि क्रियाओं में विशेषता है। पंचेन्द्रियतिर्यंच तीन प्रकार के हैं सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं - असंयत और संयतासंयत । जो संयतासंयत हैं, उनको तीन क्रियाएं लगती हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । जो असंयत होते हैं, उनको चार क्रियाएं लगती हैं | आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया । जो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि हैं, उनको निश्चित रूप से पाँच क्रियाएं लगती हैं, वे इस प्रकार - आरम्भिकी, यावत मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सूत्र-४४८
भगवन् ! मनुष्य क्या सभी समान आहार वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-मनुष्य दो प्रकार के हैं । महाशरीरवाले और अल्प शरीरवाले । जो महाशरीरवाले हैं, वे बहत-से पुदगलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं । जो अल्पशरीरवाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अल्पतर पुदगलों का निःश्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं, यावत् बार-बार निःश्वास लेते हैं । शेष सब वर्णन नैरयिकों के अनुसार समझना । किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा विशेषता है । मनुष्य तीन प्रकार के हैं । सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के हैं-संयत, असंयत और संयतासंयत । जो संयत हैं, वे दो प्रकार के हैं-सरागसंयत और वीतरागसंयत जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय होते हैं । जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के हैं-प्रमत्त और अप्रमत्त । जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया होती है । जो प्रमत्तसंयत हैं, उनमें दो क्रियाएं होती हैं, आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । जो संयतासंयत हैं, उनमें तीन क्रियाएं हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और माया-प्रत्यया । जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएं हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया; जो मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग मिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पाँचों क्रियाएं होती हैं। सूत्र - ४४९
असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर देवों की (आहारादि संबंधी वक्तव्यता कहना ।) इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आहारादि में भी कहना । विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा वे दो प्रकार के हैं, मायी-मिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदनावाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदनावाले हैं। सूत्र-४५०
भगवन् ! सलेश्य सभी नारक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छवास-निःश्वासवाले हैं? सामान्य गम के समान सभी सलेश्य समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यावाले सभी नैरयिक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छ्वासनिःश्वासवाले होते हैं ? गौतम ! सामान्य नारकों के समान कृष्णलेश्यावाले नारकों का कथन भी समझना । विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा नैरयिक मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना । (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में समुच्चय असुर-कुमारादि के समान कहना । मनुष्यों में क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है । समुच्चय मनुष्यों के क्रियाविषयक कथन के समान
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कृष्णलेश्यायुक्त मनुष्यों का कथन करना । ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या को लेकर प्रश्न नहीं करना । इसी प्रकार कृष्णलेश्या वालों के समान नीललेश्यावालों को भी समझना । कापोतलेश्यावाले नैरयिकों से वाणव्यन्तरों तक का सप्तद्वारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना। विशेषता यह कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का वेदना के विषय में प्रतिपादन समुच्चय नारकों के समान जानना ।
भगवन् ! तेजोलेश्यावाले असुरकुमारों के समान आहारादि विषयक प्रश्न-गौतम ! समुच्चय असुरकुमारों का आहारादिविषयक कथन के समान तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों को समझना । विशेषता यह कि वेदना में ज्योतिष्कों समान कहना । (तेजोलेश्यावाले) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों का कथन औधिक के समान करना । विशेषता यह कि क्रियाओं की अपेक्षा से तेजोलेश्यावाले मनुष्यों में कहना कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सरागसंयत और वीतरागसंयत, (ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में) नहीं होते । तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन असुरकुमारों के समान समझना । इसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत कहना । शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना।
तेजोलेश्या वालों की तरह पद्मलेश्यावालों के लिए भी कहना । विशेष यह कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं में उसका कथन करना । शुक्ललेश्या वालों का आहारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार है, किन्तु उन्हीं जीवों में कहना, जिनमें वह होती है तथा जिस प्रकार औघिकों का गम कहा है, उसी प्रकार सब कथन करना। इतना विशेष है कि पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यंचों, मनुष्यों और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं।
पद-१७ उद्देशक-२ सूत्र-४५१
भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं? छह-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोपलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या , शुक्ललेश्या सूत्र-४५२
नैरयिकों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! तीन-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या । भगवन् ! तिर्यंचयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! छह, कृष्णा यावत् शुक्ललेश्या । एकेन्द्रिय जीवों में चार लेश्याएं होती हैं । कृष्णलेश्या से तेजोलेश्या तक । पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक में भी चार लेश्याएं हैं। तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में नैरयिकों के समान जानना ।
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल-लेश्या । सम्मूर्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक में नारकों के समान समझना । गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचों में छह लेश्याएं होती हैं-कृष्ण यावत् शुक्ललेश्या । गर्भज तिर्यंचयोनिक स्त्रियों में ये ही छह लेश्याएं होती हैं । मनुष्यों में छह लेश्याएं होती हैं । सम्मूर्छिम मनुष्यों में नारकों के समान जानना । गर्भज मनुष्यों एवं मानुषी स्त्री में छह लेश्याएं होती हैं।
भगवन् ! देवों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? छह । देवियों में चार लेश्याएं होती हैं-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या । इसी प्रकार भवनवासी और वाणव्यंतर देव-देवी में जानना । ज्योतिष्क देवों और देवी में एकमात्र तेजो-लेश्या होती है । वैमानिक देवों में तीन लेश्याएं हैं-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । वैमानिक देवियों में एकमात्र तेजोलेश्या होती है। सूत्र-४५३
भगवन् ! इन सलेश्य, कृष्णलेश्य यावत् शुक्ललेश्य और अलेश्य जीवों में कौन, किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव शुक्ललेश्या वाले हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, उनसे अलेश्य अनन्तगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे नील-लेश्या वाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं और सलेश्य उनसे भी विशेषाधिक हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-४५४
भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले नारकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े कृष्णलेश्यावाले नारक हैं, उनसे असंख्यातगुणे नीललेश्यावाले हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे कापोतलेश्या वाले हैं। सूत्र-४५५
भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या वाले तिर्यंचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम तिर्यंच शुक्ललेश्या वाले हैं इत्यादि औधिक जीवों के समान समझना । विशेषता यह कि तिर्यंचों में अलेश्य नहीं कहना । भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक के एकेन्द्रियों में ? गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं, उनसे अनन्तगुणे कापोतलेश्यावाले हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्यावाले विशेषाधिक हैं । भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक के पृथ्वीकायिकों में समुच्चय एकेन्द्रियों के समान अल्पबहुत्व कहना । विशेषता इतनी कि कापोतलेश्यावाले पृथ्वी-कायिक असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार कृष्णादिलेश्या वाले अप्कायिकों में अल्पबहुत्व जानना । कृष्ण यावत् कापोतलेश्यावाले तेजस्कायिकों में सबसे कम कापोतलेश्या वाले हैं, उनसे नीललेश्यावाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यावाले विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार वायुकायिकों को भी जानना । कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या वाले वनस्पतिकायिकों में औधिक एकेन्द्रिय के समान अल्पबहत्व समझना । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहत्व तेजस्कायिकों के समान हैं।
भगवन ! इन कृष्णलेश्या यावत शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! औधिक तिर्यंचों के समान पंचेन्द्रियतिर्यंचों का अल्पबहुत्व कहना । विशेषता यह कि कापोतलेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यंच असंख्यातगुणे हैं | सम्मूर्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों का अल्पबहत्व तेजस्कायिकों के समान समझना । गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचों एवं तिर्यंचस्त्रियों का अल्पबहत्व समुच्चय पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों के समान जानना । विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले संख्यातगुणे कहना।
भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वालों से लेकर शुक्ललेश्यायुक्त सम्मूर्छिमपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों और गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम शुक्ल-लेश्या वाले गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक हैं, उनसे पद्मलेश्यावाले संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्याविशिष्ट संख्यात-गुणे हैं, उनसे नीललेश्याविशिष्ट विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यायुक्त विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यावाले सम्मूर्छिमपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्ण-लेश्यावाले सम्मूर्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषाधिक हैं । कृष्णलेश्या वाली से लेकर शुक्ललेश्या वाले सम्मूर्छिम पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और तिर्यंचयोनिक स्त्रियों में पूर्ववत् अल्पबहुत्व जानना । भगवन् ! इन कृष्ण-लेश्यावालों से लेकर शुक्ललेश्यावाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और तिर्यंचस्त्रियों में ? गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्यी गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक हैं. उनसे संख्यातगणी शक्ललेश्यी गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचस्त्रियाँ हैं, उनसे पद्मलेश्यी गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्यी गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्यी० संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी तिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंच संख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्ण-लेश्यी विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले इन सम्मूर्छिमपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों, गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों तथा तिर्यंचयोनिकस्त्रियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी गर्भज तिर्यंचयोनिक हैं, उनसे शुक्ललेश्यी तिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे पद्मलेश्यी गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्यी तिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्यी गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंच संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी तिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी तिर्यंचयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी
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पद/उद्देश /सूत्र विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी सम्मूर्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे नील-लेश्यी (सम्मूर्छिम पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी सम्मूर्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यंच विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन कृष्णलेश्यावाले से लेकर शुक्ललेश्यावाले पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और तिर्यंचस्त्रियों में ? गौतम! सबसे कम शुक्ललेश्यी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक हैं, उनसे शुक्ललेश्यी पंचेन्द्रियतिर्यंच स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे पद्मलेश्यी संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्यी संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजो-लेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यात गुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषा-धिक हैं । भगवन् इन तिर्यंचयोनिकों और तिर्यंचयोनिक स्त्रियों में ? गौतम ! जैसे नौवाँ कृष्णादिलेश्यावाले तिर्यंच योनिकसम्बन्धी अल्पबहत्व कहा है, वैसे यह दसवाँ भी समझ लेना । विशेषता यह कि कापोतलेश्यावाले तिर्यंच-योनिक अनन्तगुणे होते हैं । इस प्रकार ये (पूर्वोक्त) दस अल्पबहुत्व तिर्यंचों के कहे गए हैं। सूत्र -४५६
इसी प्रकार मनुष्यों का भी अल्पबहुत्व कहना । परन्तु उनका अंतिम अल्पबहुत्व नहीं है । सूत्र-४५७
भगवन् ! इन कृष्णलेश्यावाले से लेकर शुक्ललेश्यावाले देवों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी देव विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी देव विशेषाधिक हैं और उनसे भी तेजोलेश्यी देव संख्यातगुणे हैं । इन देवियों में ? गौतम ! सबसे थोड़ी कापोतलेश्यी देवियाँ हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं और उनसे तेजोलेश्यी संख्यातगुणी हैं । भगवन् ! इन देवों और देवियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्ण-लेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्ण-लेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी देव संख्यातगुणे हैं, उनसे भी तेजोलेश्यी देवियाँ संख्यातगुणी हैं।
भगवन् ! इन भवनवासी देवों में ? गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्यी भवनवासी देव हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार उनकी देवियों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए | भगवन् ! इन भवनवासी देवों और देवियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े तेजोलेश्यी भवनवासी देव हैं, उनसे तेजोलेश्यी भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं और उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं । भवनवासी देव-देवियों के अल्पबहुत्व समान वाणव्यन्तरों का अल्पबहुत्व कहना ।
भगवन ! इन तेजोलेश्यावाले ज्योतिष्क देवों-देवियों में? सबसे थोडे तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव हैं, उनसे तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं । भगवन् ! इन वैमानिक देवों में ? गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्यी वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी असंख्यात गुणे हैं और उनसे भी तेजोलेश्यी असंख्यातगुणे हैं । भगवन् ! इन वैमानिक देवों और देवियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्यी वैमानिक देवियाँ संख्यातगुणी हैं।
____भगवन् ! इन भवनवासी आदि देवों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे भी तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं । भगवन् ! इन भवनवासी आदि देवियों
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पद/उद्देश /सूत्र में ? गौतम ! सबसे थोड़ी तेजोलेश्यी वैमानिक देवियाँ हैं, उनसे तेजोलेश्यी भवनवासी देवियाँ असंख्यात-गुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी वाणव्यन्तर देवियाँ असंख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी असंख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक, उनसे तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं।
भगवन् ! देवों और देवियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी वैमानिक देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजो-लेश्यी भवनवासी देव असंख्यातगणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी भवनवासी देवियाँ संख्यातगणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी भवनवासी देव असंख्यातगणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं. उनसे कष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोत-लेश्यी संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी वाण-व्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी वाणव्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्यी वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी वाण-व्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं । सूत्र - ४५८
भगवन ! इन कष्णलेश्यावाले, यावत शक्ललेश्यावाले जीवों में से कौन, किनसे अल्प ऋद्धिवाले अथवा महती ऋद्धि वाले होते हैं ? गौतम ! कष्णलेश्यी से नीललेश्यी महर्द्धिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी महर्द्धिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी महर्द्धिक हैं, उनसे पद्मलेश्यी महर्द्धिक हैं और उनसे शुक्ललेश्यी महर्द्धिक हैं । कृष्णलेश्यी सबसे अल्प ऋद्धिवाले हैं और शुक्ललेश्यी जीव सबसे महती ऋद्धिवाले हैं । भगवन् ! इन कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी नारकों में ? गौतम ! कृष्णलेश्यी नारकों से नीललेश्यी नारक महर्द्धिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी नारक महर्द्धिक हैं | कृष्णलेश्यी नारक सबसे अल्प ऋद्धिवाले और कापोतलेश्यी नारक सबसे महती ऋद्धिवाले हैं | भगवन् ! इस कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी तिर्यंचयोनिकों में? गौतम ! समुच्चय जीवों के समान जानना ।
भगवन् ! कृष्णलेश्यावाले, यावत् तेजोलेश्यावाले एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में ? गौतम ! कृष्णलेश्यी एके-न्द्रिय तिर्यंचों से नीललेश्यी एकेन्द्रिय महर्द्धिक हैं, उनसे कापोतलेश्यी महर्द्धिक हैं, उनसे तेजोलेश्यी महर्द्धिक हैं । सबसे अल्पऋद्धिवाले कृष्णलेश्यी और सबसे महाऋद्धि वाले तेजोलेश्यी एकेन्द्रिय हैं । इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों को जानना । इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक जिनमें जितनी लेश्याएं जिस क्रम से कही हैं, उसी क्रम से इस आलापक के अनुसार उनकी अल्पर्द्धिकता-महर्द्धिकता समझ लेना । इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंचों, तिर्यंचस्त्रियों, सम्मूर्छिमों और गर्भजों-सभी की कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यापर्यन्त यावत् वैमानिक देवों में जो तेजोलेश्या वाले हैं, वे सबसे अल्पर्द्धिक हैं और जो शुक्ललेश्या वाले हैं, वे सबसे महर्द्धिक हैं, तक कहना । कईं आचार्यों का कहना है कि चौबीस दण्डकों को लेकर ऋद्धि को कहना।
पद-१७ उद्देशक-३ सूत्र-४५९
भगवन ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अथवा अनारक नारकों में उत्पन्न होता है? गौतम ! नारक ही नारकों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों को कहना | भगवन् ! नारक नारकों से उद्वर्त्तन करता है, अथवा अनारक नारकों से उद्वर्त्तन करता है ? गौतम ! अनारक ही नारकों से उद्वर्त्तन करता है। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में च्यवन' शब्दप्रयोग करना।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी नारक कृष्णलेश्यी नारकों में ही उत्पन्न होता है ? कृष्णलेश्यी (नारकों में से) उद्वृत्त होता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी में भी समझना । असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना । विशेषता यह कि इनके सम्बन्ध में तेजोलेश्या का भी कथन करना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना’
पद / उद्देश / सूत्र
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्ण-लेश्यी हो कर उद्वर्त्तन करता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । (किन्तु ) उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नील-लेश्यी और कदाचित् कापोतलेश्यी होकर करता है । इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी में भी जानना । भगवन् ! तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक क्या तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजोलेश्यी हो कर ही उद्वर्त्तन करता है? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, ( किन्तु ) उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी और कदाचित् कापोतलेश्यी होकर करता है ।
अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों को भी इसी प्रकार समझना । तेजस्कायिकों और वायुकायिकों भी इसी प्रकार है विशेषता यह कि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती । विकलेन्द्रियों को भी इसी प्रकार जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों का कथन भी पृथ्वीकायिकों के समान है । विशेषता यही है कि पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ छहों लेश्याओं का कथन कहना । वाणव्यन्तर देवों को असुरकुमारों के समान जानना । भगवन् ! क्या तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? असुरकुमारों समान ही ज्योतिष्कों में समझना । इसी प्रकार वैमानिक देवों में भी कहना । विशेषता यह कि 'च्यवन करते हैं' ऐसा कहना ।
भगवन् ! कृष्णलेश्यी यावत् कापोतलेश्यी नैरयिक क्या क्रमशः उसी लेश्यावाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? क्या वह वहीं लेश्यावाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी असुरकुमार (क्रमशः) कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! पूर्ववत् ही असुरकुमार के विषय में भी यावत् स्तनितकुमार कहना । भगवन् ! कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी पृथ्वी - कायिक, क्या (क्रमशः) कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त होता है ? हाँ गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी तथा कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्त्तन करता है, कदाचित् जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता है । विशेष यह कि तेजोलेश्यी होकर उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्यी होकर उद्वृत्त नहीं होता । अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी इसी प्रकार कहना ।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी, यावत् कापोतलेश्यी तेजस्कायिक, (क्रमशः) उसी लेश्यावाले तेजस्कायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तथा क्या वह (क्रमशः) उसी लेश्यावाला होकर ही उद्वृत्त होता है ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी, कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्त्तन करता है । इसी प्रकार वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में कहना । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक (क्रमशः) उसी लेश्यावाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी लेश्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी यावत् कदाचित् शुक्ललेश्यी होकर करता है । मनुष्य को भी इसी प्रकार समझना । वाणव्यन्तर देवको असुरकुमारकी तरह समझना । ज्योतिष्क और वैमानिक देव को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि जिसमें जितनी लेश्याएं हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना तथा 'च्यवन' शब्द कहना ।
सूत्र - ४६०
भगवन् ! कृष्णलेश्यी नैरयिक कृष्णलेश्यी दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता और देखता है ? गौतम ! बहुत अधिक क्षेत्र न जानता है न देखता है न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता और देख पाता है, थोड़े से अधिक क्षेत्र को ही जानता है और देखता है । क्योंकि–गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित दूसरे पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बार-बार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और देखता है, यावत् थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देखता है । इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक .... यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है । भगवन् ! नीललेश्यी वाला नारक,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र कृष्णलेश्यी वाले नारक की अपेक्षा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अवधि द्वारा देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और देखता है ? गौतम ! बहुतर क्षेत्र को, दूरतर क्षेत्र को, वितिमिरतर और विशुद्धतर जानता है तथा देखता है। क्योंकि-गौतम ! जैसे कोई पुरुष अतीव सम, रमणीय भूमिभाग से पर्वत पर चढ़ कर सभी दिशाओं-विदिशाओं में अवलोकन करे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा, सब तरफ देखता हुआ बहुतर यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्यी नारक, कृष्णलेश्यी की अपेक्षा क्षेत्र को यावत् विशुद्धतर जानता-देखता है । भगवन् ! कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा अवधि से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है? – गौतम ! पूर्ववत समझना, यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। सूत्र-४६१
भगवन् ! कृष्णलेश्यी जीव कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में । यदि दो में हो तो आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान में होता है, तीन में हो तो आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा आभिनिबोधिक श्रुत और मनःपर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो आभिनिबोधिकज्ञान यावत् मनःपर्यवज्ञान में होता है । इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्यी जीव में समझना । शुक्ललेश्यी जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है । यदि दो, तीन या चार ज्ञानों में हो तो कृष्णलेश्यी के समान जानना । यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है
पद-१७ उद्देशक-४ सत्र-४६२
परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाह, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व, (ये पन्द्रह अधिकार चतुर्थ उद्देशक में हैं ।) सूत्र-४६३
भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी रूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? हाँ, गौतम ! होती है । क्योंकी-जैसे छाछ आदि खटाई का जावण पाकर दूध अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग पाकर उस रूप में, यावत् उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्म-लेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में और यावत् पुनः पुनः परिणत हो जाती है
भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में, उन्हीं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती हैं ? हाँ, गौतम ! होती हैं । क्योंकि-जैसे कोई वैडूर्यमणि काले, नीले, लाल, पीले अथवा श्वेत सूत्र में पिरोने पर वह उसी के रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत हो जाते हैं, इसी प्रकार हे गौतम! कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के रूप में यावत् परिणत हो जाती है । भगवन् ! क्या नीललेश्या, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को पाकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् परिणत होती हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। इसी प्रकार कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में भी समझना । सूत्र-४६४
भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई जीमूत, अंजन, खंजन, कज्जल, गवल, गवलवृन्द, जामुनफल, गीलाअरीठा, परपुष्ट, भ्रमर, भ्रमरों की पंक्ति, हाथी का बच्चा, काले केश, आकाशथिग्गल, काला अशोक, काला कनेर अथवा काला बन्धुजीवक हो । कृष्णलेश्या इससे भी अनिष्टतर है, अधिक अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्णवाली है । भगवन् ! नीललेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई भंग, भंगपत्र, पपीहा, चासपक्षी की पांख, शुक, तोते की पांख, श्यामा, वनराजि, दन्तराग, कबूतर की ग्रवा, मोर की ग्रीवा, हलधर का वस्त्र, अलसीफूल, बाणवृक्ष का फूल, अंजनकेसि कुसुम, नीलकमल, नील अशोक, नीला कनेर अथवा नीला
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र बन्धुजीवक वृक्ष हों, नीललेश्या इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अप्रय, अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्ण हैं। भगवन् ! कापोतलेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई खदिर के वृक्ष का सार भाग, खेरसार, धमासवृक्ष का सार, ताम्बा, ताम्बे का कटोरा, ताम्बे की फली, बैंगन का फूल, कोकिलच्छद वृक्ष का फूल, जवासा का फूल अथवा कलकुसुम हो, कापोतलेश्या वर्ण से इससे भी अनिष्टतर यावत् अमनाम हैं।
भगवन् ! तेजोलेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई खरगोश या मेष या सूअर या सांभर या मनुष्य का रक्त हो, बाल-इन्द्रगोप, बाल-सूर्य, सन्ध्याकालीन लालिमा, गुंजा के आधे भाग की लालिमा, उत्तम हींगुल, प्रवाल का अंकुर, लाक्षारस, लोहिताक्षमणि, किरमिची रंग का कम्बल, हाथी का तालु, चीन नामक रक्तद्रव्य के आटे की राशि, पारिजात का फूल, जपापुष्प, किंशुक फूलों की राशि, लाल कमल, लाल अशोक, लाल कनेर अथवा लालबन्धुजीवक हो, तेजोलेश्या इन से भी इष्टतर, यावत अधिक मनाम वर्णवाली होती है। भगवन ! पद्मलेश्या वर्ण से कैसी है? जैसे कोई चम्पा, चम्पक छाल, चम्पक का टुकड़ा, हल्दी, हल्दीगुटिका, हरताल, हरतालगुटिका, हरताल का टुकड़ा, चिकुर, चिकुर का रंग, स्वर्णशक्ति, उत्तम स्वर्ण-निकष, वासुदेव का पीताम्बर, अल्लकीफूल, चम्पाफूल, कनेरफूल, कूष्माण्ड लता का पुष्प, स्वर्णयूथिका फूल हो, सुहिरण्यिका-कुसुम, कोरंट फूलों की माला, पीत अशोक, पीला कनेर अथवा पीला बन्धुजीवक हो, पद्मलेश्या वर्ण में इनसे भी इष्टतर, यावत् अधिक मनाम होती है।
भगवन् ! शुक्ललेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई अंकरत्न, शंख, चन्द्रमा, कुन्द, उदक, जलकण, दही, दूध, दूध का उफान, सूखी फली, मयूरपिच्छ की मिंजी, तपा कर धोया हुआ चाँदी का पट्ट, शरद् ऋतु का बादल, कुमुद का पत्र, पुण्डरीक कमल का पत्र, चावलों के आटे का पिण्ड, कटुजपुष्पों की राशि, सिन्धुवारफूलों की माला, श्वेत अशोक, श्वेत कनेर अथवा श्वेत बन्धुजीवक हो, शुक्ललेश्या इनसे भी वर्ण में इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती है। भगवन् ! ये छहों लेश्याएं कितने वर्णों द्वारा कही जाती है ? गौतम ! (ये) पाँच वर्णों वाली हैं । कृष्णलेश्या काले वर्ण से, नीललेश्या नीले वर्ण से, कापोतलेश्या काले और लाल वर्ण से, तेजोलेश्या लाल वर्ण से, पद्मलेश्या पीले वर्ण से और शुक्ललेश्या श्वेत वर्ण द्वारा कही जाती है। सूत्र-४६५
भगवन् ! कृष्णलेश्या आस्वाद (रस) से कैसी कही है ? गौतम ! जैसे कोई नीम, नीमसार, नीमछाल, नीमक्वाथ हो, अथवा कटुज, कटुजफल, कटुजछाल, कटुज का क्वाथ हो, अथवा कड़वी तुम्बी, कटुक तुम्बीफल, कड़वी ककड़ी, कड़वी ककड़ी का फल, देवदाली, देवदाली पुष्प, मृगवालुंकी, मृगवालुंकी का फल, कड़वी घोषातिकी, कड़वी घोषातिकी फल, कृष्णकन्द अथवा वज्रकन्द हो; भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या रस से इसी रूप की होती है ? कृष्णलेश्या स्वाद में इन से भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अतिशय अमनाम है । भगवन् ! नीललेश्या आस्वाद में कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई भृगी, भुंगी कण, पाठा, चविता, चित्रमूलक, पिप्पलीमूल, पीपल, पीपलचूर्ण, शृंगबेर, शृंगबेर चूर्ण हो; नीललेश्या रस में इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अत्यधिक अमनाम है । भगवन् ! कापोतलेश्या आस्वाद में कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई आम्रों, आम्राटकफलों, बिजौरों, बिल्वफलों, कवीठों, भट्ठों, पनसों, दाडिमों, पारावत, अखरोटों, बड़े बेरों, तिन्दुकोफलों, जो कि अपक्व हों, वर्ण, गन्ध और स्पर्श से रहित हों; कापोतलेश्या स्वाद में इनसे भी अनिष्टतर यावत् अत्यधिक अमनाम कही है।
भगवन् ! तेजोलेश्या आस्वाद में कैसी है ? गौतम ! जैसे किन्हीं आम्रों के यावत् तिन्दुकों के फल जो कि परिपक्व हों, परिपक्व अवस्था के प्रशस्त वर्ण से, गन्ध से और स्पर्श से युक्त हों, तेजोलेश्या स्वाद में इनसे भी इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती है । भगवन् ! पद्मलेश्या का आस्वाद कैसा है ? गौतम ! जैसे कोई चन्द्रप्रभा मदिरा, मणिशलाका मद्य, श्रेष्ठ सीधु, उत्तम वारुणी, आसव, पुष्पों का आसव, फलों का आसव, चोय से बना आसव, मधु, मैरेयक, खजूर का सार, द्राक्षा सार, सुपक्व इक्षुरस, अष्टविध पिष्टों द्वारा तैयार की हुई वस्तु, जामुन के फल की तरह स्वादिष्ट वस्तु, उत्तम प्रसन्ना मदिरा, जो अत्यन्त स्वादिष्ट, प्रचुररसयुक्त, रमणीय, झटपट ओठों से लगा ली जाए जो
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पीने के पश्चात् कुछ तीखी-सी हो, जो आँखों को ताम्रवर्ण की बना दे तथा विस्वादन उत्कृष्ट मादक हो, जो प्रशस्त वर्ण, गन्ध और स्पर्श से युक्त हो, जो आस्वादन योग्य हो, जो प्रीणनीय हो, बृंहणीय हो, उद्दीपन करने वाली, दर्पजनक, मदजनक तथा सभी इन्द्रियों और शरीर को आह्लादजनक हो, पद्मलेश्या स्वाद में इससे भी इष्टतर यावत् अत्यधिक मनाम है । भगवन् ! शुक्ललेश्या स्वाद में कैसी है ? गौतम ! जैसे गुड़, खांड़, शक्कर, मिश्री, मत्स्यण्डी, पर्पटमोदक, भिसकन्द, पुष्पोत्तरमिष्ठान्न, पद्मोत्तरामिठाई, आदंशिका, सिद्धार्थका, आकाशस्फटिकोपमा अथवा अनुपमा नामक मिष्टान्न हो; शुक्ललेश्या आस्वाद में इनसे भी इष्टतर, अधिक कान्त, प्रिय एवं अत्यधिक मनोज्ञ है। सूत्र-४६६
भगवन् ! दुर्गन्धवाली कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! तीन, कृष्ण यावत् कापोत । भगवन् ! कितनी लेश्याएं सुगन्धवाली हैं ? गौतम ! तीन, तेजो यावत् शुक्ल । इसी प्रकार तीन-तीन अविशुद्ध और विशुद्ध हैं, अप्रशस्त, प्रशस्त हैं, संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट हैं, शीत और रूक्ष हैं, उष्ण और स्निग्ध हैं, दुर्गतिगामिनी और तीन सुगतिगामिनी हैं। सूत्र-४६७
भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणाम में परिणत होती है ? गौतम ! तीन-नौ, सत्ताईस, इक्यासी या दो सौ तैतालीस प्रकार के अथवा बहुत-से या बहुत प्रकार के परिणाम में परिणत होती है | कृष्णलेश्या की तरह नीललेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक यही समझना । भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रदेशवाली है ? गौतम ! अनंत, इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक समझना । भगवन् ! कृष्णलेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में अवगाढ़ हैं ? गौतम ! असंख्यात, इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक समझना । भगवन् ! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएं हैं ? गौतम ! अनन्त, इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक जानना । सूत्र-४६८
भगवन् ! कृष्णलेश्या के स्थान कितने हैं ? गौतम ! असंख्यात, इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक कहना । भगवन् इन कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों में से द्रव्य से, प्रदेशों से और द्रव्य तथा प्रदेशों से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! द्रव्य से, सबसे थोडे जघन्य कापोतलेश्यास्थान हैं, उनसे नीललेश्या के असंख्यातगुणे हैं, उनसे कृष्णलेश्या के असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या के असंख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या के असंख्यातगुणे हैं, उनसे शुक्ललेश्या के असंख्यातगुणे हैं । प्रदेशों से इसी प्रकार अल्पबहुत्व जानना । द्रव्य और प्रदेशों से सबसे कम कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य से हैं, उनसे नीललेश्या के असंख्यात गुणे हैं, उनसे जघन्य कृष्णलेश्यास्थान, तेजो यावत् शुक्ललेश्यास्थान द्रव्य से (क्रमशः) असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य से शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों से, कापोतलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों से अनन्तगुणे हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्ण, तेजो, पद्म एवं शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार इनके उत्कृष्ट स्थान का अल्पबहुत्व कहना।
इस कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों में सबसे थोड़े द्रव्य की अपेक्षा से कापोत लेश्या के जघन्य स्थान हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या तेजो यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्या-स्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्ण, तेजो यावत शक्ललेश्या के उत्कष्ट स्थान (उत्तरोत्तर) द्रव्य से असंख्यातगणे हैं। प्रदेशों से जो अल्प-बहत्व है वह द्रव्य के समान ही जानना । द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे थोड़े कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्ण, तेजो यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ल-लेश्यास्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार नील, कृष्ण, तेजो यावत् शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य की अपेक्षा से उत्कृष्ट शुक्ललेश्यास्थानों से जघन्य कापोतलेश्यास्थान प्रदेशों से
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अनन्तगुणे हैं, उनसे जघन्य नीललेश्या प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्ण, तेजो यावत् शुक्ललेश्या के जघन्यस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं | प्रदेश की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्यास्थानों से, उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान प्रदेशों से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार नील, कृष्ण, तेजो यावत् शुक्ललेश्या के उत्कृष्टस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं ।
पद-१७ उद्देशक-५ सूत्र-४६९
भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है ? यहाँ से प्रारम्भ करके यावत् वैडूर्यमणि के दृष्टान्त तक चतुर्थ उद्देशक समान कहना । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नील-लेश्या को प्राप्त होकर नीललेश्या के स्वभावरूप में यावत् स्पर्शरूप में परिणत नहीं होती है ? हाँ, गौतम ! नहीं होती। क्योंकि-वह आकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र से (नीललेश्या) होती है । (वास्तव में) यह कृष्णलेश्या ही है । वह (कृष्णलेश्या) वहाँ रही हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा है कि यावत् बारबार परिणत नहीं होती है । भगवन् ! क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् बारबार परिणत नहीं होती? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । कारण पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या के सम्बन्ध में ऐसे ही प्रश्नोत्तर समझ लेना । भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् परिणत नहीं होती? हाँ, गौतम! परिणत नहीं होती, इत्यादि पूर्ववत् कहना । कारण भी वहीं समझना
पद-१७ उद्देशक-६ सूत्र-४७०
भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल । भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल । इसी प्रकार मनुष्य स्त्री, कर्मभूमिज, भरत ऐरावत, पूर्व-पश्चिम विदेह-में मनुष्य
और मानुषीस्त्री में भी छह लेश्या जानना । भगवन् ! अकर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम! चार, कृष्ण यावत् तेजो । इसी प्रकार अकर्मभूमिजस्त्री; हैमवत्-ऐरण्यवत् - हरिवास-रम्यक-देवकुरु-उत्तरकुरु-घातकीखण्ड पूर्वार्ध-पश्चिमार्ध-पुष्करवरार्द्ध द्वीप के पूर्वार्ध-पश्चिमा के मनुष्यों एवं मनुष्यस्त्री की चार लेश्याएं जानना । भगवन् ! कृष्णलेश्यी मनुष्य कृष्णलेश्यी गर्भ को उत्पन्न करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । इसी प्रकार (कृष्णलेश्यी पुरुष से) नील यावत् शुक्ललेश्या वाले गर्भ की उत्पत्ति कहना । कृष्णलेश्यी पुरुष समान नील यावत् शुक्ललेश्या वाले प्रत्येक मनुष्य से इस प्रकार छह-छह आलापक होने से सब छत्तीस आलापक हुए । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी स्त्री कृष्णलेश्यी गर्भ को उत्पन्न करती है ? हाँ, गौतम ! करती है। पूर्ववत् छत्तीस आलापक कहना । भगवन् ! कृष्णलेश्यी मनुष्य क्या कृष्णलेश्यी स्त्री से कृष्णलेश्यी गर्भ को उत्पन्न करता है ? हाँ, गौतम ! करता है। पूर्ववत् छत्तीस आलापक | भगवन् ! कर्मभूमिज कृष्णलेश्यी मनुष्य कृष्णलेश्यी स्त्री से कृष्णलेश्यी गर्भ को उत्पन्न करता है ? हाँ, गौतम ! पूर्ववत् जानना । भगवन् ! अकर्मभूमिज कृष्णलेश्यी मनुष्य अकर्मभूमिज कृष्णलेश्यी स्त्री से अकर्मभूमिज कृष्णलेश्यी गर्भ को उत्पन्न करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । विशेष यह कि इनमें चार लेश्याओं से कुल १६ आलापक होते हैं । इसी प्रकार अन्तरद्वीपज सम्बन्धी सोलह आलापक होते हैं।
पद-१७-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१८-कायस्थिति सूत्र-४७१,४७२
जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, , पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धिक), अस्ति (काय) और चरम, इन पदों की कायस्थिति जानना ।
भगवन ! जीव कितने काल तक जीवपर्याय में रहता है ? गौतम ! सदाकाल । सूत्र-४७३
भगवन् ! नारक नारकत्वरूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । भगवन् ! तिर्यंचयोनिक ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक । कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनों तक, वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना । भगवन् ! तिर्यंचनी ? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्वकोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम । मनुष्य और मानुषी की कायस्थिति में भी इसी प्रकार समझना।
भगवन् ! देव कितने काल तक देव बना रहता है ? गौतम ! नारक के समान ही देव के विषय में कहना । भगवन् ! देवी, देवी के पर्याय में कितने काल तक रहती है ? गौतम ! जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः पचपन पल्योपम । सिद्धजीव सादि-अनन्त होता है । भगवन् ! अपर्याप्त नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त । इसी प्रकार यावत् देवी की अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त ही है। पर्याप्त नारक जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेंतीस सागरोपम तक पर्याप्त नारकरूप में रहता है । पर्याप्त तिर्यंचयोनिक जघन्य अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तीन पल्योपम तक पर्याप्त तिर्यंचरूप में रहता है । इसी प्रकार पर्याप्त तिर्यंचनी में भी समझना । (पर्याप्त) मनुष्य और मानुषी में भी इसी प्रकार समझना । पर्याप्त देव में पर्याप्त नैरयिक के समान समझना । पर्याप्त देवी, पर्याप्त देवी के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम पचपन पल्योपम तक रहती है। सूत्र-४७४
भगवन् ! सेन्द्रिय जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त । द्वीन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में समझना । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः सहस्रसागरोपम से कुछ अधिक पंचेन्द्रिय रूप में रहता है । सिद्ध जीव कितने काल तक अनिन्द्रिय बना रहता है ? गौतम ! सादि-अनन्त ।
भगवन् ! सेन्द्रिय-अपर्याप्तक कितने काल तक सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्यतः और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक में समझना | भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्वसागरोपम से कुछ अधिक । एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक, चतु-रिन्द्रियपर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट संख्यात मास तक और पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों काल तक रहता है। सूत्र-४७५
__भगवन् ! सकायिक जव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सकायिक दो प्रकार के हैं। अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है ? मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक; असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीयों तक, क्षेत्र सेअसंख्यात लोक तक । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक भी जानना । वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक पर्याय में जघन्य अन्तर्महत, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रहते हैं | कालत:- अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना । वे पुद्गलपरावर्त्त आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं । त्रसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है । अकायिक सादि-अनन्त होता है।
भगवन् ! सकायिक अपर्याप्तक कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक इसी प्रकार त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना | सकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक रहता है । पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और
ष्ट संख्यात हजार वर्षों तक पथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में रहता है । इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक में भी समझना । तेजस्कायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन रहता है । वायुकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है । वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है । त्रसकायिक-पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है। सूत्र-४७६
भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल, कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों और क्षेत्रतः असंख्यातलोक तक । इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी समझ लेना । सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहता है । (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक में भी इसी प्रकार समझना । पर्याप्तकों में भी ऐसा ही समझना ।
भगवन् ! बादर जीव, बादर जीव के रूपमें कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यात काल तक, कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण । बादर पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिक रूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरो-पम रहता है। इसी प्रकार बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक में भी समझना । बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक, कालत:-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण रहता है । प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक रहता है । निगोद, निगोद के रूप में जघन्य अन्त-र्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक, क्षेत्रतः ढाई पुद्गलपरावर्त्त तक रहता है । बादर निगोद, बादर निगोद के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक रहता है । बादर त्रसकायिक बादर त्रसकायिक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है।
इन सभी के अपर्याप्तक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक अपने-अपने पूर्व पर्यायों में रहते हैं । बादर पर्याप्तक, बादर पर्याप्तक के रूपमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व तक रहता है। बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है । इसी प्रकार अप्कायिक में भी समझना । तेजस्कायिक पर्याप्तक (बादर) तेजस्कायिक पर्याप्तक के रूप में जघन्य अन्त-मुंहत, उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक रहता है । वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक जघन्य अन्तर्मुहर्त्त
और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक अपने-अपने पर्याय में रहते हैं। निगोदपर्याप्तक और बादर निगोदपर्याप्तक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (स्व-स्वपर्याय में रहते हैं) भगवन् ! बादर त्रसकायिकपर्याप्तक बादर त्रसकायिक पर्याप्तक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसाग-रोपम-पृथक्त्व पर्यन्त रहता है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-४७७
भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के हैंअनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । भगवन् ! मनोयोगी कितने काल तक मनोयोगी अवस्था में रहता है? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । इसी प्रकार वचनयोगी भी समझना । काययोगी, काययोगी के रूप में जघन्य-अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है । अयोगी सादि-अपर्यवसित है। सूत्र-४७८
भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ? गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के हैं । अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । जो सादि-सान्त हैं, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक; काल से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गल-परावर्त तक रहता है । भगवन् ! स्त्रीवेदक जीव स्त्रीवेदकरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक ११० पल्योपम तक, एक अपेक्षा से पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक, एक अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक, एक अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम तक, एक अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक रहता है । पुरुषवेदक जीव पुरुषवेदकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक रहता है । नपुंसकवेदक नपुंसकवेदकपर्याययुक्त जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त रहता है । अवेदक दो प्रकार के हैं, सादि-अनन्त और सादि-सान्त। जो सादि-सान्त हैं, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक अवेदकरूप में रहता है। सूत्र -४७९
भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के हैं, अनादिअपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, उसका कथन सादिसपर्यवसित सवेदक के अनुसार यावत् क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त तक करना । भगवन् ! क्रोध-कषायी क्रोधकषायीपर्याय से युक्त कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त्त तक । इसी प्रकार यावत् मायाकषायी को समझना । लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । अकषायी दो प्रकार के हैं । सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्य-वसित हैं, वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। सूत्र-४८०
भगवन् ! सलेश्यजीव सलेश्य-अवस्था में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सलेश्य दो प्रकार के हैं । अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित | भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्यावाला रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक । नीललेश्यावाला जीव जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम तक, कापोतलेश्यावान् जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम तक, तेजोलेश्यावान् जीव जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम तक, पद्मलेश्यावान जीव जघन्य अन्तर्महर्त और उत्कष्ट अन्तर्महर्त अधिक दस सागरोपम तक, शक्ललेश्यावान जीव जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट अन्तर्मुहर्त्त अधिक तेतीस सागरोपम तक अपने अपने पर्याय में रहते हैं । भगवन् ! अलेश्यी जीव कितने काल तक अलेश्यीरूप में रहता है ? गौतम ! वे सादि-अपर्यवसित है। सूत्र-४८१
भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं, सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं । अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक; काल से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों और क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त्त तक (मिथ्यादृष्टिपर्याय से युक्त रहता है ।) सम्यग्मिथ्यादृष्टि जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्दृष्टिपर्याय में रहता है। सूत्र-४८२
- भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं, सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सामान्य ज्ञानी के समान समझना । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी को भी समझना । अवधि-ज्ञानी भी इसी प्रकार हैं, विशेष यह कि वह जघन्य एक समय तक ही अवधिज्ञानी के रूप में रहता है । मनःपर्यव-ज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है । केवलज्ञानी-पर्याय सादि-अपर्यवसित होती है । भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक स्व-पर्याय में रहते हैं ? गौतम ! ये तीन-तीन प्रकार के हैं । अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त तक रहते हैं । विभंगज्ञानी विभंगज्ञानी के रूप में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है। सूत्र-४८३
भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ? गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है) । भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के है । अनादि-अपर्यवसित और अनादिसपर्यवसित । अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनीरूप में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरो-पम तक रहता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होता है। सूत्र-४८४
भगवन् ! संयत कितने काल तक संयतरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तक । भगवन् ! असंयत कितने काल तक असंयतरूप में रहता है ? गौतम ! असंयत तीन प्रकार के हैं, अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित, सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, काल की अपेक्षा-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा-देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक रहता है । संयतासंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । भगवन् ! नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत कितने काल तक उसी रूप में रहता है ? गौतम ! वह सादि-अपर्य-वसित हैं । सूत्र-४८५
भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव निरन्तर कितने काल तक साकारोपयोगयुक्तरूप में बना रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक । अनाकारोपयोगयुक्त जीव भी इसी प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट अन्त-र्मुहूर्त तक रहता है। सूत्र - ४८६
भगवन् ! आहारक जीव कितने काल तक आहारकरूप में रहता है ? गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के हैं, छद्मस्थ-आहारक और केवली-आहारक । छद्मस्थ-आहारक जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहण जितने काल और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक छद्मस्थ-आहारकरूप में रहता है । कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तथा क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण । केवली-आहारक केवली-आहारक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक रहता है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! अनाहारकजीव, अनाहारकरूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के, छद्मस्थ-अनाहारक और केवली-अनाहारक । छद्मस्थ-अनाहारक, छद्मस्थ-अनाहारक के रूप में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट दो समय तक रहता है। केवली-आहारक दो प्रकार के, सिद्धकेवली-अनाहारक और भवस्थकेवलीअनाहारक । सिद्धकेवली सादि-अपर्यवसित हैं । भवस्थकेवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं-सयोगि-भवस्थकेवलीअनाहारक और अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक । सयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक उसी रूपमें अजघन्य-अनुत्कृष्ट तीन समय तक रहता है । अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक उसी रूपमें जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। सूत्र-४८७
भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त तक । अभाषक तीन प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहर्त्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त अभाषकरूप में रहते हैं।
सूत्र-४८८
परीत दो प्रकार के हैं । कायपरीत और संसारपरीत । कायपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक उसी पर्यायमें रहता है। संसारपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त्त उसी पर्याय में रहता है । अपरीत दो प्रकार के हैं, काय-अपरीत और संसार-अपरीत । काय-अपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक उसी पर्याय में रहता है। संसारअपरीत दो प्रकार के हैं। अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । नोपरीत-नोअपरीत सादि-अपर्यवसित हैं। सूत्र-४८९
भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याप्त-अवस्था में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व तक । अपर्याप्त जीव ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव सादि-अपर्यवसित हैं। सूत्र-४९०
भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म-पर्यायवाला रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल । बादर जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल यावत् क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण रहता है। भगवन् ! नोसूक्ष्म-नोबादर सादि-अपर्यवसित हैं। सूत्र-४९१
भगवन् ! संज्ञी जीव कितने काल तक संज्ञीपर्याय में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्वकाल । असंज्ञी असंज्ञी पर्याय में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी सादि-अपर्यवसित हैं। सूत्र-४९२
भगवन ! भवसिद्धिक जीव कितने काल तक उसी पर्याय में रहता है ? गौतम ! वह अनादि-सपर्यवसित हैं। अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सादि-अपर्यवसित हैं। सूत्र-४९३,४९४
धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकायरूप में? वह सर्वकाल रहता है । इसी प्रकार यावत् अद्धासमय भी समझना ।
भगवन् ! चरमजीव ? गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित होता है । अचरम दो प्रकार के हैं, अनादिअपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित ।
पद-१८-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१९-सम्यक्त्व सूत्र-४९५
भगवन् ! जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं अथवा सम्यगमिथ्यादष्टि हैं ? गौतम ! तीनों । इसी प्रकार नैरयिक जीवों को भी जानना । असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार जानना ।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव ? गौतम ! पृथ्वीकायिक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों को समझना।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं । इसी प्रकार चतुरि-न्द्रिय जीवों तक कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव में तीनों दृष्टि होते हैं । भगवन् ! सिद्ध जीव ? वे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं।
पद-१९-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२०-अन्तक्रिया सूत्र -४९६
अन्तक्रियासम्बन्धी १० द्वार-नैरयिकों की अन्तक्रिया, अनन्तरागत जीव-अन्तक्रिया, एक समय में अन्तक्रिया, उद्वृत्त जीवों की उत्पत्ति, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक और रत्नद्वार । सूत्र - ४९७
भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? हाँ, गौतम ! कोई जीव करता है और कोई नहीं करता । इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक तक की अन्तक्रिया में समझना । भगवन् ! क्या नारक, नारकों में अन्तक्रिया करता है? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार नारक की वैमानिकों तक में अन्तक्रिया शक्य नहीं है । विशेष यह कि नारक मनुष्यों में आकर कोई अन्तक्रिया करता है और कोई नहीं करता । इसी प्रकार असुरकुमार से वैमानिक तक भी समझना । इसी प्रकार चौबीस दण्डकों में ५७६ (प्रश्नोत्तर) होते हैं। सूत्र-४९८
भगवन् ! नारक क्या अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं, अथवा परम्परागत ? गौतम ! दोनों । इसी प्रकार रत्नप्रभा से पंकप्रभा नरकभूमि के नारकों तक की अन्तक्रिया में समझना । धूमप्रभापृथ्वी के नारक? हे गौतम ! (वे) परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों में जानना । असुरकुमार से स्तनितकुमार तक तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवो दोनों अन्तक्रिया करते हैं । तेजस्कायिक, वायुकायिक और विकलेन्द्रिय परम्परागत अन्तक्रिया ही करते हैं । शेष जीव दोनों अन्तक्रिया करते हैं। सूत्र-४९९
भगवन् ! अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस । रत्नप्रभापृथ्वी यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक भी इसी प्रकार अन्तक्रिया करते हैं । भगवन् ! अनन्तरागत पंकप्रभापृथ्वी के कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार | भगवन् ! अनन्तरागत कितने असुरकुमार एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट दस । भगवन् ! अनन्तरागत असुरकुमारियाँ ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट पाँच अन्तक्रिया करती हैं । असुरकुमारों के समान स्तनितकुमारों तक ऐसे ही समझना।
भगवन् ! कितने अनन्तरागत पृथ्वीकायिक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट चार । इसी प्रकार अप्कायिक चार, वनस्पतिकायिक छह, पंचेन्द्रिय तिर्यंच दस, मनुष्य दस, मनुष्य-नियाँ बीस, वाणव्यन्तर देव दस, वाणव्यन्तर देवियाँ पाँच, ज्योतिष्क देव दस, ज्योतिष्क देवियाँ बीस, वैमानिक देव एक सौ साठ, वैमानिक देवियाँ बीस अन्तक्रिया करती हैं। सूत्र-५००
भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से उद्वर्त्तन कर क्या (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । भगवन् ! नारक जीव नारकों में से निकल कर क्या असुरकुमारों में उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी तरह निरन्तर यावत् चतुरिन्द्रिय में उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् नारक जीव नारकों में से उद्वर्त्तन कर अन्तर रहित पंचेन्द्रियतिर्यंच में उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ! कोई होता है और कोई नहीं होता । भगवन् ! तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होनेवाला नारक क्या केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण कर सकता है ? गौतम ! कोई कर सकता है और कोई नहीं। भगवन् ! वह जो केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण कर सकता है, वह क्या केवल बोधि को समझता है ? गौतम ! कोई समझता है, कोई नहीं समझता । भगवन् ! जो केवलिबोधि को समझे क्या वह श्रद्धा, प्रतीति तथा रुचि करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । भगवन् ! जो श्रद्धा आदि करता है (क्या) वह आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान उपार्जित करता है? हाँ, गौतम ! करता है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र भगवन् ! जो आभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान अथवा पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ होता है ? गौतम! कोई होता है, कोई नहीं होता । भगवन् ! जो शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार करता है (क्या) वह अवधिज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? गौतम ! कोई कर सकता है, कोई नहीं । भगवन् ! जो अवधिज्ञान उपार्जित करता है, (क्या) वह प्रव्रजित होने में समर्थ है? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! नारक, नारकोंमें से उद्वर्त्तन कर क्या सीधा मनुष्योंमें उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई होता है
और कोई नहीं | भगवन् ! जो उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण पाता है? गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में धर्मश्रवण से अवधिज्ञान तक कहा है, वैसे ही यहाँ कहना । विशेष यह की जो (मनुष्य) अवधिज्ञान पाता है, उनमें से कोई प्रव्रजित होता है और कोई नहीं होता । भगवन् ! जो प्रव्रजित होने में समर्थ है, (क्या) वह मनःपर्यवज्ञान पा सकता है ? गौतम ! कोई पा सकता है और कोई नहीं । भगवन् ! जो मनः पर्यवज्ञान पाता है (क्या) वह केवलज्ञान को पा सकता है ? गौतम ! कोई पा सकता है (और) कोई नहीं । भगवन! जो केवलज्ञान को पा लेता है, (क्या) वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो यावत् सब दुःखों का अन्त कर सकता है ? हा गौतम! ऐसा ही है । भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से निकलकर वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है सूत्र-५०१
भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझ लेना । भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई होता है, कोई नहीं। भगवन् ! जो उत्पन्न होता है, वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण करता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में भी समझना । भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर, सीधा तेजस्कायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक आदि में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि नैरयिक अनुसार समझना । इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना । सूत्र-५०२
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से उद्वर्त्तन कर सीधा नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इस प्रकार स्तनितकमारों तक समझ लेना । भगवन ! पथ्वीकायिक जीव, पथ्वीकायिकों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई होता है, कोई नहीं । जो उत्पन्न होता है, वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक में कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों में नैरयिक के समान कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में निषेध करना । पृथ्वीकायिक के समान अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक में भी कहना।
भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से उद्वत्त होकर क्या सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक उत्पत्ति का निषेध समझना । पृथ्वीकायिक, यावत् चतुरिन्द्रियों में कोई (तेजस्कायिक) उत्पन्न होता है और कोई नहीं। भगवन् ! जो तेजस्कायिक उत्पन्न होता है, वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण कर सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकल कर सीधा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता । जो उत्पन्न होता है, उनमें से कोई धर्मश्रवण प्राप्त करता है, कोई नहीं । जो केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, बोधि को समझ नहीं पाता । तेजस्कायिक जीव, इन्हीं में से निकल कर सीधा मनुष्य तथा वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकों में उत्पन्न नहीं होता। तेजस्कायिक की अनन्तर उत्पत्ति के समान वायुकायिक में भी समझ लेना।
सूत्र-५०३
भगवन ! द्वीन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीवों में से निकल कर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! पृथ्वी
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र कायिक के समान ही द्वीन्द्रिय जीवों में भी समझना । विशेष यह कि वे मनःपर्यवज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव भी यावत् मनःपर्यवज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । जो मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करता है, वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। सूत्र - ५०४
___भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंच पंचेन्द्रितिर्यंचों में से उद्धृत्त होकर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई होता है और कोई नहीं । जो उत्पन्न होता है, उनमें से कोई धर्मश्रवण प्राप्त करता है और कोई नहीं । जो केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, उनमें से कोई केवलिबोधि समझता है, कोई नहीं । जो केवलिबोधि समझता है, वह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि भी करता है । जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है, वह आभिनिबोधिक यावत् अवधिज्ञान भी प्राप्त कर सकता है । जो आभिनिबोधिक यावत् अवधिज्ञान प्राप्त करता है, वह शील से लेकर पौषधोपवास तक अंगीकार नहीं कर सकता ।इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों में कहना ।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझना | पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों और मनुष्यों में नैरयिक के समान जानो । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नैरयिकों के समान जानना । इसी प्रकार मनुष्य को भी जानो । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार के समान हैं
सूत्र-५०५
भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि-गौतम ! जिस रत्नप्रभापथ्वी के नारक ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट, निधत्त, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत है, उदीर्ण है, उपशान्त नहीं हुआ है, वह उद्धत्त होकर तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिसे तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध यावत् उदीर्ण नहीं होता, वह तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं करता । इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में समझना।
भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी से निकल कर क्या तीर्थंकरत्व प्राप्त कर लेता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । धूमप्रभापृथ्वी नैरयिक सम्बन्ध में यह अर्थ समर्थ नहीं है किन्तु यह विरति प्राप्त कर सकता है । तमःपृथ्वी नारक में भी यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरताविरति पा सकता है । अधःसप्तमपृथ्वी भी नैरयिक तीर्थंकरत्व नहीं पाता किन्तु वह सम्यक्त्व पा सकता है । असुरकुमार भी तीर्थंकरत्व नहीं पाता, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। इसी प्रकार अप्कायिक तक जानना।
भगवन ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्धत्त होकर अनंतर उत्पन्न हो कर क्या तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण पा सकता है। इसी प्रकार वाय-कायिक के विषय में भी समझ लेना । वनस्पतिकायिक विषय में पृच्छा ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय ? वे तीर्थंकरत्व नहीं पाता किन्तु मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव ? तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं करते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं | भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव ? गौतम ! कोई तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है और कोई नहीं, इत्यादि रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के समान जानना । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक समझना। सूत्र-५०६
भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक उद्वर्त्तन करके क्या चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि-गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों को तीर्थंकरत्व प्राप्त होने, न होने के कारणों के समान चक्रवर्तीपद प्राप्त होना, न होना समझना । शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक उद्वर्त्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक समझ लेना । तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों से निकल कर सीधे चक्रवर्तीपद प्राप्त नहीं कर सकते । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अपने-अपने भवों से च्यवन कर इसमें से कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं।
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पद/उद्देश/सूत्र इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझना । विशेष यह कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार दो पृथ्वीयों से, तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है । माण्डलिकपद, अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़कर शेष सभी भवों से आकर पा सकते हैं । सेनापतित्व, गाथापतिरत्न, वर्धकीरत्न, पुरोहितरत्न और स्त्रीरत्न पद की प्राप्ति माण्डलिकत्व के समान समझना । विशेष यह कि उसमें अनुत्तरौपपातिक देवों का निषेध करना । अश्वरत्न एवं हस्तिरत्नपद रत्नप्रभापृथ्वी से सहस्रार देवलोक तक का कोई प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं । चक्र-रत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न एवं काकिणीरत्न पर्याय में उत्पत्ति, असुरकुमारों से लेकर निरन्तर यावत् ईशानकल्प के देवों से हो सकती है, शेष भवों से नहीं। सूत्र-५०७
भगवन् ! असंयत भव्य-द्रव्यदेव जिन्होंने संयम की विराधना की है और नहीं की है, जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है और नहीं की है, असंज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरक-परिव्राजक, किल्बिषिक, तिर्यंच, आजीविक मतानुयायी, अभियोगिक, स्वलिंगी साधु तथा जो सम्यग्दर्शनव्यापन्न हैं, ये जो देवलोकों में उत्पन्न हों तो किसका कहाँ उपपात कहा है ? असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपाद जघन्य भवनवासी देवों में, उत्कृष्ट उपरिम ग्रैवेयक देवों में, अविराधित संयमी का जघन्य सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में, विराधित संयमी का जघन्य भवनपतियों में,
। सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, विराधित संयमासंयमी का जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, असंज्ञी का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट वाणव्यन्तरदेवों में, तापसों का जघन्य भवनवासीदेवों में, उत्कष्ट ज्योतिष्कदेवों में, कान्दर्पिकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कष्ट सौधर्मकल्प में, चरक-परिव्राजकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कष्ट ब्रह्मलोककल्प में, किल्बिषिकों का जघन्य सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट लान्तककल्प में, तैरश्चिकों का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों और आभियोगिकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, स्वलिंग साधुओं का तथा दर्शन-व्यापन्न का जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रैवेयकदेवों में होता है। सूत्र-५०८
भगवन ! असंज्ञी-आयष्य कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, नैरयिक से देव-असंज्ञी-आयष्य तक। भगवन् ! क्या असंज्ञी नैरयिक यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । नारकायु का उपार्जन करता हआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग, तिर्यंचयोनिकआयुष्य का उपार्जन करता हुआ जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है। इसी प्रकार मनुष्यायु एवं देवायु का उपार्जन भी नारकायु के समान कहना । भगवन् ! इस नैरयिक-असंज्ञी आयु यावत् देव-असंज्ञी-आयु में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? हे गौतम ! सबसे अल्प देवअसंज्ञी-आयु है, (उससे) मनुष्य-असंज्ञी-आयु असंख्यतगुणा है, (उससे) तिर्यंचयोनिक असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणा है, उससे नैरयिक-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणा है।
पद-२०-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२१-अवगाहना-संस्थान सूत्र-५०९
इस में सात द्वार हैं-विधि, संस्थान, प्रमाण, पुद्गलचयन, शरीरसंयोग, द्रव्यप्रदेशों का अल्पबहुत्व एवं शरीरावगाहना-अल्पबहुत्व। सूत्र-५१०
भगवन् ! कितने शरीर हैं ? गौतम ! पाँच-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । औदारिक-शरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर । पथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, सक्ष्म और बादर । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, पर्याप्तक और अपर्याप्तक० इसी प्रकार बादर-पृथ्वीकायिक समझ लेना । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक तक जानना।
द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, पर्याप्त और अपर्याप्त० । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जानना । पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है? गौतम ! तीन प्रकार का, जलचर, स्थलचर और खेचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर । जलचर-तिर्यंच-योनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, सम्मुर्छिम० और गर्भज जलचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । सम्मूर्छिम-जलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, पर्याप्तक और अपर्याप्तक० इसी प्रकार गर्भज को भी समझ लेना।
स्थलचर-तिर्यंचयोनिक -पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, चतुष्पदस्थलचर० और परिसर्प-स्थलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय
औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, सम्मूर्छिम और गर्भज-चतुष्पद० । सम्मूर्छिम-चतुष्पदस्थलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, पर्याप्तक और अपर्याप्तक० । इसी प्रकार गर्भज को भी समझना । परिसर्प-स्थलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प-स्थलचर० उरःपरिसर्प-स्थलचर-तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम दो प्रकार का, सम्मूर्छिम और गर्भज-उर:परिसर्प० सम्मूर्छिम उर:परिसर्प दो प्रकार का है, अपर्याप्तक और पर्याप्तक-सम्मूर्छिम-उर:परिसर्प इसी प्रकार गर्भज-उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प भी समझ लेना । खेचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर भी दो प्रकार का यथा-सम्मूर्छिम और गर्भज | सम्मूर्छिम दो प्रकार के हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । गर्भज को भी ऐसे ही समझना । मनुष्य-पंचेन्द्रिय
औदारिकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, सम्मूर्छिम और गर्भज-मनुष्य० । गर्भज-मनुष्यपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर दो प्रकार का है, पर्याप्तक और अपर्याप्तक-गर्भज-मनुष्य० । सूत्र-५११
औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! नाना संस्थान वाला । एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान का है ? गौतम ! नाना संस्थान वाला । पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर मसूर-चन्द्र जैसे संस्थान वाला है । इसी प्रकार सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकायिकों भी समझना । पर्याप्तक और अपर्याप्तक भी इसी प्रकार जानना । अप्कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान स्तिबुकबिन्दु जैसा है । इसी प्रकार का अप्कायिकों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तकों को समझना । तेजस्कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान सूइयों के ढेर जैसा है। इसी प्रकार सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तों के शरीरों को समझना । वायु-कायिक का संस्थान पताका समान है । इसी प्रकार सक्षम, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तकों को भी समझना । वनस्पतिकायिकों के शरीर का संस्थान नाना प्रकार का
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र है । इसी प्रकार सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तकों का जानना।
द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! हुंडकसंस्थान वाला । इसी प्रकार पर्याप्तक और अपर्याप्तक भी समझना । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को भी समझना । तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर किस संस्थान वाला है ? गौतम ! छहों प्रकार का, समचतुरस्र संस्थान से हुंडकसंस्थान पर्यन्त । इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक में भी समझ लेना । सम्मूर्छिम-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थानवाला है? गौतम ! हुंडक संस्थानवाला । इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक भी समझना। गर्भज-तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थानवाला है ? गौतम ! छहों प्रकार का । समचतुरस्रसंस्थान से हुंडकसंस्थान तक । इस प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक भी समझना । इस प्रकार औधिक तिर्यंचयोनिकों के ये नौ आलापक हैं।
जलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला है ? गौतम ! छहों प्रकार का । समचतुरस्र यावत् हुण्डक संस्थान | इसी प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्तक भी जानना । सम्मूर्छिम-जलचरों के औदारिकशरीर हुण्डकसंस्थान वाले हैं । उनके पर्याप्तक, अपर्याप्तकों के भी इसी प्रकार हैं । गर्भज-जलचर छहों प्रकार के संस्थान वाले हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक भी जानना । इसी प्रकार स्थलचर० के नौ सूत्र होते हैं । इसी प्रकार चतुष्पद-स्थलचरों, उर:परिसर्प-स्थलचरों एवं भुजपरिसर्प-स्थलचरों के औदारिकशरीर संस्थानों के भी नव सूत्र होते हैं । इसी प्रकार खेचरों के भी नौ सूत्र हैं । विशेष यह कि सम्मूर्छिम० सर्वत्र हुण्डकसंस्थान वाले कहना । गर्भज० के छहों संस्थान होते हैं । मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला है ? गौतम ! छहों प्रकार का । समचतुरस्र यावत् हुण्डकसंस्थान । पर्याप्तक और अपर्याप्तक भी इसी प्रकार हैं । गर्भज० भी इसी प्रकार हैं । पर्याप्तक अपर्याप्तक को भी ऐसे ही जानना । सम्मूर्छिम मनुष्यों हुण्डकसंस्थान वाले हैं। सूत्र - ५१२
भगवन् ! औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः कुछ अधिक हजार योजन | एकेन्द्रिय के औदारिकशरीर की अवगाहना औधिक के समान है । पृथ्वी-कायिकएकेन्द्रिय-औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवा भाग । इसी प्रकार अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक भी जानना । इसी प्रकार सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक भी समझना, ये नौ भेद हुए । पृथ्वीकायिकों के समान अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक के भी नौ भेद जानना । वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवा भाग, उत्कृष्ट अधिक हजार योजन । वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की है और पर्याप्तकों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन है । बादर० की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन हैं । पर्याप्तकों की भी इसी प्रकार हैं। अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । और सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवा भाग है।
द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन । इसी प्रकार सर्वत्र अपर्याप्त जीवों की औदारिकशरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की जानना । पर्याप्त द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना उनके औधिक समान है । इसी प्रकार त्रीन्द्रियों की तीन गव्यूति तथा चतुरिन्द्रियों की चार गव्यूति है । पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों के औधिक, उनके पर्याप्तकों तथा अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की है तथा सम्मूर्छिम० औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना इसी प्रकार है । इस प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंचों के० कुल ९ भेद होते हैं । इसी प्रकार औधिक और पर्याप्तक जलचरों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की है । स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों की
औदारिकशरीरावगाहना-सम्बन्धी पूर्ववत् ९ विकल्प होते हैं । स्थलचर उत्कृष्टतः छह गव्यूति है । सम्मूर्छिम स्थलचरपं० उनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूति-पृथक्त्व है। उनके अपर्याप्तकों की जघन्य और
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र उत्कृष्ट शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । गर्भज-तिर्यंच-पंचेन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना उत्कृष्ट छह गव्यूति की और पर्याप्तकों की भी इतनी ही है । औषक चतुष्पदों, गर्भज-चतुष्पदों के तथा इनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः छह गव्यूति की होती है । सम्मूर्छिम-चतुष्पद० उनके पर्याप्तकों की उत्कृष्ट रूप से गव्यूतिपृथक्त्व है । इसी प्रकार उरःपरिसर्प० औधिक, गर्भज तथा (उनके) पर्याप्तकों की एक हजार योजन है । सम्मूर्छिम० उनके पर्याप्तकों की योजनपृ-थक्त्व है । भुजपरिसर्प० औधिक, गर्भज की उत्कृष्टतः गव्यूति-पृथक्त्व है । सम्मूर्छिम० की धनुषपृथक्त्व है । खेचर० औधिकों, गर्भजों एवं सम्मूर्छिमों, इन तीनों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है। सूत्र-५१३
गर्भज जलचरों की एक हजार योजन, चतुष्पदस्थलचरों की छह गव्यूति, उर:परिसर्प-स्थलचरों की एक हजार योजन, भुजपरिसर्प० की गव्यूतिपृथक्त्व और खेचर पक्षियों की धनुषपृथक्त्व की औदारिकशरीरावगाहना होती है। सूत्र - ५१४
सम्मूर्छिम स्थलचरों की एक हजार योजन, चतुष्पद-स्थलचरों की गव्यूतिपृथक्त्व, उरःपरिसरों की योजन पृथक्त्व, भुजपरिसॉं तथा सम्मूर्छिम खेचर की धनुषपृथक्त्व, उत्कृष्ट औदारिकशरीरावगाहना है । सूत्र - ५१५
मनुष्यों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट तीन गव्यूति । उनके अपर्याप्तक की जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की तथा सम्मूर्छिम की जघन्यतः
और उत्कृष्टतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । गर्भज मनुष्यों के तथा इनके पर्याप्तकों की जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः तीन गव्यूति है। सूत्र-५१६
वैक्रियशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का, एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर और पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-शरीर। यदि एकेन्द्रिय जीवों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या वायुकायिक का या अवायुकायिक को होता है ? गौतम ! केवल वायुकायिक को होता है । वायुकायिक-एकेन्द्रियों में बादरवायुकायिक को वैक्रियशरीर होता है । बादर-वायुकायिकएकेन्द्रियमें पर्याप्त-बादर-वायुकायिक को वैक्रियशरीर होता है |पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या नारकपंचेन्द्रिय को होता है, अथवा यावत् देव-पंचेन्द्रिय को ? गौतम ! नारक-पंचेन्द्रियों यावत् देव-पंचेन्द्रियों को भी होता है
यदि नारक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या रत्नप्रभा-पृथ्वी के अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नारकपंचेन्द्रियों को होता है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों को भी वैक्रियशरीर होता है । रत्नप्रभापृथ्वी में उनके पर्याप्तक अपर्याप्तक-नैरयिक-पंचेन्द्रियों दोनों को वैक्रियशरीर होता है। इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों में वैक्रियशरीर को कहना।
यदि तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या सम्मूर्छिम अथवा गर्भज-तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रियों को होता है ? गौतम ! केवल गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों को होता है । गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों में संख्यात वर्ष की आयुवाले गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों को वैक्रियशरीर होता है, (किन्तु) असंख्यात वर्ष की आयुवाले को नहीं । संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों में पर्याप्तक-संख्यातवर्षा-युष्कगर्भज-तिर्यंच-पंचेन्द्रियों को वैक्रियशरीर होता है, अपर्याप्तक को नहीं । संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यंच-योनिकपंचेन्द्रियों में गौतम ! जलचर०, स्थलचर० तथा खेचरसंख्यातवर्षायुष्क तीनों गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों को वैक्रियशरीर होता है । जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों में गौतम ! पर्याप्तक -जलचरसंख्यातवर्षायुष्क-गर्भज० को वैक्रियशरीर होता है, अपर्याप्तक० को नहीं । स्थलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भजतिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रियों में, गौतम ! पर्याप्तक चतुष्पद० को भी, चतुष्पद स्थलचरों को भी परिसर्प, एवं भुजपरिसर्प० को भी वैक्रियशरीर होता है । इसी प्रकार खेचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों को भी जान लेना,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र विशेष यह कि खेचर-पर्याप्तकों को वैक्रियशरीर होता है, अपर्याप्तकों को नहीं।
यदि मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या सम्मूर्च्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अथवा गर्भज० को ? गौतम ! केवल गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों को होता है । गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों में भी गौतम ! कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य० को वैक्रियशरीर होता है, अकर्मभूमिक० और न ही अन्तरद्वीपज० को नहीं । कर्म-भूमिजगर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों में गौतम ! संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों को होता है, असंख्येयवर्षायुष्क० को नहीं । संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों में गौतम ! पर्याप्तक-संख्येयवर्षायष्क-कर्मभमिज-गर्भज-मनष्य-पंचेन्द्रियों को नहीं । यदि देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या भवनवासी को यावत् वैमानिक-देव-पंचेन्द्रियों को (भी) होता है ? गौतम ! भवनवासी यावत् वैमानिक-देव-पंचेन्द्रियों को होता है। भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों में गौतम ! असरकमार यावत स्तनितकमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों को भी वैक्रियशरीर होता है । असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों में गौतम ! पर्याप्तक और अपर्या-प्तक-असुरकुमार० को भी वैक्रियशरीर होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक जानना । इसी तरह आठ प्रकार के वाणव्यन्तर-देवों (तथा) पाँच प्रकार के ज्योतिष्क-देवों को भी जानना । वैमानिक-देव दो प्रकार के हैं-कल्पो-पपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं। उनके भी दो-दो भेद होते हैं । कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरौपपातिक । ग्रैवेयक देव नौ प्रकार और अनुत्तरौपपातिक पाँच प्रकार के । इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक से दो-दो भेद । इन सबके वैक्रियशरीर होता है। सूत्र-५१७
वैक्रियशरीर किस संस्थान वाल है ? गौतम ! नाना संस्थान वाला । वायुकायिक-एकेन्द्रियों का वैक्रिय-शरीर किस संस्थान वाला है ? गौतम ! पताका आकार का । नैरयिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर, गौतम ! दो प्रकार का है, भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों हंडकसंस्थान वाले हैं । रत्नप्रभापृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों का वैक्रिय-शरीर, गौतम ! दो प्रकार का है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों हंडक-संस्थान वाले हैं। इसी प्रकार अधः-सप्तमीपृथ्वी के नारकों तक समझना । तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर ? गौतम ! अनेक संस्थानों वाला है। इसी प्रकार जलचर, स्थलचर और खेचरों का संस्थान भी है। तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसॉं का वैक्रियशरीर का संस्थान भी ऐसा ही है। इसी तरह मनुष्य-पंचेन्द्रियों को भी जानना ।
असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का है ? गौतम ! असुरकुमार का शरीर दो प्रकार का है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । जो भवधारणीयशरीर है, वह समचतुरस्र-संस्थानवाला है, जो उत्तरवैक्रियशरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थानवाला है। इसी प्रकार नागकुमार से स्तनितकुमार पर्यन्त के भी वैक्रियशरीरों का संस्थान समझना । इसी प्रकार वाणव्यन्तरदेवों को भी समझना । विशेष यह कि यहाँ औधिक-वाणव्यन्तरदेवों के सम्बन्ध में ही प्रश्न करना । वाणव्यन्तरों की तरह औधिक ज्योतिष्कदेवों के वैक्रियशरीर के संस्थान में भी समझना । इसी प्रकार सौधर्म से लेकर अच्युत कल्प में यही कहना । गौतम ! ग्रैवेयकदेवों के एक मात्र भवधारणीय शरीर है और वह समचतुरस्रसंस्थान वाला है। इसी प्रकार पाँच अनुत्तरौपपातिक-वैमानिकदेवों को भी जानना । सूत्र-५१८
___ वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट सातिरेक एक लाख योजन । वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की । नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! (वह) दो प्रकार की है, भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया । भवधारणीया-अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः पाँचसौ धनुष है तथा उत्तरवैक्रिया-अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः एक हजार धनुष है । रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना दो प्रकार की है, भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया । भवधार-णीयाशरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्टतः सात धनुष, तीन रत्नि और छह अंगुल है ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र उत्तरवैक्रिया जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष ढाई रत्नि है । शर्कराप्रभा के नारकों की शरीरावगाहना गौतम ! यावत् भवधारणीया जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष, ढाई रत्नि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः इकतीस धनुष एक रत्नि हैं । वालुकाप्रभा की भवधारणीया इकतीस धनुष एक रत्नि है, उत्तरवैक्रिया बासठ धनुष दो हाथ हैं । पंकप्रभा यावत् अधः सप्तमी की दोनों अवगाहना पूर्व पूर्व से दुगुनी समझना । यथा-अधःसप्तम की भवधारणीया पाँच सौ धनुष की, उत्तरवैक्रिया एक हजार धनुष की है। इन सबकी जघन्यतः भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया दोनों अंगुल के संख्यातवें भाग हैं।
तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः शतयोजनपृथक्त्व की । मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः कुछ अधिक एक लाख योजन की है । असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना ? गौतम ! दो प्रकार की है, भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया । भवधारणीया जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः सात हाथ की है। उत्तरवैक्रिया-अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः एक लाख योजन की है । इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों (तक) समझ लेना । इसी प्रकार औधिक वाणव्यन्तरदेवों की समझ लेना । इसी तरह ज्योतिष्कदेवों की भी जानना ।
सौधर्म और ईशान देवों की यावत अच्युतकल्प के देवों तक की भवधारणीया-शरीरावगाहना भी इन्हीं के समान समझना, उत्तरवैक्रिया-शरीरावगाहना भी पूर्ववत् समझना । विशेष यह कि सनत्कुमारकल्प के देवों की भवधारणीया-शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट छह हाथ की है, इतनी ही माहेन्द्रकल्प की है। ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देवों की पाँच हाथ, महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देवों की चार हाथ, एवं आनत, प्राणत, आरण और अच्युत के देवों की शरीरावगाहना तीन हाथ है । ग्रैवेयक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों को एक मात्र भवधारणीया शरीरावगाहना होती है । वह जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः दो हाथ की है। इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिकदेवों को भी समझना । विशेष यह कि उत्कृष्ट एक हाथ की है। सूत्र-५१९
आहारकशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक प्रकार का । यदि आहारकशरीर एक ही प्रकार का है तो वह मनुष्य के होता है अथवा अमनुष्य के ? गौतम ! मनुष्य के आहारकशरीर होता है, मनुष्येतर को नहीं । मनुष्यों में, गौतम ! गर्भज-मनुष्य के आहारकशरीर होता है; सम्मूर्छिम को नहीं । गर्भज-मनुष्य में गौतम ! कर्मभूमिज-गर्भजमनुष्य के आहारकशरीर होता है, अकर्म-भूमिज० और अन्तरद्वीपज को नहीं । कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य में, गौतम ! संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य को आहारकशरीर होता है, असंख्यातवर्षायुष्क को नहीं । संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों में, गौतम ! पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है अपर्याप्तक० को नहीं।
पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों में, गौतम ! सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्ककर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों को आहारकशरीर होता है, न तो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक० को नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भजमनुष्यों में गौतम ! संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों को आहारकशरीर होता है, असंयत-सम्यग्दृष्टि० और संयतासंयतसम्यग्दृष्टि० को नहीं । संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्यों में, गौतम ! प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है, अप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि० को नहीं । प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्यों में, गौतम ! ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भजमनुष्यों के आहारकशरीर होता है, अनूद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत० को नहीं।
भगवन् ! आहारकशरीर किस संस्थान का है ? गौतम ! समचतुरस्रसंस्थान वाला । भगवन् ! आहारक-शरीर
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य देशोन एक हाथ, उत्कृष्ट पूर्ण एक हाथ की है। सूत्र-५२०
भगवन ! तैजसशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, एकेन्द्रिय यावत पंचेन्द्रियतैजस-शरीर। एकेन्द्रियतैजसशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक-तैजसशरीर इस प्रकार औदारिकशरीर के भेद के समान तैजसशरीर को भी चतुरिन्द्रिय तक कहना । पंचेन्द्रिय-तैजसशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, नैरयिक यावत् देवतैजसशरीर । नारकों के वैक्रियशरीर के दो भेद के समान तैजसशरीर के भी भेद कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों के औदारिकशरीर के समान इनके तैजसशरीर को भी कहना । देवों के वैक्रियशरीर के भेद के समान यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों (तक) के तैजस-शरीर के भेदों का कथन करना
भगवन् ! तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! विविध प्रकार का । एकेन्द्रियतैजसशरीर का संस्थान ऐसा ही जानना । पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रियतैजसशरीर का संस्थान, गौतम ! मसूरचन्द्र आकार का है । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों को इनके औदारिकशरीर-संस्थानों के अनुसार कहना | नैरयिकों का तैजसशरीर का संस्थान, इनके वैक्रियशरीर समान है । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों को इनके औदारिकशरीर संस्थानों समान जानना । देवों के तैजसशरीर का संस्थान यावत् अनुत्तरौपपातिक देवों के वैक्रियशरीर समान कहना। सूत्र-५२१
भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी होती है ? गौतम! विष्कम्भ और बाहल्य, अनुसार शरीरप्रमाणमात्र ही होती है । लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट लोकान्त से लोकान्त तक हैं । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! इसी प्रकार पृथ्वी से वनस्पतिकायिक तक पूर्ववत् समझना । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की ? गौतम ! विष्कम्भ एवं बाहल्य से शरीरप्रमाणमात्र होती है । तथा लम्बाई से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट तिर्यक् लोक से लोकान्त तक अवगाहना समझना । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक समझ लेना । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नारक के तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाणमात्र तथा आयाम से जघन्य सातिरेक एक हजार योजन, उत्कृष्ट नीचे की ओर अधःसप्तमनरकपृथ्वी तक, तिरछी यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र तक और ऊपर पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक है । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यंच के तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! द्वीन्द्रिय के समान समझना । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! समयक्षेत्र से लोकान्त तक होती है।
भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत असुरकुमार के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाणमात्र तथा आयाम से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे की
ओर तीसरी पृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक, तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाहरी वेदिका तक एवं ऊपर ईषत् प्राग्भारपृथ्वी तक । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक समझना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं सौधर्म ईशान तक भी इसी प्रकार समझना । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत सनत्कुमार-देव तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! विष्कम्भ एवं बाहल्य से शरीर-प्रमाणमात्र और आयाम से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट नीचे महापाताल (कलश) के द्वितीय त्रिभाग तक, तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र तक और ऊपर अच्युतकल्प तक होती है । इसी प्रकार सहस्रारकल्प के देवों तक समझना । मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत आनतदेव के तैजस-शरीर की अवगाहना ? गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीर प्रमाण और आयाम से जघन्य अंगुल के असंख्या-तवें भाग, उत्कृष्ट-नीचे की ओर अधोलौकिकग्राम तक, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक और ऊपर अच्युतकल्प तक होती है।
इसी प्रकार प्राणत और आरण तक समझना । अच्युतदेव की भी इन्हीं के समान हैं । विशेष इतना है कि ऊपर अपने-अपने विमानों तक होती है । भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत ग्रैवेयकदेव के तैजसशरीर की अवगाहना ? गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र तथा आयाम से जघन्य विद्याधरश्रेणियों
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र तक और उत्कृष्ट नीचे की ओर अधोलौकिकग्राम तक, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक और ऊपर अपने विमानों तक होती है। अनुत्तरौपपातिकदेव भी इसी प्रकार समझना।
भगवन् ! कार्मणशरीर कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का-एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय-कार्मणशरीर। तैजस-शरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना के समान सम्पूर्ण कथन अनुत्तरौपपातिक तक करना । सूत्र -५२२
भगवन् ! औदारिकशरीर के लिए कितनी दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है ? गौतम ! निर्व्याघात से छह दिशाओं से, व्याघात से कदाचित् तीन, चार और पाँच दिशाओं से । भगवन् ! वैक्रियशरीर के लिए कितनी दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है ? गौतम ! नियम से छह दिशाओं से । इसी प्रकार आहारकशरीर को भी समझना । तैजस
और कार्मण को औदारिकशरीर के समान समझना । भगवन् ! औदारिकशरीर के पुद्गलों का उपचय कितनी दिशाओं से होता है ? गौतम ! चय के समान उपचय में भी कहना । उपचय की तरह अपचय भी होता है।
जिसके औदारिकशरीर होता है, क्या उस के वैक्रियशरीर होता है ? (और) जिस के वैक्रियशरीर होता है, क्या उस के औदारिकशरीर (भी) होता है ? गौतम ! जिस के औदारिकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं, जिस के वैक्रियशरीर होता है, उस के औदारिकशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं । जिस के
औदारिकशरीर होता है, उस को आहारकशरीर तथा आहारकशरीर होता है उस के औदारिकशरीर होता है ? गौतम ! जिस के औदारिकशरीर होता है, उस के आहारकशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं, किन्तु जिस को आहारक शरीर होता है, उसको नियम से औदारिकशरीर होता है । जिसके औदारिकशरीर होता है, उसको तैजस-शरीर तथा जिसको तैजसशरीर होता है, उसको औदारिकशरीर होता है ? गौतम ! जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके नियम से तैजसशरीर होता है, और जिसके तैजसशरीर होता है, उसके औदारिकशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं । इसी प्रकार कार्मणशरीर का संयोग भी समझ लेना । जिसको वैक्रियशरीर होता है, उसके आहार-कशरीर तथा जिसको आहारकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर भी होता है ? गौतम ! जिस को वैक्रियशरीर होता है, उसके आहारकशरीर नहीं होता, तथा जिसके आहारकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर नहीं होता है । औदारिक के साथ तैजस एवं कार्मण के समान आहारकशरीर के साथ भी तैजस-कार्मणशरीर का कथन करना । जिसको तैजसशरीर होता है, उसके कार्मणशरीर तथा जिसको कार्मणशरीर होता है, उसको तैजसशरीर होता है ? गौतम ! हाँ, होता है। सूत्र - ५२३
भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पाँच शरीरों में से, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से, कौन, किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प आहारकशरीर है । (उनसे) वैक्रियशरीर, असंख्यातगुणा है । (उनसे) औदारिकशरीर असंख्यातगुणा है । तैजस और कार्मण शरीर दोनों तुल्य हैं, (किन्तु औदारिकशरीर से) अनन्तगुणा है । प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम आहारकशरीर हैं । (उनसे) वैक्रियशरीर असंख्यातगुणा है । (उनसे) औदारि-कशरीर असंख्यातगुणा है । (उनसे) तैजसशरीर अनन्तगुणा है । (उनसे) कार्मणशरीर अनन्तगुणा है । द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से-द्रव्य से, आहारकशरीर सबसे अल्प हैं-(उनसे) वैक्रियशरीर असंख्यातगुणे हैं । (उनसे) औदारिकशरीर, असंख्यातगुणे हैं । औदारिकशरीरों से द्रव्य से आहारकशरीर प्रदेशों से अनन्तगुणा है । (उनसे) वैक्रियशरीर प्रदेशों से असंख्यातगुणा है (उनसे) औदारिकशरीर असंख्यातगुणा है । तैजस और कार्मण, दोनों शरीर द्रव्य से तुल्य हैं । तथा द्रव्य से अनन्तगुणे हैं । (उनसे) तैजसशरीर प्रदेशों से अनन्तगुणा है । (उनसे) कार्मणशरीर प्रदेशों से अनन्तगुणा है। सूत्र-५२४
भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पाँच शरीरों में से, जघन्य-अवगाहना, उत्कृष्टअवगाहना एवं जघन्योत्कृष्ट-अवगाहना की दृष्टि से, कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? गौतम ! सबसे कम औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना है । तैजस और कार्मण, दोनों शरीरों की अवगाहना परस्पर तुल्य है,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र किन्तु औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना से विशेषाधिक है । (उससे) वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । (उससे) आहारकशरीर की असंख्यातगुणी है।
उत्कृष्ट अवगाहना से सबसे कम आहारक शरीर की अवगाहना है, उनसे औदारिक शरीर की संख्यात गुणी है, उनसे वैक्रिय शरीर की असंख्यातगुणी है, उनसे तैजस कार्मण शरीर की असंख्यातगुणी है । जघन्योत्कृष्ट अवगाहना से-सबसे अल्प औदारिकशरीरावगाहना है, तैजस कार्मण की उनसे विशेषाधिक है, वैक्रियशरीराव-गाहना असंख्यातगुणी है, आहारकशरीर की उससे असंख्यातगुणी है।
पद-२१-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२२-क्रिया सूत्र-५२५
भगवन ! क्रियाएं कितनी हैं ? गौतम ! पाँच-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया । कायिकीक्रिया ? गौतम ! दो प्रकार की । अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्तकायिकी । आधिकरणीकीक्रिया ? गौतम ! दो प्रकार की है, संयोजनाधिकरणिकी और निर्वर्तनाधिकरणिकी । प्राद्वेषिकीक्रिया ? गौतम! तीन प्रकार की है, स्व का, पर का अथवा दोनों का मन अशुभ किया जाता है । पारितापनिकीक्रिया ? गौतम ! तीन प्रकार की है, जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता वेदना उत्पन्न की जाती है । प्राणातिपातिक्रिया ? गौतम ! तीन प्रकार की है, जिससे स्वयं को, दूसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है। सूत्र-५२६
भगवन् ! जीव सक्रिय होते हैं, अथवा अक्रिय ? गौतम ! दोनों । क्योंकि-गौतम ! जीव दो प्रकार के हैं, संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक | जो असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं । सिद्ध अक्रिय हैं और जो संसारसमापन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं-शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक । जो शैलेशी-प्रतिपन्नक होते हैं, वे अक्रिय हैं और जो अशैलेशी-प्रतिपन्नक हैं, वे सक्रिय होते हैं । क्या जीवों को प्राणातिपात से प्राणातिपातक्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! लगती है । गौतम ! छह जीवनिकायों के विषय में ये क्रिया लगती है । भगवन् ! क्या नारकों को प्राणातिपात से प्राणातिपात क्रिया लगती है ? (हाँ) गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार निरन्तर वैमानिकों तक का कहना।
क्या जीवों को मृषावाद से मृषावाद क्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! होती है । गौतम ! सर्वद्रव्यों के विषय में मृषावाद क्रिया लगती है । इसी प्रकार नैरयिकों से लगातार वैमानिकों तक जानना । जीवों को अदत्तादान से अदत्तादानक्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! होती है । गौतम ! ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में यह क्रिया होती है । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक समझना । जीवों को मैथुन से (मैथुन-) क्रिया लगती है ? हाँ, होती है। गौतम ! रूपों अथवा रूपसहगत द्रव्यों के विषय में यह क्रिया लगती है । इसी प्रकार नैरयिकों से निरन्तर वैमानिकों तक कहना । जीवों के परिग्रह से (परिग्रह) क्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! होती है । गौतम ! समस्त द्रव्यों के विषय में यह क्रिया लगती है । इसी तरह नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । इसी प्रकार क्रोध, यावत् लोभ से, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषा एवं मिथ्यादर्शनशल्य से समस्त जीवों, नारकों यावत् वैमानिकों तक कहना । ये अठारह दण्डक हुए। सूत्र-५२७
भगवन् ! (एक) जीव प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सात अथवा आठ । इसी प्रकार एक नैरयिक से एक वैमानिक देव तक कहना । भगवन् ! (अनेक) जीव प्राणातिपात से कितनी कर्मप्र-कृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सप्तविध या अष्टविध । भगवन् ! (अनेक) नारक प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सप्तविध अथवा (अनेक नारक) सप्तविध और (एक नारक) अष्टविध, अथवा (अनेक नारक) सप्तविध और (अनेक) अष्टविध कर्मबन्धक होते हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमार तक कहना । पृथ्वी यावत् वनस्पतिकायिक के विषय में औधिक जीवों के समान कहना । अवशिष्ट समस्त जीवों में नैरयिकों के समान कहना। इस प्रकार समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन-तीन भंग सर्वत्र मिथ्यादर्शनशल्य तक कहना। इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व को लेकर छत्तीस दण्डक होते हैं। सूत्र-५२८
भगवन् ! एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता हुआ कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच । इसी प्रकार एक नैरयिक से एक वैमानिक तक कहना । (अनेक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधते हए, कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् समस्त कथन कहना । इस प्रकार मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र शेष सर्व कर्मप्रकृतियों को वैमानिक तक समझ लेना । एकत्व और पृथक्त्व के सोलह दण्डक होते हैं।
भगवन् ! (एक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच और कदाचित् अक्रिय । भगवन् ! (एक) जीव, (एक) नारक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित चार और कदाचित् अक्रिय । इसी प्रकार एक जीव की, (एक) स्तनितकुमार तक की क्रियाएं कहना । एक जीव का एक पृथ्वीकायिक, यावत् वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक एवं एक मनुष्य की अपेक्षा से कहना । एक वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक की अपेक्षा क्रियासम्बन्धी आलापक नैरयिक के समान कहना।
भगवन ! (एक) जीव, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओंवाला होता है ? गौतम ! एक जीव के समान ही कथन करना । भगवन् ! (एक) जीव, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! एक जीव के समान ही जानना । अनेक जीव का एक जीव के साथ, अनेक जीव का अनेक जीव के साथ भी इसी प्रकार कथन कर लेना । इसी प्रकार अनेक जीवों के अनेक असुरकुमारों से यावत् (अनेक) वैमानिकों की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक कहना । विशेष यह कि (अनेक) औदारिकशरीरधारकों से जब क्रियासम्बन्धी आलापक कहने हों, तब उक्त अनेक जीवों की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक के समान कहना।।
(एक) नैरयिक, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियावाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रियाओं वाला । भगवन् ! (एक) नैरयिक (एक) नैरयिक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन और कदाचित् चार क्रियाओं वाला । इसी प्रकार यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से कहना । विशेष यह कि (एक) औदारिकशरीरधारक जीव की अपेक्षा से कहने हों, तब एक जीव की अपेक्षा के समान कहना । भगवन् ! (एक) नारक, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रियाओं वाला । भगवन् ! एक नैरयिक, अनेक नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन और कदाचित् चार क्रियाओंवाला । इस प्रकार दण्डक समान यह दण्डक भी कहना । इसी प्रकार यावत् अनेक वैमानिकों की अपेक्षा से कहना । विशेष यह कि (एक) नैरयिक के (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से पंचम क्रिया नहीं होती।
भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओंवाले होते हैं ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रियाओं वाले । इसी प्रकार यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से कहना । विशेष यह कि (एक) नैरयिक या (एक) देव की अपेक्षा से पंचम क्रिया नहीं होती । भगवन् ! (अनेक) नारक, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओ वाले होते हैं ? गौतम ! तीन, चार और पाँच क्रियाओं वालें भी होते हैं । भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? गौतम ! तीन अथवा चार । इसी प्रकार अनेक वैमानिकों की अपेक्षा से कहना । विशेष यह कि अनेक औदारिकशरीरधारी जीवों की अपेक्षा से, आलापक में कथित अनेक जीवों के क्रियासम्बन्धी आलापक के समान कहना।
भगवन् ! (एक) असुरकुमार, एक जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओंवाला होता है ? गौतम ! नारक की अपेक्षा से चार दण्डक समान असुरकुमार की अपेक्षा से भी कहना । इस प्रकार का उपयोग लगाकर विचार कर लेना चाहिए कि एक जीव और एक मनुष्य ही अक्रिय कहा जाता है, शेष सभी जीव अक्रिय नहीं कहे जाते । सर्व जीव,
औदारिक शरीरधारी अनेक जीवों की अपेक्षा से-पाँच क्रिया वाले होते हैं | नारकों और देवों की अपेक्षा से पाँच क्रियाओंवाले नहीं कहे जाते । इस प्रकार एक-एक जीव के पद में चार-चार दण्डक कहना । यों कुल सौ दण्डक होते हैं । ये सब एक जीव आदि से सम्बन्धित दण्डक हैं। सूत्र-५२९
भगवन् ! क्रियाएं कितनी हैं ? गौतम ! पाँच हैं । कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया । भगवन् ! नारकों के कितनी क्रियाएं हैं ? गौतम ! पाँच, पूर्ववत् ! इसी प्रकार वैमानिकों में भी जानना । जिस जीव के कायकीक्रिया होती
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र है, उसको आधिकरणिकीक्रिया तथा जिस जीव के आधिकरणिकीक्रिया होती है, उसके कायिकीक्रिया होती है ? गौतम ! वे दोनों होती हैं । जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है उसके प्राद्वेषिकीक्रिया और जिसके प्राद्वेषि-कीक्रिया होती है, उसके कायिकीक्रिया होती है ? गौतम ! दोनों होती हैं । जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, उसके पारितापनिकी तथा जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, उसके कायिकीक्रिया होती है ? गौतम ! जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, उसके पारितापनिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं, किन्तु जिसके पारितापनिकीक्रिया होती है, उसके कायिकीक्रिया नियम से होती है। इसी प्रकार प्राणातिपातक्रिया भी जानना।
इस प्रकार प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का परस्पर सहभाव नियम से है । जिसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएं होती हैं, उसके आगे की दो क्रियाएं कदाचित होती हैं, कदाचित नहीं: जिसके आगे की दो क्रियाएं होती हैं, उसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएं नियम से होती हैं । जिसके पारितापनिकीक्रिया होती है, उसके प्राणातिपातक्रिया तथा जिसके प्राणाति-पातक्रिया होती है, उसके पारितापनिकीक्रिया होती है ? गौतम ! जिसको पारितापनिकीक्रिया होती है, उसको प्राणातिपातक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं, किन्तु जिस जीव के प्राणातिपातक्रिया होती है, उसके पारिता-पनिकीक्रिया नियम से होती है।
जिस नैरयिक के कायिकीक्रिया होती है उसके आधिकरणिकीक्रिया होती है ? गौतम ! सामान्य जीव के समान समझ लेना । इसी प्रकार वैमानिक तक कहना । भगवन् ! जिस समय जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उस समय आधिकरणिकीक्रिया तथा जिस समय आधिकरणिकीक्रिया होती है, उस समय कायिकीक्रिया होती है ? क्रियाओं के परस्पर सहभाव के समान यहाँ भी वैमानिक तक कहना । जिस देश में जीव के कायिकीक्रिया होती है, उस देश में आधिकरणिकीक्रिया होती है ? पूर्ववत् वैमानिक तक कहना । जिस प्रदेश में जीव के कायिकीक्रिया होती है, उस प्रदेश में आधिकरणिकीक्रिया होती है ? पूर्ववत् जानना । इस प्रकार जिस जीव के, जिस समय में, जिस देश में और जिस प्रदेश में ये चार दण्डक हैं।
भगवन् ! आयोजिता क्रियाएं कितनी हैं ? गौतम ! पाँच-कायिकी यावत् प्राणातिपात क्रिया । नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक इसी प्रकार कहना । जिस जीव के कायिकी-आयोजिताक्रिया होती है, उसके आधिकरणिकीआयोजितक्रिया और जिसके आधिकरणिकी-आयोजिताक्रिया होती है, उसके कायिकी-आयोजिताक्रिया होती है? पूर्ववत् इस तथा अन्य अभिलाप के साथ जिस जीव में, जिस समय में, जिस देश में और जिस दण्डक यावत वैमानिकों तक कहना । भगवन ! जिस समय जीव कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है । गौतम ! कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा पारितापनिकीक्रिया और प्राणातिपातक्रिया से स्पृष्ट होता है, कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा पारितापनिकीक्रिया से स्पृष्ट होता है, किन्तु प्राणातिपातक्रिया से नहीं, कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा पारितापनिकीक्रिया और प्राणातिपातक्रिया से (भी) अस्पृष्ट होता है तथा कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादेशिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकीक्रिया और प्राणातिपातक्रिया से भी अस्पष्ट होता है। सूत्र-५३०
भगवन् ! क्रियाएं कितनी हैं ? गौतम ! पाँच-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । भगवन् ! आरम्भिकीक्रिया किसके होती है ? गौतम ! किसी प्रमत्तसंयत को होती है । पारिग्रहिकीक्रिया ? गौतम ! किसी संयतासंयत के होती है | मायाप्रत्ययाक्रिया ? गौतम ! किसी अप्रमत्तसंयत के होती है । अप्रत्याख्यानक्रिया ? गौतम ! किसी अप्रत्याख्यानी के होती है। मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया ? गौतम ! किसी मिथ्यादर्शनी के होती है।
भगवन् ! नैरयिकों को कितनी क्रियाएं हैं ? गौतम ! पाँच-आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है उस के पारिग्रहिकीक्रिया तथा जिस के पारिग्रहिकी
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र क्रिया होती है, क्या उस के आरम्भिकीक्रिया होती है ? गौतम ! जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है, उस के पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं, जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है, उस के आरम्भिकी क्रिया नियम से होती है । जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है, उसको मायाप्रत्ययाक्रिया तथा जिसके माया-प्रत्ययाक्रिया होती है उसके आरम्भिकीक्रिया होती है ? गौतम ! जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है, उसको नियम से मायाप्रत्ययाक्रिया होती है, जिसको मायाप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं।
जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानक्रिया तथा जिसको अप्रत्याख्यानकीक्रिया होती है, उसको आरम्भिकीक्रिया होती है ? गौतम ! जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानिकीक्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं: जिस जीव को अप्रत्याख्यानिकीक्रिया होती है, उस नियम से होती है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शनप्रत्यया भी जानना । इसी प्रकार पारिग्रहिकी का आगे की तीन क्रियाओं के साथ सहभाव समझ लेना । जिसके मायाप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके आगे की दो क्रियाएं कदाचित होती है, कदाचित नहीं, जिसके आगे की दो क्रियाएं होती हैं, उसके मायाप्रत्ययाक्रिया नियम से होती है। जिसको अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं, जिसको मिथ्या-दर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानक्रिया नियम से होती है।
नारक को प्रारम्भ की चार क्रियाएं नियम से होती है । जिसके ये चार क्रियाएं होती हैं, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया भजना से होती है, जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसको ये चारों क्रियाएं नियम से होती हैं। इसी प्रकार स्तनितकुमार तक में भी समझना । पृथ्वीकायिक से चतुरिन्द्रिय तक पाँचों ही क्रियाएं परस्पर नियम से होती हैं । पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक को प्रारम्भ की तीन क्रियाएं परस्पर नियम से होती हैं । जिसको ये तीनों होती हैं, उसको आगे की दो विकल्प से होती हैं । जिसको, आगे की दोनों क्रियाएं होती हैं, उसको ये तीनों नियम से होती हैं। जिसको अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया विकल्प से होती है, जिसमो मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानक्रिया अवश्यमेव होती है । मनुष्य में भी सामान्य जीव के समान समझना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव में नैरयिक के समान समझना । जिस समय जीव के आर-म्भिकीक्रिया होती है, उस समय पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? क्रियाओं के परस्पर सहभाव के इस प्रकार-जिस जीव के, जिस समय में, जिस देश में और जिस प्रदेश में यों चार दण्डकों के आलापक कहना । नैरयिकों के समान वैमानिकों तक समस्त देवों के विषय में कहना। सूत्र-५३१
भगवन् ! क्या जीवों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? हाँ, होता है । किस (विषय) में प्राणातिपातविरमण होता है ? गौतम ! षड् जीवनिकायों में होता है । भगवन् ! क्या नैरयिकों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । विशेष यह कि मनुष्यों का प्राणातिपातविरमण (सामान्य) जीवों के समान कहना । जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? हाँ, होता है । मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण गौतम ! सर्वद्रव्यों में होता है । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण का कथन करना । विशेष यह कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता। सूत्र-५३२
भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? गौतम ! सप्तविध, अष्टविध, षड्विध अथवा एकविधबन्धक या अबन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्य में भी कहना । भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! (१) समस्त जीव सप्तविध और एकविधबन्धक होते हैं । अथवा (१) अनेक सप्तविध-बन्धक अनेक एकविधबन्धक होते हैं और एक अष्टविध-बन्धक, (२) अनेक सप्तविधबन्धक, अनेक एकविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक, (३) अथवा अनेक सप्त-विधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्धक, (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविध-बन्धक तथा षड्
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र विधबन्धक, (५) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक, (६) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अबन्धक होते हैं । इसी तरह अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक एकविधबन्धक के साथ-(१) एक और अनेक अष्टविधबन्धक एवं षड्विधबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी, (२) एक और अनेक अष्टविधबन्धक एवं अबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी, (३) एक और अनेक षड्विधबन्धक एवं अबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी समझ लेना । इसी तरह ही अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक एकविध-बन्धक के साथ-(१) अष्टविधबन्धक, (२) षड्विधबन्धक, (३) अबन्धक को एक और अनेक भेद लेकर एक अष्टभंगी होती है । सब मिलाकर कुल २७ भंग होते हैं । इसी प्रकार ही प्राणातिपात विरत मनुष्यों के यहीं २७ भंग कह देना ।
इसी प्रकार मृषावादविरत यावत् मायामृषाविरत एक जीव तथा एक मनुष्य को भी समझना।
मिथ्यादर्शन-शल्यविरत जीव कितनी कर्मप्रकतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सप्तविध, अष्टविध, षडविध और एकविधबन्धक अथवा अबन्धक होता है । भगवन ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (एक) नैरयिक कितनी कर्मप्रकतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सप्तविध अथवा अष्टविधबन्धक होता है; पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक तक यहीं जानना । (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में सामान्य जीव के समान कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक में एक नैरयिक के समान कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त २७ भंग कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं(१) (अनेक) सप्त-विधबन्धक होते हैं, (२) अथवा (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं और (एक) अष्टविधबन्धक होता है, (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं । इसी प्रकार यावत् (अनेक) वैमानिकों को कहना विशेष यह कि (अनेक) मनुष्यों में जीवों के समान कहना। सूत्र-५३३
भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के आरम्भिकी क्रिया होती है ? गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं। प्राणातिपातविरत जीव के क्या पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । प्राणातिपात-विरत जीव के मायाप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं । प्राणातिपातविरत जीव के क्या अप्रत्याख्यानप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी तरह मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया भी नहीं होती । इसी प्रकार प्राणातिपातविरत मनुष्य को भी जानना । इसी प्रकार मायामृषाविरत जीव और मनुष्य के सम्बन्ध में भी कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानक्रिया तक जानना । (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती।
भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक के क्या आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम! आरम्भिकी, यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया भी होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक समझना । मिथ्यादर्शनशल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक को गौतम ! आरम्भिकी यावत् मायाप्रत्ययाक्रिया होती है । अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती है । मनुष्य को जीव के समान समझना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों को नैरयिक के समान समझना।
भगवन् ! इन आरम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सब से कम मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रियाएं हैं । (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएं विशेषाधिक हैं। (उनसे) पारिग्रहिकीक्रियाएं विशेषाधिक हैं । (उनसे) आरम्भिकीक्रियाएं विशेषाधिक हैं, (और उनसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएं विशेषाधिक हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२३-कर्मप्रकृति
उद्देशक-१ सूत्र-५३४
कर्म-प्रकृतियाँ कितनी हैं ?, किस प्रकार बंधती हैं ?, कितने स्थानों से कर्म बाँधता है ?, कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है ?, किस का अनुभाव कितने प्रकार का होता है ? सूत्र-५३५
भगवन् !कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम! आठ, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय । भगवन् ! नैरयिकों की कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? गौतम ! पूर्ववत् आठ, वैमानिक तक यहीं समझना सूत्र-५३६
भगवन ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावर-णीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शनमोहनीय कर्म, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को और इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है । नारक आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त समझना । बहुत-से जीव आठ कर्मप्रकृतियाँ कैसे बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार बहुत-से वैमानिकों तक समझना। सूत्र-५३७
भगवन् ! जीव कितने स्थानों से ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता है ? गौतम ! दो स्थानों से, यथा-राग से और द्वेष से। राग दो प्रकार का है, माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है, क्रोध और मान । इस प्रकार वीर्य से उपार्जित चार स्थानों से जीव ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता है । नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से । इसी प्रकार बहत से नैरयिकों से वैमानिकों तक समझना । इसी प्रकार दर्शनावरणीय से अन्तरायकर्म तक समझना । इस प्रकार एकत्व और बहत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। सूत्र -५३८
भगवन् ! क्या जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! कोई जीव वेदता है, कोई नहीं । नारक ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! नियम से वेदता है । वैमानिकपर्यन्त इसी प्रकार जानना, किन्तु मनुष्य के विषय में जीव के समान समझना । क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । ज्ञानावरणीय के समान दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म के विषय में समझना । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के जीव द्वारा वेदन में भी इसी प्रकार जानना, किन्तु मनुष्य अवश्य वेदता है । इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक हैं । सूत्र-५३९
भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, सचित्त, चित्त और अपचित्त किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त. विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदयप्राप्त, जीव के द्वारा कत. निष्पादित और परिणामित. स्वयं के द्वारा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरणा-प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को, स्थिति को, भव को, पुद् गल को तथा पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभव कहा है ? गौतम ! दस प्रकार काश्रोत्रावरण, श्रोत्रविज्ञानावरण, नेत्रावरण, नेत्रविज्ञानावरण, घ्राणावरण, घ्राणविज्ञानावरण, रसावरण, रसविज्ञानावरण, स्पर्शावरण और स्पर्शविज्ञानावरण | ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जो पुद्गल, पुद्गलों या पुद्गल -परिणाम को अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, उनके उदय से जानने योग्य को, जानने का इच्छुक होकर भी
और जानकर भी नहीं जानता अथवा तिरोहित ज्ञानवाला होता है । गौतम ! यह है ज्ञानावरणीय-कर्म । और यह है दस प्रकार का अनुभाव । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके दर्शनावरणीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! नौ प्रकार का, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला तथा स्त्यानर्द्धि एवं चक्षुदर्शना-वरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण । दर्शनावरण के उदय से जो पुद्गल, पुद्गलों अथवा पुद् गल-परिणाम को या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, अथवा उनके उदय से देखने योग्य को, देखना चाहते हुए भी और देखकर भी नहीं देखता अथवा तिरोहित दर्शनवाला भी हो जाता है । गौतम ! यह है दर्शनावरणीयकर्म।
जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को पाकर सातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! आठ प्रकार का-मनोज्ञशब्द, मनोज्ञरूप, मनोज्ञगन्ध, मनोज्ञरस, मनोज्ञस्पर्श, मन का सौख्य, वचन का सौख्य
और काया का सौख्य । जिस पुदगल का यावत स्वभाव से पुदगलों के परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा उनके उदय से सातावेदनीयकर्म को वेदा जाता है । गौतम ! यह है सातावेदनीयकर्म ।
___ जीव के द्वारा बद्ध यावत् असातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? पूर्ववत् जानना किन्तु 'मनोज्ञ' के बदले सर्वत्र 'अमनोज्ञ' यावत् काया का दुःख जानना।
जीव के द्वारा बद्ध...यावत् मोहनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! पाँच प्रकार कासम्यक्त्व-वेदनीय, मिथ्यात्व-वेदनीय, सम्यग्-मिथ्यात्व-वेदनीय, कषाय-वेदनीय और नो-कषाय-वेदनीय । जिस पुद्गल का यावत् स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का अथवा उनके उदय से मोहनीयकर्म वेदा जाता है।
जीव के द्वारा बद्ध... यावत् आयुष्यकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! चार प्रकार का-नारकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । जिस पुद्गल का यावत् पुद्गलों के परिणाम का या उनके उदय से आयुष्यकर्म वेदा जाता है, गौतम ! यह है-आयुष्यकर्म ।
जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! चौदह प्रकार का-इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट गन्ध, इष्ट रस, इष्ट स्पर्श, इष्ट गति, इष्ट स्थिति, इष्ट लावण्य, इष्ट यशोकीर्ति, इष्ट उत्थान-कर्म-बलवीर्य-पुरुषकार-पराक्रम, इष्ट-स्वरता, कान्त-स्वरता, प्रिय-स्वरता और मनोज्ञ-स्वरता । जो पुद्गल यावत् पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से शुभनामकर्म को वेदा जाता है। ____ अशुभनामकर्म का जीव के द्वारा बद्ध यावत् कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! पूर्ववत् । -अनिष्ट शब्द आदि यावत् हीत-स्वरता, दीन-स्वरता, अनिष्ट-स्वरता और अकान्त-स्वरता । जो पुद्गल आदि का वेदन किया जाता है यावत् अथवा उनके उदय से दुःख (अशुभ) नामकर्म को वेदा जाता है।
जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म को कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! आठ प्रकार का-जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य की विशिष्टता । जो पुद्गल यावत् पुद्गलों के परिणाम को वेदा जाता है अथवा उनके उदय से उच्चगोत्रकर्म को वेदा जाता है।
जीव के द्वारा बद्ध यावत् नीचगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! पूर्ववत् जाति यावत् ऐश्वर्यविहीनता । पुदगल का, यावत् पुदगलों के परिणाम जो वेदा जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीचगोत्रकर्म का वेदन किया जाता है।
जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! पाँच प्रकार कादानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । पुद्गल का यावत् पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से जो अन्तरायधर्म को वेदा जाता है ।
पद-२३ उद्देशक-२ सूत्र-५४०
भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का आभिनिबोधिक यावत् केवलज्ञानावरणीय । दर्शनावरणीयकर्म
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-निद्रा-पंचक और दर्शनचतुष्क । निद्रा-पंचक कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का निद्रा यावत् स्त्यानगृद्धि । दर्शनचतुष्क कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार काचक्षुदर्शनावरण यावत् केवलदर्शनावरण | वेदनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! वह दो प्रकार का है-सातावेदनीय और असातावेदनीय । सातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! आठ प्रकार का-मनोज्ञशब्द यावत् कायसुखता । असातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! आठ प्रकार का, अमनोज्ञ शब्द यावत् कायद्
भगवन् ! मोहनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शन-मोहनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय । चारित्रमोहनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! सोलह प्रकार का-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; प्रत्याख्याना-वरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ । नोकषाय-वेदनीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! नौ प्रकार का-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ।
आयुकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का-नारकायु यावत् देवायु ।।
नामकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! बयालीस प्रकार का-गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, शरीरांगोपांगनाम, शरीरबन्धननाम, शरीरसंघातनाम, संहनननाम, संस्थाननाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, आनुपूर्वीनाम, उच्छ्वासनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, विहायोगतिनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशःकीर्तिनाम, अयश:कीर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थंकरनाम ।
गतिनामकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, नरकगतिनाम यावत् देवगतिनाम । जातिनामकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का-एके-न्द्रियजातिनाम यावत् पंचेन्द्रियजातिनाम । शरीरनामकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का-औदारि-कशरीरनाम यावत् कार्मणशरीरनाम । शरीरांगोपांगनाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का- औदारिक, वैक्रिय और आहारकशरीरांगोपांग नाम । शरीरबन्धननाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का-औदारिक० यावत् कार्मणशरीरबन्धननाम । शरीरसंघातनाम ? गौतम ! पाँच प्रकार का है-औदारिक० यावत् कार्मणशरीरसंघातनाम । संहनननाम ? गौतम ! छह प्रकार का है, वज्रऋषभनाराच०, ऋषभनाराच०, नाराच०, अर्द्धनाराच०, कीलिका और सेवार्त्तसंहनननामकर्म । संस्थाननाम? गौतम ! छह प्रकार का है, समचतुरस्र०, न्यग्रोधपरिमण्डल०, सादि०, वामन०, कुब्ज० और हुण्डकसंस्थाननामकर्म ।
वर्णनामकर्म ? गौतम ! पाँच प्रकार का है, यथा-कालवर्णनाम यावत् शुक्लवर्णनाम । गन्धनामकर्म ? गौतम ! दो प्रकार का, सुरभिगन्धनाम और दुरभिगन्धनामकर्म । भगवन् ! रसनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वह पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा-तिक्तरसनाम यावत् मधुररसनामकर्म । स्पर्शनामकर्म ? गौतम ! आठ प्रकार का है, कर्कशस्पर्शनाम यावत् रूक्षस्पर्शनामकर्म । अगुरुलघुनाम एक प्रकार का है । उपघातनाम एक प्रकार का है। पराघातनाम एक प्रकार का है । आनुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का है-नैरयिकानुपूर्वीनाम यावत् देवानुपूर्वीनामकर्म । उच्छ्वासनाम एक प्रकार का है | शेष सब तीर्थंकरनामकर्म तक एक-एक प्रकार का है | विशेष यह कि विहायोगतिनाम दो प्रकार का है, यथा-प्रशस्त० और अप्रशस्तविहायोगतिनाम कर्म ।
गोत्रकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का है, यथा-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्चगोत्रकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! आठ प्रकार का है, जातिविशिष्टता यावत् ऐश्वर्यविशिष्टता । नीचगोत्र भी आठ प्रकार का है । किन्तु यह उच्चगोत्र से विपरीत है, यथा-जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता।
अन्तरायकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का है, यथा-दानान्तराय यावत् वीर्यान्तरायकर्म ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-५४१
भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम । उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है । सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेक का काल है । निद्रापंचक की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्या-तवाँ भाग कम, सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । उसका अबाधा-काल तीन हजार वर्ष का है तथा सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेककाल है । भगवन् ! दर्शनचतुष्क कर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है तथा सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेक-काल है। सातावेदनीयकर्म की स्थिति ईर्यापथिक-बन्धक की अपेक्षा जघन्य-उत्कृष्ट दो समय की, साम्परायिक-बन्धक की अपेक्षा जघन्य बारह मुहर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम । इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। असातावेदनीयकर्म की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग की, उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है।
भगवन् ! सम्यक्त्व-वेदनीय ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम की । मिथ्यात्व-वेदनीय की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम एक सागरोपम की है और उत्कृष्ट सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की । इसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है तथा कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर कर्मनिषेककाल है । सम्यग-मिथ्यात्ववेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त्त, उत्कृष्ट स्थिति भी अन्त-मुहर्त की। कषाय-द्वादशक की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से चार भाग की, उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल चार हजार वर्ष का है तथा निषेककाल पूर्ववत् । संज्वलन-क्रोध ? गौतम ! जघन्य दो मास, उत्कृष्ट चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। इसका अबाधाकाल चार हजार वर्ष का है, यावत् निषेक समझ लेना । मान-संज्वलन ? गौतम ! जघन्य एक मास की, उत्कृष्ट क्रोध की स्थिति के समान है । माया-संज्वलन ? गौतम ! जघन्य अर्धमास, उत्कृष्ट स्थिति क्रोध के बराबर है। लोभ-संज्वलन की स्थिति? जघन्य अन्तर्महर्त्त, उत्कष्ट स्थिति क्रोध के समान।।
स्त्रीवेद की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से डेढ भाग की, उत्कृष्ट पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है । पुरुषवेद की स्थिति? जघन्य आठ संवत्सर की, उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है | इसका अबाधाकाल एक हजार वर्ष है। निषेककाल पूर्ववत् । नपुंसक-वेद की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम, सागरोपम के दो सप्तमांश भाग, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है । हास्य और रति की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के एक सप्तमांश भाग, उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तथा इसका अबाधाकाल एक हजार वर्ष का है। अरति, भय, शोक और जुगुप्सा की स्थिति? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। इनका अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है।
भगवन् ! नरकायु की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त-अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट करोड़ पूर्व के तृतीय भाग अधिक तेतीस सागरोपम । तिर्यंचायु की स्थिति ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक तीन पल्योपम की है । इसी प्रकार मनुष्यायु में जानना । देवायु की स्थिति नरकायु के समान जानना । नरकगति-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम । इसका अबाधाकाल दो हजार वर्ष है। तिर्यंचगतिनामकर्म की स्थिति नपुंसकवेद के समान है।
मनुष्यगति-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के देढ
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है | अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष है | भगवन् ! देवगतिनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के एक सप्तमांश भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति पुरुषवेद की स्थिति के तुल्य है।
एकेन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम । इसका अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है । द्वीन्द्रिय-जातिनामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के नव पैतीशांशवें भाग की है
और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है । त्रीन्द्रियजातिनामकर्म की स्थिति ? जघन्य पूर्ववत् । उत्कृष्ट अठारह कोडाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है । चतुरिन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न । हे गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योतम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के नव पैतीतांश भाग की, उत्कृष्ट अठारह कोडाकोडी सागरोपम है। अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष है । पंचेन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है।
औदारिक-शरीर-नामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार समझना । वैक्रिय-शरीर-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल बीस वर्ष का है | आहारक-शरीर-नामकर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तः सागरोपम कोड़ाकोड़ी की है । तैजस और कार्मण-शरीर-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल दो हजार वर्ष है। औदारिक०, वैक्रिय० और आहारकशरीरांगोपांग, नामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार है । पाँचों शरीरबन्धननामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार है।
पाँचों शरीरसंघात-नामकर्मों की स्थिति शरीर-नामकर्म की स्थिति के समान है । वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्म की स्थिति रति-नामकर्म के समान है । ऋषभनाराचसंहनननामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के छह पैतीशांश भाग की, उत्कृष्ट बारह कोडाकोड़ी सागरोपम है अबाधाकाल सौ वर्ष का है । नाराचसंहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के सात पैतीशांश भाग की, उत्कृष्ट चौहद कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल चौदह सौ वर्ष का है । अर्द्ध-नाराच संहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के आठ पैतीशांश भाग की, उत्कृष्ट सोलह कोडाकोड़ी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल सोलह वर्ष का है । कीलिकासंहनन-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के नव पैतीशांश भाग की, उत्कृष्ट अठारह कोडाकोड़ी सागरोपम है । इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है । सेवार्त्तसंहनन-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। संहनननामकर्मों के समान संस्थाननामकर्मों की भी स्थिति कहना।
शुक्लवर्ण-नामकर्म की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के एक सप्तमांश भाग, उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अबाधाकाल १००० वर्ष का है । पीत वर्ण-नामकर्म की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के पाँच अट्ठावीशांश भाग की, उत्कृष्ट साढ़े बारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अबाधाकाल साढ़े बारह सौ वर्ष का है । रक्त वर्ण-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ६/२८ भाग की, उत्कृष्ट पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अबाधा-काल १५०० वर्ष का है । नीलवर्णनामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ७/२८ भाग की, उत्कृष्ट साढ़े सत्तरह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल साढ़े सत्तरह सौ वर्ष का है । कृष्णवर्ण-नामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन के समान है । सुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति, शुक्लवर्ण-नामकर्म के समान है । दुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति सेवार्त
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र संहनन-नामकर्म के समान है । मधुर आदि रसों की स्थिति, वर्गों के समान उसी क्रम से कहना । अप्रशस्त स्पर्श की स्थिति सेवार्तसंहनन के समान तथा प्रशस्त स्पर्श की स्थिति शुक्लवर्ण-नामकर्म के समान कहना । अगुरुलघु-नामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन के समान जानना । इसी प्रकार उपघात और पराघात नामकर्म में भी कहना ।
नरकानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के दो सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । २००० वर्ष का अबाधाकाल है । तिर्यंचानुपूर्वी की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के दो सप्तमांश भाग है और उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है । मनुष्यानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष है। देवानपर्वी-नामकर्म की स्थिति? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के देढ सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । अबाधाकाल एक हजार वर्ष है।
उच्छवास-नामकर्म की स्थिति ? गौतम ! तिर्यंचानपूर्वी के समान है । इसी प्रकार आतप और उद्योत - नामकर्म की भी स्थिति जानना । प्रशस्तविहायोगति-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग की, उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । एक हजार वर्ष का अबाधा-काल है । अप्रशस्तविहायोगति-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग है तथा उत्कृष्ट बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अबाधाकाल २००० वर्ष है । त्रस और स्थावर-नामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार जानना । सूक्ष्म-नामकर्म की स्थिति ? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ भाग की और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका अबाधाकाल अट्ठारह सौ वर्ष का है । बादर-नामकर्म की स्थिति अप्रशस्तविहायोगति के समान जानना । इसी प्रकार पर्याप्त-नामकर्म जानना । अपर्याप्त-नामकर्म की स्थिति सूक्ष्म-नामकर्म समान है । प्रत्येकशरीर-नामकर्म की स्थिति भी २/७ भाग की है । साधारणशरीरनामकर्म की स्थिति सूक्ष्मशरीर-नामकर्म के समान है । स्थिर-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग तथा अस्थिर-नामकर्म २/७ भाग है। शुभ-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की और अशुभ-नामकर्म २/७ भाग है । सुभग-नामकर्म की स्थिति एक सप्तमांश भाग की और दुर्भग-नामकर्म की दो सप्तमांश भाग है । सुस्वर और आदेय नामकर्म की स्थिति सुभग नामकर्मानुसार
और दुस्वर तथा अनादेय की दुर्भग के समान जानना । यश:कीर्ति-नामकर्म की स्थिति जघन्य आ उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। अबाधाकाल एक हजार वर्ष का होता है । अयशःकीर्तिनामकर्म की स्थिति अप्रशस्तविहायोगति-नामकर्म के समान जानना । इसी प्रकार निर्माण-नामकर्म की स्थिति भी जानना।
तीर्थंकरनामकर्म की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरो-पम । जहाँ स्थिति एक सप्तमांश भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की और अबाधाकाल एक हजार वर्ष का समझना एवं जहाँ दो सप्तमांश भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की और अबाधाकाल दो हजार वर्ष का समझना । उच्चगोत्र-कर्म की स्थिति ? जघन्य आठ मुहूर्त, उत्कृष्ट दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है तथा अबाधाकाल एक हजार वर्ष है । नीचगोत्रकर्म की स्थिति ? अप्रशस्तविहायोगति के समान है। अन्तरायकर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है तथा अबाधाकाल तीन हजार वर्ष है एवं अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल है।। सूत्र-५४२
भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बाँधते हैं ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के तीन सप्तमांश और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का । इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का बन्ध भी जानना । एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के देढ़ सप्तमांश और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग का बन्ध करते हैं। असातावेदनीय का बन्ध ज्ञानावरणीय के समान जानना । एकेन्द्रिय जीव सम्यक्त्ववेदनीय कर्म नहीं बाँधते ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र मिथ्यात्ववेदनीय कर्म? जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम काल का और उत्कृष्ट एक परिपूर्ण सागरोपम का बाँधते हैं । एकेन्द्रिय जीव सम्यमिथ्यात्ववेदनीय नहीं बाँधते ।
___भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कषायद्वादशक का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के चार सप्तमांश भाग और उत्कृष्ट वहीं चार सप्तमांश परिपूर्ण बाँधते हैं । इसी प्रकार यावत् संज्वलन क्रोध से लेकर यावत् संज्वलन लोभ तक बाँधते हैं । स्त्रीवेद का बन्धकाल सातावेदनीय के समान जानना । एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पुरुषवेदकर्म का पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का एक सप्तमांश भाग बाँधते हैं और उत्कृष्टतः वही एक सप्तमांश भाग पूरा बाँधते हैं । एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का दो सप्तमांश भाग बाँधते हैं और उत्कृष्ट वही दो सप्तमांश भाग परिपूर्ण बाँधते हैं । हास्य और रति का बन्धकाल पुरुषवेद के समान जानना । अरति, भय, शोक और जग का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना । नरकाय, देवाय, नरकगतिनाम, देवगतिनाम, वैक्रिय-शरीरनाम, आहारकशरीरनाम, नरकानुपूर्वीनाम, देवानुपूर्वीनाम, तीर्थंकरनाम, इन नौ पदों को एकेन्द्रिय जीव नहीं बाँधते । एकेन्द्रिय जीव तिर्यंचायु का जघन्य अन्तर्महर्त्त का, उत्कृष्ट सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अपि करोड़ पूर्व का बन्ध करते हैं । मनुष्यायु का बन्ध भी इसी प्रकार समझना । तिर्यंचगतिनाम का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान है तथा मनुष्यगतिनाम का बन्धकाल सातावेदनीय के समान है।
एकेन्द्रियजाति-नाम और पंचेन्द्रियजाति-नाम का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति-नाम का बंध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का नव पैतीशांश और उत्कृष्ट वही नव पैतीशांश भाग पूरे बाँधते हैं । जहाँ जघन्यतः दो सप्तमांश भाग, तीन सप्तमांश भाग या चार सप्तमांश भाग अथवा पाँच-छ और सात अट्ठावीशांश भाग कहे हैं, वहाँ वे ही भाग जघन्य रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहना और उत्कृष्ट रूप में परिपूर्ण भाग समझना । इसी प्रकार जहाँ जघन्य रूप से एक सप्तमांश या देढ़ सप्तमांश भाग है, वहाँ जघन्य रूप से वही भाग कहना और उत्कृष्ट रूप से वही भाग परिपूर्ण कहना यशःकीर्तिनाम और उच्चगोत्र का एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के एक प्तमांश भाग का एवं उत्कृष्टतः सागरोपम के पूर्ण एक सप्तमांश भाग का बन्ध करते हैं । एकेन्द्रिय जीव का अन्तरायकर्म का जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल ज्ञानावरणीय कर्म के समान जानना। सूत्र-५४३
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बाँधते हैं । इसी प्रकार निद्रापंचक की स्थिति जानना । इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति के समान द्वीन्द्रिय जीवों की बंधस्थिति का कथन करना । जहाँ एकेन्द्रिय नहीं बाँधते, वहाँ ये भी नहीं बाँधते हैं । द्वीन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीय कर्म का बन्ध जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्टतः वही परिपूर्ण बाँधते हैं । द्वीन्द्रिय जीव तिर्यंचायु को जघन्यतः अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्टतः चार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष की बाँधते हैं । इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी करना । शेष यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के समान जानना।।
भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बँध करते हैं ? गौतम ! जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का बंध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बाँधते हैं। इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, वे उनके पचास सागरोपम के साथ कहने चाहिए । त्रीन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का बन्ध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट पूरे पचास सागरोपम का करते हैं । तिर्यंचायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा रात्रि-दिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्धकाल है। इसी प्रकार मनुष्यायु का भी है। शेष यावत् अन्तराय तक का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्टतः पूरे सौ सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का बन्ध करते हैं । तिर्यंचायुकर्म का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़-पूर्व का है । इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी जानना । शेष यावत् अन्तराय द्वीन्द्रियजीवों के बन्धकाल के समान जानना । विशेष यह कि मिथ्यात्ववेदनीय का जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सौ सागरोपम और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का बन्ध करते हैं।
भगवन् !असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बाँधते हैं? गौतम! पल्योपम के असंख्यातवें कम सहस्रसागरोपम के तीन सप्तमांश भाग काल का और उत्कष्ट परिपर्ण सहस्र सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का बन्ध करते हैं । इस प्रकार द्वीन्द्रियों के समान जानना । विशेष यह कि यहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जिस कर्म का जितना भाग हो, उसका उतना ही भाग सहस्रसागरोपम से गुणित कहना । वे मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का और उत्कृष्ट बंध परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का करते हैं। वे नरकायुष्यकर्म का बन्ध जघन्य अन्तर्मुहर्त्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का करते हैं । इसी प्रकार तिर्यंचायु का भी उत्कृष्ट बन्ध है । किन्तु जघन्य अन्तर्मुहूर्त का करते हैं । इसी प्रकार मनुष्यायु में भी समझना । देवायु का बन्ध नरकायु के समान समझना ।
भगवन् ! असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरकगतिनाम का कितने काल का बन्ध करते हैं? गौतम ! पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम का दो सप्तमांश भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का दो सप्तमांश भाग बाँधते हैं । इसी प्रकार तिर्यंचगतिनाम में भी समझना । मनुष्यगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग
और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग का करते हैं । इसी प्रकार देवगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में समझना । किन्तु विशेष यह कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के देढ़ सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट पूरे उसी के देढ़ सप्तमांश भाग का करते हैं।
वैक्रियशरीरनाम का बन्धकाल जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट वहीं पूरे २/७ का करते हैं । सम्यक्त्वमोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारकशरीरनामकर्म
और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करते ही नहीं हैं । शेष कर्मप्रकृतियों का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना । विशेष यह कि जिसके जितने भाग हैं, वे सहस्र सागरोपम के साथ कहना । इसी प्रकार अनुक्रम से अन्तरायकर्म तक सभी कर्मप्रकृतियों का यथायोग्य बन्धकाल कहना ।
भगवन् ! संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का बन्ध करते हैं । इनका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है । संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव निद्रापंचककर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरो-पम का और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का बन्ध करते हैं । इनका तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल है, इत्यादि पूर्ववत् । दर्शनचतुष्क का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धकाल के समान है । सातावेदनीयकर्म का बन्धकाल उसकी औधिक स्थिति समान कहना । ऐर्यापथिकबन्ध और साम्परायिकबन्ध की अपेक्षा से (सातावेद-नीय का बन्धकाल पृथक्-पृथक्) कहना । असातावेदनीय का बन्धकाल निद्रापंचक के समान कहना । सम्यक्त्व-वेदनीय और सम्यमिथ्यात्ववेदनीय औधिक स्थिति के समान है । वे मिथ्यात्ववेदनीय का बंध जघन्य अन्तःकोड़ा कोड़ी और उत्कृष्ट ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम का करते हैं । अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है, इत्यादि । कषाय-द्वादशक का बन्धकाल जघन्य इसी प्रकार और उत्कृष्टतः चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का है । अबाधाकाल चालीस हजार वर्ष का है । संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ का जघन्य बन्ध क्रमशः दो मास, एक मास, अर्द्ध मास और अन्तर्मुहूर्त्त का होता है तथा उत्कृष्ट बन्ध कषाय-द्वादशक के समान है । चार प्रकार के आयष्य कर्म की औधिक स्थिति के समान है।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र आहारकशरीर और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध जघन्य और उत्कृष्ट अन्तः कोटाकोटि का है । पुरुषवेद का बन्ध वे जघन्य आठ वर्ष का और उत्कृष्ट दशकोटाकोटि सागरोपम का है | अबाधाकाल एक हजार वर्ष का है । यशःकीर्तिनाम और उच्चगोत्र का बन्ध भी पुरुषवेदवत् जानना । विशेष यह कि संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त का है । अन्तरायकर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के समान है । शेष सभी स्थानों में तथा संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध नामकर्मों में बन्ध का जघन्य काल अन्तःकोटाकोटि सागरोपम का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का काल, इनकी सामान्य स्थिति के समान है । विशेष यह कि इनका अबाधाकाल' और अबाधाकालन्यून नहीं कहा जाता । इसी प्रकार अनुक्रम से सभी कर्मों का अन्तरायकर्म तक का स्थितिबन्ध-काल कहना । सूत्र-५४४
भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? गौतम ! वह अन्यतर सूक्ष्मसम्पराय, उपशामक या क्षपक होता है । हे गौतम ! यही ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य और अन्य अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है । इस प्रकार से मोहनीय और आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों के विषय में कहना । मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक अन्यतर बादरसम्पराय, उपशामक अथवा क्षपक होता है । हे गौतम ! यह मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति उससे भिन्न और अन्य अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है । आयुष्यकर्म का जघन्यस्थिति-बन्धक ? जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध होती है । शेष सबसे बड़े उस आयुष्य-बन्धकाल के अन्तिम
के समय में जो सबसे जघन्य स्थिति को तथा पर्याप्ति-अपर्याप्ति को बाँधता है । हे गौतम ! यही आयुष्यकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। सूत्र-५४५
भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले ज्ञानावरणीयकर्म को क्या नारक बाँधता है, तिर्यंच बाँधता है, तिर्यंचनी बाँधती है, मनुष्य बाँधता है, मनुष्य स्त्री बाँधती है अथवा देव बाँधता है या देवी बाँधती है ? गौतम ! उसे नारक यावत् देव सभी बाँधते हैं । भगवन् ! किस प्रकार का नारक उत्कृष्ट स्थितिवाला ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता है? गौतम ! जो संजीपंचेन्द्रिय, समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला, जाग्रत, श्रुत में उपयोगवान्, मिथ्या-दृष्टि, कृष्णलेश्यावान्, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामवाला अथवा किंचित् मध्यम परिणाम वाला हो, ऐसा नारक बाँधता। भगवन् ! किस प्रकार का तिर्यंच उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधता है ? गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न अथवा कर्मभूमिज सदृश हो, संजीपंचेन्द्रिय, यावत् किंचित् मध्यम परिणामवाला हो, ऐसा तिर्यंच बाँधता है। इसी प्रकार की तिर्यंचनी, मनुष्य और मनुष्यस्त्री भी उत्कृष्ट स्थितिवाले ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधते हैं । देव-देवी को नारक के सदश जानना। आयुष्य को छोडकर शेष सात कर्मों के विषय में पूर्ववत जानना।
भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले आयुष्कर्म को क्या नैरयिक बाँधता है, यावत् देवी बाँधती है ? गौतम! उसे तिर्यंच, मनुष्य तथा मनुष्य स्त्री बाँधती है । भगवन् ! किस प्रकार का तिर्यंच उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले आयुष्कर्म को बाँधता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध समान जानना । भगवन् ! किस प्रकार का मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बाँधता है ? गौतम ! जो कर्मभूमिज हो अथवा कर्मभूमिज के सदृश हो यावत् श्रुत में उपयोगवाला हो, सम्यग्दृष्टि हो अथवा मिथ्यादृष्टि हो, कृष्णलेश्यी हो या शुक्ललेश्यी हो, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामवाला हो, अथवा तत्प्रयोग विशुद्ध होते हुए परिणामवाला हो, ऐसा मनुष्य बाँधता है । भगवन् ! किस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले आयुष्यकर्म को बाँधती है ? गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिजा के समान हो यावत् श्रुत में उपयोगवाली हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ल-लेश्यावाली हो, तत्प्रायोग्य विशुद्ध होत हुए परिणाम वाली हो, ऐसी मनुष्य-स्त्री बाँधती है । उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना ।
पद-२३-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२४-कर्मबन्धपद सूत्र-५४६
भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक कहना । भगवन् ! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधता हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों बाँधता है ? गौतम ! सात, आठ या छह । भगवन् ! (एक) नैरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सात या आठ । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना । विशेष यह कि मनुष्य-सम्बन्धी कथन समुच्चय-जीव के समान जानना । (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधते हैं ? गौतम ! सभी जीव सात या आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं; अथवा बहुत से जीव सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के और कोई एक जीव छह का बन्धक होता है; अथवा बहुत से जीव सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं । (बहुत से) नैरयिक ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सभी नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं, अथवा बहुत से नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक और एक नैरयिक आठ कर्म-प्रकृतियों का बन्धक होता है, अथवा बहुत से नैरयिक सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना ।
भगवन् ! (बहुत) पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधते हैं ? गौतम ! सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियों को । इसी प्रकार यावत् (बहुत) वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्धमें कहना। विकलेन्द्रियों और तिर्यंच-पंचेन्द्रियजीवों के तीन भंग होते हैं-सभी सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, अथवा बहुतसे सात कर्मप्रकृतियों के और कोई एक आठ कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है, अथवा बहुत-से सात के तथा बहुत-से आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं । (बहुत-से) मनुष्य ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियों को बाँधते हैं ? गौतम ! सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, अथवा बहुत-से मनुष्य सात के बन्धक और कोई एक आठ का बन्धक होता है, अथवा बहुत-से सात के तथा आठ के बन्धक होते हैं, अथवा बहुत-से सात के और कोई एक छह का बन्धक होता है, अथवा बहुत-से मनुष्य सात के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, अथवा बहुत-से सात के तथा एक आठ का एवं कोई एक छह का बन्धक होता है, अथवा बहुत-से सात के, कोई एक आठ का और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से आठ के और एक छह का बन्धक होता है, अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से आठ के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं । इस प्रकार नौ भंग हैं । शेष वाणव्यन्तरादि यावत् वैमानिक-पर्यन्त नैरयिक सात आदि कर्म-प्रकृतियों के बन्ध समान कहना । ज्ञानावरणीयकर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म के बन्ध का कथन करना।
भगवन् ! वेदनीयकर्म को बाँधता हुआ एक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सात का, आठ का, छह का अथवा एक प्रकृति का । मनुष्य में भी ऐसा ही कहना । शेष नारक आदि सप्तविध और अष्टविध बन्धक होते हैं, वैमानिक तक इसी प्रकार कहना । भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सभी जीव सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकप्रकृतिबन्धक और एक जीव छह-प्रकृतिबन्धक होता है, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकविधबन्धक या छहविधबन्धक होते हैं । शेष नारकादि से वैमानिक पर्यन्त ज्ञानावरणीय को बाँधते हुए जितनी प्रकृतियों को बाँधते हैं, उतनी का बन्ध यहाँ भी कहना । विशेष यह कि मनुष्य वेदनीयकर्म को बाँधते हए-गौतम !
सभी मनुष्य सप्तविधबन्धक और एकविध-बन्धक होते हैं १, बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक होता है। २, बहत सप्त-विधबन्धक, बहत एकविधबन्धक और बहत अष्टविधबन्धक होते हैं। ३, बहत सप्तविधबन्धक, बहत एकविध-बन्धक और एक षटविधबन्धक होता है । ४, बहत सप्तविधबन्धक, बहत एकविधबन्धक, बहुत षड्विधबन्धक होते हैं । ५, बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है । ६, बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और बहुत षड्
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र विधबन्धक होते हैं । ७, बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है। ८, बहुत सप्तविध बन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक और बहुत षट्विधबन्धक होते हैं । ९, इस प्रकार नौ भंग हैं।
भगवन् ! मोहनीय कर्म बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम ! सामान्य जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना । जीव और एकेन्द्रिय सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक भी होते हैं।
आयुकर्म को बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम ! नियम से आठ प्रकृतियाँ बाँधता है। नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । इसी प्रकार बहुतों के विषय में भी कहना।
नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म को बाँधता जीव ज्ञानावरणीय के समान ही कहना । इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक तक एक और बहुवचन में कहना।
पद-२४-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२५-कर्मबंधवेदपद सूत्र-५४७
भगवन ! कर्मप्रकतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ, ज्ञानावरणीय यावत अन्तराय । इसी प्रकार नैरयिकों यावत वैमानिकों तक हैं। भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध करता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? गौतम ! आठ का । इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना । वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष सभी कर्मों के सम्बन्ध में इसी प्रकार जानना । वेदनीयकर्म को बाँधता हुआ एक जीव ? गौतम ! सात का, आठ का अथवा चार (कर्मप्रकृतियों) वेदन करता है । इसी प्रकार मनुष्य में कहना । शेष नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं । बहत जीव वेदनीयकर्म को बाँधते हुए गौतम ! सभी जीव आठ या चार कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अथवा बहुत जीव आठ या चार कर्मप्रकृतियों के और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, अथवा बहुत जीव आठ, चार या सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं । इसी प्रकार बहुत-से मनुष्यों द्वारा वेदनीयकर्मबन्ध के समय वेदन सम्बन्धी कथन करना ।
पद-२५-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२६-कर्मवेदबन्धपद सूत्र-५४८
भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक हैं । भगवन ! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? गौतम ! सात, आठ, छह या एक कर्मप्रकृति का । (एक) नैरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता हुआ गौतम ! सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना । परन्तु मनुष्य का कथन सामान्य जीव के समान है। (बहत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सभी जीव सात या आठ कर्मप्रकृतियों के, अथवा बहुत जीव सात या आठ के और एक छह का बंधक होता है, अथवा बहत जीव सात, आठ और छह के, अथवा बहुत जीव सात के और आठ के तथा कोई एक प्रकृति का, अथवा बहुत जीव सात, आठ और एक के, या बहुत जीव सात के तथा आठ के, एक जीव छह का और एक जीव एक का, अथवा बहुत जीव सात के या आठ के, एक जीव छह का और बहुत जीव एक के, अथवा बहुत जीव सात के, आठ के, छह के तथा एक के, अथवा बहुत जीव आठ के, सात के, छह के और एक के बंधक होते हैं । ये कुल नौ भंग हुए।
एकेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को छोड़कर शेष जीवों यावत् वैमानिकों के तीन भंग कहना । (बहुत-से एकेन्द्रिय) जीव सात के और आठ के बन्धक होते हैं । मनुष्यों ? गौतम ! (१) सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, (२) बहुत-से सात और एक आठ कर्मप्रकृति बाँधता है, (३) बहुत-से मनुष्य सात के और एक छह का बन्धक है, इसी प्रकार छह के बन्धक के साथ भी दो भंग, (६-७) एक के बन्धक के साथ भी दो भंग, (८-११) बहुत-से सात के बन्धक, एक आठ का और एक छह का बन्धक, यों चार भंग, (१२-१५) बहुत-से सात के बन्धक, एक आठ का और एक मनुष्य एक प्रकृति का बन्धक, यों चार भंग, (१६-१९) बहुत-से सात के बन्धक तथा एक छह का और एक, एक का बन्धक, इसके भी चार भंग, (२०-२७) बहुत-से सात के बंधक, एक आठ का, एक छह का और एक, एक का बन्धक होता है, यो इसके आठ भंग हैं । कुल मिलाकर ये सत्ताईस भंग हैं । ज्ञानावरणीय-कर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म एवं अन्तराय का कथन भी करना ।
भगवन् ! (एक) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? गौतम! वह सात, आठ, छह या एक का बन्धक होता है, अथवा अबंधक होता है । इसी प्रकार मनुष्य में भी समझना । शेष नारक आदि वैमानिक पर्यन्त सात या आठ के बन्धक हैं । (बहत) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! १. सभी जीव सात के, आठ के और एक के बन्धक होत हैं, २. बहुत जीव सात, आठ या एक के बन्धक होते हैं और एक छह का बन्धक होता है । ३. बहुत जीव सात, आठ, एक तथा छह के बन्धक होते हैं, ४-५. अबन्धक के साथ भी दो भंग, ६-९. बहत जीव सात के, आठ के, एक के बंधक होते हैं तथा कोई एक छह का तथा कोई एक अबन्धक भी होता है, यों चार भंग होते हैं । कुल नौ भंग हए । एकेन्द्रिय जीवों को अभंगक जानना । नारक आदि वैमानिकों तक के तीन-तीन भंग कहना । मनुष्यों के विषय में वेदनीयकर्म के वेदन के साथ, गौतम ! १-बहतसे सात के अथवा एक के बन्धक होते हैं । २-बहुत-से मनुष्य सात के और एक के बन्धक तथा कोई एक छह का, एक आठ का बन्धक है या फिर अबन्धक होता है । इस प्रकार ये कुल मिलाकर सत्ताईस भंग-प्राणातिपातविरत की क्रियाओं के समान कहना । वेदनीयकर्म के वेदन के समान आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म में भी कहना । ज्ञानावरणीय समान मोहनीयकर्म के वेदन के साथ बन्ध को कहना।
पद-२६-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२७-कर्मवेदवेदकपद सूत्र-५४९
भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इसी प्रकार नारकों से वैमानिकों तक हैं। भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? गौतम ! सात या आठ का । इसी प्रकार मनुष्य में भी जानना । शेष सभी जीव वैमानिक पर्यन्त एकत्व और बहुत्व से नियमतः आठ कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं । (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए, गौतम !
१. सभी जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, २. कईं जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, ३. कईं जीव आठ और कईं सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यपद में भी ये तीन भंग होते हैं । दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों में भी पूर्ववत् कहना । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? गौतम ! बन्धक-वेदक के समान वेद-वेदक के वेदनीय का कथन करना । मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव, गौतम ! नियम से आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है । इसी प्रकार नारक से वैमानिक पर्यन्त जानना । बहुत्व विवक्षा से भी समझना ।
पद-२७-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२८-आहारपद
उद्देशक-१ सूत्र-५५०,५५१
इस उद्देशक में इन ग्यारह पदों हैं-सचित्ताहार, आहारार्थी, कितने काल से ?, क्या आहार ? सब प्रदेशों से, कितना भाग? सभी आहार (करते हैं ?) (सतैव) परिणत करते हैं ? तथा-एकेन्द्रियशरीरादि, लोमाहार एवं मनोभक्षी। सूत्र-५५२
भगवन् ! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ? गौतम ! वे केवल अचित्ताहारी होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों पर्यन्त जानना । औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं । भगवन ! क्या नैरयिक आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन् ! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की ईच्छा होती है ? गौतम ! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का है। आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित । जो अनाभोगनिर्वर्तित है, उसकी अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, जो आभोगनिर्वर्तित है, उसकी अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है।
भगवन् ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? गौतम ! द्रव्यतः-अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं, क्षेत्रतः-असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़, कालतः-किसी भी कालस्थिति वाले और भावतः-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान और स्पर्शवान् पुद्गलों का आहार करते हैं । भगवन् ! भाव से जिन पुद्गलों का आहार करत हैं, क्या वे एक वर्ण वाले यावत् क्या वे पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! वे स्थानमार्गणा से एक वर्ण वाले यावत् पाँच वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं तथा विधान मार्गणा से काले यावत् शुक्ल वर्णवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । भगवन् ! वे वर्ण से जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण यावत् दस गुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले या अनन्तगुण काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम! वे एक गुण यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । इसी प्रकार यावत् शुक्लवर्ण में जानना । इसी प्रकार गन्ध और रस की अपेक्षा से भी कहना । जो जीव भाव से स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे चतुःस्पर्शी यावत् अष्टस्पर्शी पुद्गलों का आहार करते हैं । विधान मार्गणा से कर्कश यावत् रूक्ष पुदगलों का भी आहार करते हैं । वे जिन कर्कशस्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एकगुण यावत् अनन्तगुण कर्कशपुद् गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! ऐसा ही है । इसी प्रकार आठों ही स्पर्शों के विषय में जानना ।
भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्षपुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का ? गौतम ! वे स्पृष्ट पुद्गलों का ही आहार करते हैं । भाषा-उद्देशक के समान यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं । बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्धवाले, रस से तिक्त
और कटुक रसवाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणन कर, परिपीडन परिशाटन और परिविध्वस्त करके अन्य अपूर्व वर्णगुण, गन्ध गुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाहना किये हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण आहार करते हैं।
भगवन् ! क्या नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छवास तथा सर्वतः निःश्वास लेते हैं ? बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छवास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं ? यावत् उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं? हाँ, गौतम ! नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं, इसी प्रकार वही पूर्वोक्तवत् यावत् कभी-कभी निःश्वास लेते हैं । नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी काल में असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं । भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों क आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं अथवा सबका नहीं करते ? गौतम ! शेष बचाये बिना उन सबका आहार कर लेते हैं । भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बार-बार किस रूप में परिणत करते हैं ? गौतम ! उन पुद्गलों मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र को श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शन्द्रिय रूप में, अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से, अमनोज्ञरूप से, अमनामरूप से, अनिश्चितता से, अनभिलषितरूप से, भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से सुखरूप से नहीं, उन सबका बारबार परिणमन करते हैं। सूत्र-५५३
भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । नारकों की वक्तव्यता समान असुरकुमारों के विषय में यावत्... 'उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है। यहाँ तक कहना । उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है । बाहल्यरूप कारण से वे वर्ण से-पीत और श्वेत, गन्ध से-सुरभिगन्ध वाले, रस से-अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से-मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं । उन के पुराने वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अपूर्व यावत्-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके मनोज्ञ, मनाम ईच्छित अभिलाषित रूप में परिणत होते हैं । भारीरूप में नहीं हल्केरूप में, सुखरूप में परिणत होते हैं, दुःखरूप में नहीं । वे आहार्य पुद्गल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं । शेष कथन नारकों के समान जानना । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । विशेष यह कि इनका आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है। सूत्र-५५४
भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं? हाँ, गौतम ! होते हैं। पथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के होती है । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के कथन के समान जानना; यावत् पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं ? गौतम ! यदि व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से, यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच दिशाओं से आगत द्रव्यों का आहार करते हैं । विशेष यह कि इसमें बाहल्य कारण नहीं कहा जाता । वे वर्ण से-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से-सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से-तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शवाले तथा उनके पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि कथन नारकों के समान यावत् कदाचित उच्छ्वास और निःश्वास लेत हैं; तक जानना।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! असं आहार और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं । भगवन ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुदगलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं या नहीं? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल, गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में बार-बार परिणत होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों को जानना । सूत्र-५५५
भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होत है ? गौतम ! नारकों के समान समझना । विशेष यह कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उसकी अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्महर्त्त में विमात्रा से होती है। शेष कथन पृथ्वीकायिकों के समान "कदाचित् निःश्वास लेते हैं।' तक कहना । विशेष यह कि वे नियम से छह दिशाओं से आहार लेते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद् गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा नहीं? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का है। -लोमाहार और प्रक्षेपाहार । वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहाररूप में ग्रहण करत हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं उनके बहुत-से सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका स्पर्श होता है और न ही आस्वादन होता है । इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से आस्वादन न किये जानेवाले तथा स्पृष्ट न होनेवाले पुद् गलों मैं कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम आस्वादन न किये जानेवाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे स्पृष्ट न होनेवाले हैं । द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किसकिस रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं ? जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं।
इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक कहना । विशेष यह कि इनके द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान तथा अनास्वाद्यमान ही विध्वंस को प्राप्त होते हैं । इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं । त्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं । चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गहीत पुद्गल चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं । शेष कथन त्रीन्द्रियों के समान समझना । पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना । विशेष यह कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से होती है । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल पाँचों इन्द्रियों में विमात्रा में पुनः पुनः परिणत होते हैं । मनुष्यों की आहार-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है । विशेष यह कि उनकी आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट अष्टमभक्त होने पर होती है । वाण-व्यन्तर देवों का आहार नागकुमारों के समान जानना । इस प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है | किन्तु उन्हें आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में होती है।
इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जानना । विशेष यह कि इनको आभोगनि-वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तैंतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है । शेष वक्तव्यता असुरकुमारों के समान ‘उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है। यहाँ तक कहना । सौधर्म-कल्प में आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। ईशानकल्प में जघन्य कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार वर्ष में होती है । सनत्कुमार को जघन्य दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष में आहारेच्छा होती है । माहेन्द्रकल्प में ? जघन्य कुछ अधिक दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात हजार वर्ष में, ब्रह्मलोक में जघन्य सात और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष में; लान्तककल्प में जघन्य दस और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष में; महाशुक्रकल्प में जघन्य चौदह और उत्कृष्ट सत्तरह हजार वर्ष में; सहस्रारकल्प में जघन्य सत्तरह और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष में; आनत-कल्प में जघन्य अठारह और उत्कृष्ट उन्नीस हजार वर्ष में प्राणतकल्प में जघन्य उन्नीस और उत्कृष्ट बीस हजार वर्ष में; आरणकल्प में जघन्य बीस और उत्कृष्ट इक्कीस हजार वर्ष में; अच्युतकल्प में जघन्य २१ और उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है।
भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की आहारसम्बन्धी पृच्छा है । गौतम ! जघन्य २२ और उत्कृष्ट २३ हजार वर्ष में देवों को आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है । अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयकों में, गौतम ! जघन्य २३ और उत्कृष्ट २४ हजार वर्ष में; अधस्तन-उपरिम ग्रैवेयकों में, जघन्य २४ और उत्कृष्ट २५ हजार वर्ष में; मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयकों में जघन्य २५ और उत्कृष्ट २६ हजार वर्ष में; मध्यम-मध्यम ग्रैवेयकों में जघन्य २६ और उत्कृष्ट २७ हजार वर्षों में; मध्यम-उपरिम ग्रैवेयकों में जघन्य २७ और उत्कृष्ट २८ हजार वर्ष में, उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयकों में जघन्य २८ और उत्कृष्ट २९ हजार वर्ष में; उपरिम-मध्यम ग्रैवेयकों में जघन्य २९ और उत्कृष्ट ३० हजार वर्षों में; उपरिम-उपरिम ग्रैवेयकों में जघन्य ३० और उत्कृष्ट ३१ हजार वर्ष में आहार की ईच्छा होती है । विजय, वैजयन्त, जयन्त और
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अपराजित देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! जघन्य ३१ और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष में आहारेच्छा होती है। सर्वार्थसिद्ध देवों को अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेंतीस हजार वर्ष में आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। सूत्र-५५६
भगवन् ! क्या नैरयिक एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं ? गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे एकेन्द्रियशरीरों का भी आहार करते हैं, यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का भी तथा वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं । स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार समझना | भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के विषय में प्रश्न । गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना से नारकों के समान और वर्तमानभावप्रज्ञापना से नियम से वे एकेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं। द्वीन्द्रियजीवों पूर्वभावप्रज्ञापना से इसी प्रकार और वर्तमानभावप्रज्ञापना से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना से पूर्ववत् और वर्तमानभावप्रज्ञापना से जिसके जितनी इन्द्रियाँ हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का आहार करते हैं । वैमानिकों तक शेष जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना ।
भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी ? गौतम ! वे लोमाहारी है, इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों और सभी देवों के विषय में कहना । द्वीन्द्रियों से लेकर मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं। सूत्र-५५७
भगवन् ! नैरयिक जीव ओज-आहारी होते हैं, अथवा मनोभक्षी ? गौतम ! वे ओज-आहारी होते हैं । इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी भी ओज-आहारी हैं । वैमानिकों तक सभी देव ओज-आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी । जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन उत्पन्न होती है । जैसे कि-वे चाहते हैं कि हम मानो-भक्षण करें । उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की ईच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त, यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में परिणत हो जाते हैं । तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं । हे गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उसका ईच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट-तृप्त हो जाता है।
पद-२८ उद्देशक-२ सूत्र-५५८
द्वितीय उद्देशक में तेरह द्वार हैं-आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्तिद्वार । सूत्र-५५९
भगवन् ! जीव आहारक हैं या अनाहारक ? गौतम ! कथंचित् आहारक हैं, कथंचित् अनाहारक । नैरयिक से असुरकुमार और वैमानिक तक इसी प्रकार जानना । भगवन् ! एक सिद्ध आहारक होता है या अनाहारक होता है ? गौतम ! अनाहारक। भगवन् !(बहुत) जीव आहारक होते हैं, या अनाहारक? गौतम ! दोनों । भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ? गौतम ! वे सभी आहारक होते हैं, अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, या बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं । इसी तरह वैमानिक-पर्यन्त जानना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहत जीवों के समान है । (बहत) सिद्धों के विषय में प्रश्न । गौतम ! वे अनाहारक ही होते हैं सूत्र-५६०
भगवन् ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना । भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना । अभवसिद्धिक में भी इसी प्रकार कहना । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक अनाहारक होता है । इसी प्रकार सिद्ध में कहना । (बहुत-से) नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव अनाहारक होते हैं । इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों में समझना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-५६१
भगवान् ! संज्ञी जीव आहारक है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहा-रक होता है । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना । किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न नहीं करना । बहुत-से संज्ञीजीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? गौतम ! जीवादि से लेकर वैमानिक तक तीन भंग होते हैं। असंज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक? गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। इसी प्रकार नारक से वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना । ज्योतिष्क और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना । (बहुत) असंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी । इनमें केवल एक ही भंग है । (बहुत) असंज्ञी नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? गौतम-(१) सभी आहारक होते हैं, (२) सभी अनाहारक होते हैं, (३) एक आहारक और एक अनाहारक, (४) एक आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं, (५) बहुत आहारक और एक अनाहारक होता है तथा (६) बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं । इसी प्रकार स्तनित-कुमार पर्यन्त जानना । एकेन्द्रिय जीवों में भंग नहीं होता । द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रियतिर्यंच तक में पूर्वोक्त कथन के समान तीन भंग कहना । मनुष्यों और वाणव्यन्तर देवों में (पूर्ववत्) छह भंग कहना । नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है । इसी प्रकार मनुष्य में भी कहना । सिद्ध जीव अनाहारक होता है । बहत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी और मनुष्यों में तीन भंग हैं । (बहुत-से) सिद्ध अनाहारक होते हैं। सूत्र - ५६२
भगवन् ! सलेश्य जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना । भगवन् ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग हैं । इसी प्रकार कृष्ण, नील और कापोतलेश्यी में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना । तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग हैं । शेष जीव आदि में, जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उसमें तीन भंग कहना । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले जीव आदि में तीन भंग हैं । अलेश्य समुच्चय जीव (अयोगी केवली) मनुष्य और सिद्ध अनाहारक भी होते हैं। सूत्र-५६३
भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं । सिद्ध अनाहारक होते हैं । शेष सभी में तीन भंग होते हैं । मिथ्यादष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोडकर तीन-तीन भंग पाये जाते हैं । सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव, गौतम ! आहारक होता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । बहत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार जानना । सूत्र-५६४
भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक । इसी प्रकार मनुष्य को भी कहना । बहत्व की अपेक्षा से तीन-तीन भंग हैं। असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक | बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनमें तीन भंग होते हैं । संयतासंयतजीव, पंचेन्द्रियतिर्यंच और मनुष्य, आहारक होते हैं। नोसंयत-असंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्ध, अनाहारक होते हैं। सूत्र- ५६५
भगवन् ! सकषाय जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना । बहत्व अपेक्षा से जीव और एकेन्द्रिय को ह नारक आदि में)तीन भंग हैं। क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहना । विशेष यह कि देवोंमें छ भंग
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कहना । मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छ भंग पाये जाते हैं । लोभकषायी नैरयिकों में छ भंग होते हैं । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग हैं। अकषायी को नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जानना । सूत्र-५६६
__ज्ञानी को सम्यग्दृष्टि के समान समझना | आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में छह भंग समझना । शेष जीव आदि में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग हैं । अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंच आहारक होते हैं । शेष जीव आदि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग हैं । मनःपर्यव ज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य आहारक होते हैं । केवलज्ञानी को नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जानना । अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं । विभंगज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यंच और मनुष्य आहारक होते हैं । अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं । सूत्र-५६७
सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं। मनोयोगी और वचनयोगी में सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान कहना । विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना । काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं । अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध अनाहारक हैं। सूत्र-५६८
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोगी जीवों में तीन भंग कहना। सिद्ध जीव अनाहारक ही होते हैं । सूत्र - ५६९
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य सब सवेदी जीवों के, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी में, नपुंसकवेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं । अवेदी जीवों को केवलज्ञानी के समान कहना। सूत्र - ५७०
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग हैं । औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग हैं | शेष जीवों और औदारिकशरीरी आहारक होते हैं । किन्तु जिनके औदारिक शरीर होता है, उन्हीं को कहना । वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं । किन्तु यह कथन वैक्रिय और आहारकशरीरी के लिए है। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तैजस और कार्मणशरीरी में तीन भंग हैं । अशरीरी जीव और सिद्ध अनाहारक होते हैं। सूत्र -५७१
___आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास तथा भाषा-मनःपर्याप्ति इन पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं । शेष जीव आहारक होते हैं । विशेष यह कि भाषा-मनः-पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है। आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव अनाहारक होते हैं । शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता है। आगे की चार अपर्याप्तियों वाले नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं । शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग हैं । भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यंचों में तीन भंग पाये जाते हैं । नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग हैं। सभी पदों में जीवादि दण्डकों में जिस दण्डक में जो पद संभव हो, उसी की पृच्छा करना । यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचे-न्द्रियतिर्यंचों में तीन भंगों की वक्तव्यतापर्यन्त समझना ।
पद-२८-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२९-उपयोग सूत्र-५७२
भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आठ प्रकार का, आभिनिबोधिक-ज्ञानसाकारोपयोग, श्रुतज्ञान०, अवधिज्ञान०, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-साकारोपयोग, मति-अज्ञान०, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान-साकारोपयोग । अनाकारोपयोग कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का-चक्षुर्दर्शन-अनाकारोपयोग, अचक्षुदर्शन०, अवधिदर्शन० और केवलदर्शन-अनाकारोपयोग । इसी प्रकार समुच्चय जीवों का भी जानना ।
भगवन् ! नैरयिकों का उपयोग कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-साकारोपयोग और अनकारोपयोग । नैरयिकों का साकारोपयोग छह प्रकार का है। -मतिज्ञान-साकारोपयोग, श्रुतज्ञान०, अवधिज्ञान०, मतिअज्ञान०, श्रुत-अज्ञान० और विभंगज्ञान-साकारोपयोग । नैरयिकों का अनाकारोपयोग तीन प्रकार का है । चक्षुदर्शनअनाकारोपयोग, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना।
पृथ्वीकायिक जीवों के उपयोग-सम्बन्धी प्रश्न । गौतम ! उनका उपयोग दो प्रकार का है-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । पृथ्वीकायिक जीवों का साकारोपयोग दो प्रकार का है-मति-अज्ञान और श्रुतअज्ञान । पृथ्वीकायिक जीवों का अनाकारोपयोग एकमात्र अचक्षुदर्शन है। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक जानना । द्वीन्द्रिय जीवों का उपयोग ? दो प्रकार का है-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । द्वीन्द्रिय जीवों का साकारोपयोग चार प्रकार का है । -आभिनिबोधिकज्ञान-साकारोपयोग, श्रुतज्ञान०, मति-अज्ञान० और श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोग । द्वीन्द्रिय जीवों का अनाकारोपयोग एक अचक्षुदर्शन ही है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय को कहना । चतु-रिन्द्रिय में भी इसी प्रकार कहना । किन्तु उनका अनाकारोपयोग दो प्रकार का है, चक्षुदर्शन० और अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों को नैरयिकों के समान कहना । मनुष्यों के उपयोग समुच्चय उपयोग के समान कहना। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों को नैरयिकों के समान कहना।
__ भगवन् ! जीव साकारोपयुक्त होते हैं या अनाकारोपयुक्त ? गौतम ! दोनों होते हैं । क्योंकि-गौतम ! जो जीव आभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान एवं विभंगज्ञान उपयोगवाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त कहे जाते हैं और जो जीव चक्षुदर्शन यावत् केवलदर्शन के उपयोग से युक्त होत हैं, वे अनाकारो-पयुक्त कहे जाते हैं । भगवन् ! नैरयिक साकारोपयुक्त होते हैं या अनाकारोपयुक्त ? गौतम ! दोनों होते हैं, क्योंकि-गौतम ! जो नैरयिक आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान के उपयोग से युक्त होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो नैरयिक चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना।
पृथ्वीकायिकों के विषय में पृच्छा । गौतम ! पूर्ववत्, जो पृथ्वीकायिक जीव मत्यज्ञान और श्रुत-अज्ञान के उपयोगवाले हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं तथा जो पृथ्वीकायिक जीव अचक्षुदर्शन के उपयोगवाले होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं । इसी प्रकार अप्कायिक यावत् वनस्पतिकायिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी । जो द्वीन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मत्यज्ञान और श्रुत-अज्ञान के उपयोगवाले होते हैं, वे साकारोप-युक्त होते हैं और जो द्वीन्द्रिय अचक्षुदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों में समझना, विशेष यह कि चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना । पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों को नैरयिकों के समान जानना । मनुष्यों में समुच्चय जीवों के समान जानना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नैरयिकों के समान कहना।
पद-२९-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-३०-पश्यत्ता
सूत्र-५७३
भगवन् ! पश्यत्ता कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की, -साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता । साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की है ? गौतम ! छह प्रकार की-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, अवधिज्ञान०, मनःपर्यव-ज्ञान०, केवलज्ञान०, श्रुत-अज्ञान० और विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता । अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की है ? गौतम! तीन प्रकार की-चक्षुदर्शनअनाकारपश्यत्ता, अवधिदर्शनअनाकारपश्यत्ता और केवलदर्शनअनाकारपश्यत्ता । इसी प्रकार समुच्चय जीवों में भी कहना ।
नैरयिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की-साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता । नैरयिकों की साकारपश्यत्ता चार प्रकार की है-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, अवधिज्ञान०, श्रुत-अज्ञान० और विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता । नैरयिकों की अनाकारपश्यत्ता दो प्रकार की है - चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता और अवधिदर्शन-अनाकारपश्यत्ता । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना ।
__ भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की है ? गौतम ! एक साकारपश्यत्ता । पृथ्वीकायिकों की साकारपश्यत्ता एकमात्र श्रुत-अज्ञान० है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों तक जानना । द्वीन्द्रिय जीवों में एकमात्र साकारपश्यत्ता है । गौतम ! वह दो प्रकार की है-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों को भी जानना । चतुरिन्द्रिय जीवों की पश्यत्ता दो प्रकार की है-साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता । इनकी साकारपश्यत्ता द्वीन्द्रियों के समान जानना । चतुरिन्द्रिय जीवों की अनाकारपश्यत्ता एकमात्र चक्षुदर्शन० है । मनुष्यों समुच्चय जीवों के समान है । वैमानिक पर्यन्त शेष समस्त दण्डकों की पश्यत्ता नैरयिकों के समान कहना।
भगवन् ! जीव साकारपश्यत्तावाले होते हैं या अनाकारपश्यत्तावाले ? गौतम ! दोनों होते हैं । क्योंकि-गौतम ! जो जीव श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले होते हैं और जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी होते हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले होते हैं । नैरयिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं या अनगारपश्यत्ता वाले ? गौतम ! पूर्ववत्, परन्तु इनमें साकार-पश्यत्ता के रूप में मनःपर्यायज्ञानी और केवलज्ञानी तथा अनाकारपश्यत्ता में केवलदर्शन नहीं है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना । पृथ्वीकायिक जीवों में पूर्ववत् प्रश्न | गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि-गौतम ! पृथ्वीकायिकों में एकमात्र श्रुत-अज्ञान होने से साकारपश्यत्ता कही है। इसी प्रकार वनस्पति-कायिकों तक कहना।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव साकारपश्यत्तावाले हैं या अनाकारपश्यत्तावाले ? गौतम ! वे साकारपश्यत्ता वाले हैं। क्योंकि-गौतम द्वीन्द्रिय जीवों की दो प्रकार की पश्यत्ता है । श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकार-पश्यत्ता । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों में समझना । भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्तावाले हैं या अनाकार-पश्यत्तावाले हैं? गौतम ! दोनों हैं । क्योंकि-गौतम ! जो चतुरिन्द्रिय जीव श्रुत-ज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं और चतुरिन्द्रिय चक्षुदर्शनी हैं, अतः अनाकारपश्यत्ता वाले हैं । मनुष्यों, समुच्चय जीवों के समान हैं | अवशिष्ट सभी वैमानिक तक नैरयिकों के समान जानना । सूत्र- ५७४
भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं, उस समय जानते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-गौतम ! जो साकार होता है, वह ज्ञान होता है और जो अनाकार होता है, वह दर्शन होता है, इसलिए जिस समय साकारज्ञान होगा, उस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) नहीं रहेगा, इसी प्रकार जिस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) होगा, उस समय साकारज्ञान नहीं होगा । इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से यावत् अधःसप्तमनरकपृथ्वी तक जानना और इसी प्रकार सौधर्मकल्प से लेकर अच्युतकल्प, ग्रैवेयक
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र विमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के जानने और देखने में समझना ।
- भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुओं से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं? हाँ, गौतम ! देखते हैं किन्तु जानते नहीं । क्योंकि-गौतम ! जो अनाकार होता, वह दर्शन होता है और साकार होता है, वह ज्ञान होता है । इस अभिप्राय से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारा से... यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं । इसी प्रकार यावत् ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी, परमाणु पुद्गल तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को केवली देखते हैं किन्तु जानते नहीं।
पद-३०-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र
पद-३१-संज्ञी सूत्र-५७५
भगवन् ! जीव संज्ञी है, असंज्ञी है, अथवा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी है ? गौतम ! तीनों है । भगवन् ! नैरयिक संज्ञी है, असंज्ञी है अथवा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी है ? गौतम ! नैरयिक संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं । इसी प्रकार असुर-कुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक कहना । पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! पृथ्वी-कायिक जीव असंज्ञी हैं । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को भी जानना । मनुष्यों को समुच्चय जीवों के समान जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंचों और वाणव्यन्तरों, नारकों के समान है। ज्योतिष्क और वैमानिक सिर्फ संज्ञी होते हैं । सिद्ध सिर्फ नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। सूत्र -५७६
नारक तिर्यंच, मनुष्य वाणव्यन्तर और असुरकुमारादि भवनवासी संज्ञी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं | विकलेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं तथा ज्योतिष्क और वैमानिक देव संज्ञी ही होते हैं।
पद-३१-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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पद-३२-संयत सूत्र - ५७७
भगवन् ! जीव क्या संयत होते है, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं, अथवा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? गौतम ! चारों ही होते हैं । भगवन् ! नैरयिक संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं या नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंय होते हैं ? गौतम ! नैरयिक असंयत होते हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक जानना । पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक क्या संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न है । गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यंच असंयत या संयता-संयत होते हैं। मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयता-संयत भी होते हैं। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना । सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! सिद्ध नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं। सूत्र-५७८
जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत होते हैं । तिर्यंच संयत नहीं होते । शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव तथा नारक असंयत होते हैं।
पद-३२-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-३३-अवधि सूत्र-५७९
तेतीसवें पद में सात अधिकार है-भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर-बाह्य, देशावधि, अवधि का क्षय और वृद्धि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती। सूत्र-५८०
भगवन् ! अवधि कितने प्रकार का है ? गौतम ! अवधि दो प्रकार का है, -भवप्रत्ययिक और क्षायोप-शमिक । दो को भव-प्रत्ययिक अवधि होता है, देवों और नारकों को । दो को क्षायोपशमिक होता है-मनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यंचों को।
सूत्र-५८१
भगवन् ! नैरयिक अवधि द्वारा कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? गौतम ! जघन्यतः आधा गाऊ और उत्कृष्टतः चार गाऊ । रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? गौतम ! जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ । शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य तीन और उत्कृष्ट साढ़े तीन गाऊ को, अवधि-(ज्ञान) से जानते-देखते हैं । बालुकाप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य ढ़ाई और उत्कृष्ट तीन गाऊ को, पंकप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य दो और उत्कृष्ट ढ़ाई गाऊ को, धूमप्रभापृथ्वी के नारक अवधि जघन्य डेढ़ और उत्कृष्ट दो गाऊ को, तमःप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य एक और उत्कृष्ट डेढ़ गाऊ को, तथा अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ की अवधि से जानते-देखते हैं।
भगवन् ! असुरकुमारदेव अवधि से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? गौतम ! जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों को । नागकुमारदेव जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों को, जानते और देखते हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव ? गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं । मनुष्य जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोक प्रमाण असंख्यात खण्डों को अवधि द्वारा जानते-देखते हैं । वाणव्यन्तर देवों की जानने-देखने की क्षेत्र-सीमा नागकुमार के समान जानना । ज्योतिष्क जघन्य तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीपसमुद्रों को अवधिज्ञान से जानते-देखते हैं।
भगवन् ! सौधर्मदेव कितने क्षेत्र को अवधि द्वारा जानते-देखते हैं ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागक्षेत्र को और उत्कृष्टतः नीचे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचले चरमान्त तक, तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों और ऊपर अपने-अपने विमानों तक अवधि द्वारा जानते-देखते हैं । इसी प्रकार ईशानकदेवों में भी कहना । सनत्कुमार देवों को भी इसी प्रकार समझना । किन्तु विशेष यह कि ये नीचे शर्कराप्रभा पृथ्वी के नीचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं । माहेन्द्रदेवों में भी इसी प्रकार समझना । ब्रह्मलोक और लान्तकदेव नीचे बालुका प्रभा के नीचले चरमान्त तक, महाशुक्र और सहस्रारदेव नीचे चौथी पंकप्रभापृथ्वी के नीचले चरमान्त तक, आनत, प्राणत, आरण अच्युत देव नीचे पाँचवीं धूमप्रभापृथ्वी के नीचले चरमान्त तक, नीचले और मध्यम ग्रैवेयकदेव नीचे छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नीचले चरमान्त तक, उपरिम ग्रैवेयकदेव जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नीचे अधःसप्तम पृथ्वी के नीचले चरमान्त पर्यन्त, तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को तथा ऊपर अपने विमानों तक अवधि से जानते-देखते हैं।
भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक देव अवधि द्वारा कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? गौतम ! सम्पूर्ण लोकनाड़ी को जानते-देखते हैं।
सूत्र-५८२
भगवन् ! नारकों का अवधि किस आकार वाला है ? गौतम ! तप्र के आकार का । असुरकुमारों का अवधि किस प्रकार का है ? गौतम ! पल्लक के आकार है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंचों का अवधि नाना आकारों वाला है । इसी प्रकार मनुष्यों में भी जानना । वाणव्यन्तर देवों का अवधिज्ञान पटह आकार का
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र है । ज्योतिष्क देवों का अवधिसंस्थान झालर आकार का है । सौधर्मदेवों का अवधि-संस्थान ऊर्ध्व-मृदंग आकार का है। इसी प्रकार अच्युतदेवों तक समझना । ग्रैवेयकदेवों के अवधिज्ञान फूलों की चंगेरी के आकार का है। भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक देवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है ? गौतम ! यवनालिका के आकार का है। सूत्र-५८३
। भगवन् ! क्या नारक अवधि के अन्दर होते हैं, अथवा बाहर ? गौतम ! वे अन्दर होते हैं, बाहर नहीं । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंच अवधि के बाहर होते हैं । मनुष्य अवधिज्ञान के अन्दर भी होते हैं और बाहर भी होते हैं । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों, नैरयिकों के समान हैं।
भगवन् ! नारकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है अथवा सर्वावधि ? गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना । पंचेन्द्रियतिर्यंचों का अवधि भी देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं। मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि भी होता है, सर्वावधि भी होता है । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों, नारकों के समान जानना।
भगवन् ! नारकों का अवधि क्या आनुगामिक होता है, अनानुगामिक होता है, वर्द्धमान होता है, हीयमान होता है, प्रतिपाती होता है, अप्रतिपाती होता है, अवस्थित होता है, अथवा अनवस्थित होता है ? गौतम ! वह अनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंचों का अवधि आनगामिक भी होता है. यावत अनवस्थित भी होता है । इसी प्रकार मनुष्यों के अवधिज्ञान में समझ लेना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को, नारकों के समान जानना।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-३४-प्रविचारणा सूत्र-५८४,५८५
इस पदमें सात अधिकार हैं। -अनन्तरागत आहार, आहाराभोगता आदि, पुदगलों को नहीं जानते, अध्यवसान । तथा- सम्यक्त्व का अभिगम, काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और अन्त में इनका अल्पबहुत्व।
सूत्र-५८६
भगवन् ! क्या नारक अनन्ताहारक होते हैं ?, उस के पश्चात् शरीर की निष्पत्ति होती है ? फिर पर्यादानता, तदनन्तर परिणामना होती है ? तत्पश्चात् परिचारणा करते हैं ? और तब विकुर्वणा करते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या असुरकुमार अनन्तराहारक होते हैं यावत् परिचारणा करते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । इसी प्रकार नेतकमारपर्यन्त कहना । भगवन ! क्या पथ्वीकायिक अनन्तराहारक यावत विकर्वणा करते हैं? हाँ. गौतम! सही
शेष ये की वे विकुर्वणा नहीं करते। इसी प्रकार चतुरिन्द्रियपर्यन्त कहना। विशेष ये कि वायुकायिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों को नैरयिकों समान हैं । वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों, असुरकुमारों समान जानना। सूत्र-५८७
भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोग-निर्वर्तित ? गौतम ! दोनों होता है । इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार अनाभोगनिर्वर्तित ही होता है। भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूपमें ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उन का आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किन्तु आहार करते हैं ? गौतम ! वे न जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय तक कहना । चतुरिन्द्रिय जीव? गौतम! कईं चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं, आहार करते हैं, कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं।
पंचेन्द्रियतिर्यंचों में पूर्ववत् प्रश्न | गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यंच जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं, कतिपय जानते नहीं, देखते हैं और आहार करते हैं, कईं पंचेन्द्रियतिर्यंच न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं । इसी प्रकार मनुष्यों में भी जानना । वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों को नैरयिकों के समान समझना । वैमानिक देव में पूर्ववत् प्रश्न-गौतम ! कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं और कईं न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं । क्योंकि-गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के हैं | -मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । इस प्रकार प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक के समान कहना।
भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान हैं ? गौतम ! असंख्येय । भगवन् ! वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? गौतम ! दोनों होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं ? गौतम ! तीनों होते हैं । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं। सूत्र-५८८
भगवन् ! क्या देव देवियों सहित और सपरिचार होते हैं ? अथवा वे देवियों सहित एवं अपरिचार होते हैं ? अथवा वे देवीरहित एवं परिचारयुक्त होते हैं ? या देवीरहित एवं परिचाररहित होते हैं ? गौतम ! (१) कईं देव देवियों सहित सपरिचार होते हैं, (२) कईं देव देवियों के बिना सपरिचार होते हैं और (३) कईं देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं, किन्तु कोई भी देव देवियों सहित अपरिचार नहीं होते । क्योंकि-गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशानकल्प के देव देवियों सहित और परिचारसहित होते हैं । सनत्कुमार, यावत् अच्युतकल्पों में देव, देवीरहित किन्तु परिचारसहित होते हैं । नौ ग्रैवेयक और पंच अनुत्तरौपपातिक देव देवीरहित और परिवाररहित होते हैं । किन्तु ऐसा कदापि नहीं होता कि देव देवीसहित हों, साथ ही परिवार-रहित हों।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-५८९
भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की, कायपरिचारणा, स्पर्शपरिचारणा, रूपपरिचारणा, शब्दपरिचारणा, मनःपरिचारणा । गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारक होते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं । महाशुक्र और सहस्रारकल्पमें देव शब्द-परिचारक होते हैं । आनत से अच्युत कल्पमें देव मनःपरिचारक होते हैं । नौ ग्रैवेयकों के और पाँच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं । जो कायपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा समत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएं उदार आभूषणादियुक्त, मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं । इसतरह विक्रिया करके वे उन देवों पास आती हैं । तब वे देव उन अप्सराओं साथ कायपरिचारणा करते हैं सूत्र-५९०
जैसे शीत पुद्गल शीतयोनिवाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त कर के रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका ईच्छामन शीघ्र ही तृप्त हो जाता सूत्र-५९१
भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र-पुद्गल होते हैं ? हाँ, होते हैं । उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियरूप से यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्ट रूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञ रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्यरूप-यौवन-गुण-लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। सूत्र-५९२
जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में ईच्छा उत्पन्न होती है, काया से परिचारणा करनेवाले देवों के समान समग्र वक्तव्यता कहना । जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपविचारणा करना चाहते हैं । उन देवों द्वारा ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती है। वे देव के पास जाती हैं, उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती-दिखलाती खड़ी रहती हैं । तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् ।
जो शब्दपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों के द्वारा इस प्रकार विचार करने पर उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों को प्रक्रिया करके जहाँ वे देव के पास देवियाँ जाती हैं । फिर वे उन देवों के न अति दूर न अति निकट रूककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती हैं । इस प्रकार वे देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । जो मनःपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में ईच्छा उत्पन्न होती है-हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों के द्वारा इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएं शीघ्र ही, वहीं रही हई उत्कट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं। वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । सूत्र - ५९३
भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मनःपरिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनःपरिचारक देव हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारकदेव हैं, उनसे रूपपारिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगणे हैं।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-३५-वेदना सूत्र-५९४
वेदनापद के सात द्वार हैं। शीत, द्रव्य, शरीर, साता, दुःखरूप वेदना, आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना तथा निदा और अनिदा वेदना । सूत्र-५९५
__ साता और असाता वेदना सभी जीव वेदते हैं । इसी प्रकार सुख, दुःख और अदुःख-असुख वेदना भी वेदते हैं। विकलेन्द्रिय मानस वेदना से रहित हैं । शेष सभी जीव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। सूत्र-५९६
भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की-शीतवेदना, उष्णवेदना और शीतोष्णवेदना। भगवन् ! नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, या शीतोष्णवेदना वेदते हैं ? गौतम ! शीतवेदना भी वेदते हैं
और उष्णवेदना भी । कोई-कोई प्रत्येक (नरक-) पृथ्वी में वेदनाओं के विषय में कहते हैं-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक उष्णवेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वालुकाप्रभा के नैरयिकों तक कहना । पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक शीतवेदना और उष्णवेदना वेदते हैं, वे नारक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे नारक अल्प हैं जो शीतवेदना वेदते हैं । धूमप्रभापृथ्वी में भी दोनों प्रकार की वेदना है । विशेष यह कि इनमें वे नारक बहुत हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं तथा वे नारक अल्प हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं । तमा और तमस्तमा पृथ्वी के नारक केवल शीतवेदना वेदते हैं । भगवन् ! असुरकुमार ? गौतम ! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्णवेदना भी वेदते हैं और शीतोष्णवेदना भी वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना।
वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! चार प्रकार की-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । भगवन् ! नैरयिक क्या द्रव्यतः यावत भावतः वेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से भी वेदना वेदते हैं, यावत भाव से भी वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त है । वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की-शारीरिक, मानसिक
और शारीरिक-मानसिक | भगवन् ! नैरयिक शारीरिकवेदना वेदते हैं, मानसिकवेदना वेदते हैं अथवा शारीरिकमानसिकवेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे तीनों वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना । विशेष -एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल शारीरिकवेदना ही वेदते हैं।
वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की-साता, असाता और साता-असाता | नैरयिक सातावेदना वेदते हैं, असातावेदना वेदते हैं, अथवा साता-असाता वेदना वेदते हैं ? गौतम ! तीनों वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की - सुखा, दुःखा और अदुःखसुखा । नैरयिक जीव दुःखवेदना वेदते हैं, सुखवेदना वेदते हैं अथवा अदुःख-सुखावेदना वेदते हैं ? गौतम ! तीनों वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना। सूत्र-५९७
वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । नैरयिक आभ्युपगमिकी वेदना वेदते हैं या औपक्रमिकी ? गौतम ! वे औपक्रमिकी वेदना ही वेदते हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक कहना | पंचेन्द्रियतिर्यंच और मनुष्य दोनों प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में नैरयिकों के समान कहना। सूत्र-५९८
वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की - निदा और अनिदा । नारक निदावेदना वेदते हैं, य अनिदावेदना ? गौतम ! नारक दोनों वेदना वेदता है । क्योंकि-गौतम ! नारक दो प्रकार के हैं-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । जो संज्ञीभूत होते हैं, वे निदावेदना वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत होते हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं । इसी
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना ।
पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना ? गौतम ! वे अनिदावेदना वेदते हैं । क्योंकि-गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी और असंज्ञीभूत होते हैं, इसलिए अनिदावेदना वेदते हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों को नैरयिकों के समान जानना । ज्योतिष्क देव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना ? गौतम ! वे दोनों वेदना वेदते हैं । क्योंकि-गौतम ! ज्योतिष्क देव दो प्रकार के हैं, - मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायिसम्यग्दृष्टिउपपन्नक । जो मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमायिसम्यग्दष्टिउपपन्नक हैं. वे निदावेदना वेदते हैं । वैमानिक देवों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना।
पद-३५-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-३६-समुद्घात सूत्र-५९९
जीवों और मनुष्यों के ये सात समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहार और कैवलिक । सूत्र-६००
भगवन् ! समुद्घात कितने हैं ? गौतम ! सात-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात | भगवन् ! वेदनासमुद्घात कितने समय का है ? गौतम ! असंख्यात समयोंवाले अन्तमुहूर्त का । इसी प्रकार आहारकसमुद्घात पर्यन्त कहना । केवलिसमुद् घात आठ समय का है।
भगवन ! नैरयिकों के कितने समदघात हैं ? गौतम ! चार-वेदना, कषाय, मारणान्तिक एवं वैक्रियसमदघात । भगवन् ! असुरकुमारों के कितने समुद्घात हैं ? गौतम ! पाँच-वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजससमुद् घात । इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना । पृथ्वीकायिक जीवों के तीन समुद्घात हैं । वेदना, कषाय और मारणान्तिकसमुद्घात । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों पर्यन्त जानना । विशेष यह कि वायुकायिक जीवों के चार समुद्घात हैं, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और वैक्रियसमुद्घात । पंचेन्द्रियतिर्यंचों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त पाँच समुद्घात हैं, यथा-वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजससमुद्घात । विशेष यह कि मनुष्यों के सात समुद्घात हैं, यथावेदना यावत् केवलिसमुद्घात । सूत्र-६०१
भगवन् ! एक-एक नारक के कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? हे गौतम ! अनन्त । भगवन् भविष्य में कितने होने वाले हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं । इसी प्रकार असुरकुमार से वैमानिक तक जानना । इसी प्रकार तैजससमुद्घात तक जानना । इसी प्रकार ये पाँचों समुद्घात भी समझना ।
भगवन् ! एक-एक नारक के अतीत आहारकसमुद्घात कितने हैं ? गौतम ! वे किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके भी जघन्य एक या दो होते हैं और उत्कृष्ट तीन होते हैं । एक-एक नारक के भावी समुद्घात कितने हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार समुद्घात होते हैं । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना । विशेष यह कि मनुष्य के अतीत और अनागत नारक के आहारकसमुद्घात के समान हैं।
एक-एक नारक के अतीत केवलिसमुद्घात कितने हुए हैं ? गौतम! नहीं है । भगवन् ! भावी कितने होते हैं ? गौतम ! किसी के होता है, किसी के नहीं होता । जिसके होता है, उसके एक ही होता है । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना । विशेष यह कि किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात किसी को होता है, किसी को नहीं होता । जिसके होता है, उसके एक ही होता है । इसी प्रकार भावी (केवलिसमुद्घात) को भी जानना। सूत्र-६०२
नारकों के कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? गौतम ! अनन्त । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । इसी प्रकार तैजससमुद्घात पर्यन्त समझना । इस प्रकार इन पाँचों समुद्घातों को चौबीसों दण्डकों में बहुवचन के रूप में समझ लेना।
नारकों के कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! असंख्यात । आगामी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? गौतम ! असंख्यात । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना । विशेषता यह कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों की वक्तव्यता में भिन्नता है, वनस्पतिकायिक जीवों के आहारकसमुद्घात अनन्त अतीत हुए हैं ? मनुष्यों के आहारकसमुद्घात कथंचित् संख्यात और कथंचित् असंख्यात हुए हैं । इसी प्रकार उनके भावी आहार-कसमुद्घात भी समझ लेना । नैरयिकों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! एक भी नहीं है । कितने केवलिसमुद् मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र घात आगामी हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । विशेष यह कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों में भिन्नता है, वनस्पतिकायिकों के केवलिसमुद्घात अतीत में नहीं हैं ? इनके भावी केवलिसमुद्घात अनन्त हैं। मनुष्यों के केवलिसमुद्घात अतीत में कथंचित हैं और कथंचित् नहीं हैं । यदि हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हैं । उनके भावी केवलिसमुद्घात कथंचित् संख्यात हैं और कथंचित् असंख्यात हैं। सूत्र-६०३
एक-एक नैरयिक के नारकत्व में कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । कितने भावी होते हैं ? गौतम ! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं । इसी प्रकार एक-एक नारक के असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व में समझना । एक-एक असुरकुमार के नारकत्व में कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी कितने होते हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं, जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं ।
एक-एक असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी कितने होते हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं, जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं । इसी प्रकार नागकुमार यावत् वैमानिकपर्याय में रहते हुए अतीत और अनागत वेदना-समुद्घात समझना । असुरकुमार के वेदनासमुद्घात के समान नागकुमार आदि से लेकर शेष सब स्वस्थानों और परस्थानों में वेदनासमुद्घात यावत् वैमानिक के वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहना । इसी प्रकार चौबीस दण्डकों में से प्रत्येक के चौबीस दण्डक होते हैं। सूत्र-६०४
भगवन् ! एक-एक नारक के नारकपर्याय में कितने कषायसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी कितने होते हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके एक से लेकर यावत्
अनन्त हैं । एक-एक नारक के असुरकुमारपर्याय में कितने कषायसमुद्घात अतीत होते हैं ? गौतम ! अनन्त। भावी कितने होते हैं ? गौतम ! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं । जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । इसी प्रकार नारक का यावत् स्तनितकुमारपर्याय में समझना । नारक का पृथ्वीकायिकपर्याय में एक से लेकर जानना । इसी प्रकार यावत् मनुष्यपर्याप में समझना । वाणव्यन्तरपर्याय में नारक के असुरकुमारत्व के समान जानना । ज्योतिष्कदेवपर्याय में अतीव कषायसमुदघात अनन्त हैं तथा भावी कषायसमुद घात किसी का होता है, किसी का नहीं होता । जिसका होता है, उसका कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त होता है। इसी प्रकार वैमानिकपर्याय में भी जानना ।
असुरकुमार के नैरयिकपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते हैं । भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं । असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में अतीत (कषायसमुद्घात) अनन्त हैं और भावी एक से लेकर कहना । इसी प्रकार नागकुमारत्व से वैमानिकत्व तक नैरयिक के समान कहना । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक भी यावत् वैमानिकत्व में पूर्ववत् कथन समझना । विशेष यह कि इन सबके स्वस्थान में भावी कषायसमुद्घात एक से लगा कर हैं
और परस्थान में असुरकुमार के समान हैं । पृथ्वीकायिक जीव के नारक यावत् स्तनितकुमारपर्याय में अनन्त (कषायसमुद्घात) अतीत हुए हैं, उसके भावी पर्याय किसी को होते हैं किसी को नहीं जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक यावत् मनुष्य - अवस्था में (कषायसमुद्घात) अतीत अनन्त हैं । भावी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके एक से अनन्त होते हैं । वाणव्यन्तर-अवस्था में नारक-अवस्था के समान जानना । ज्योतिष्क और वैमानिक-अवस्था में अनन्त अतीत हुए हैं। भावी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र और कदाचित् अनन्त होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्व तक में भी जानना । वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों, वैमानिकों को असुर कुमारों समान समझना। विशेष ये है कि स्वस्थानमें एक से लेकर समझना तथा वैमानिक के वैमानिकत्व पर्यन्त कहना सूत्र-६०५
__ मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में भी और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से समझ लेना, यावत् वैमानिक का वैमानिकपर्याय में कहना । इसी प्रकार ये चौबीस दण्डक चौबीसों दण्डकों में कहना । वैक्रियसमुद्घात की समग्र वक्तव्यता कषायसमुद्घात के समान कहना । विशेष यह कि जिसके (वैक्रियसमुद्घात) नहीं होता, उसके विषय में नहीं कहना । यहाँ भी चौबीस दण्डक चौबीस दण्डकों में कहना । तैजससमुद्घात का कथन मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना । विशेष यह कि जिसके वह होता है, उसी के कहना । इस प्रकार ये भी चौबीसों दण्डकों में कहना।
एक-एक नारक के नारक-अवस्था में कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! नहीं होते । भावी आहारकसमुद्घात भी नहीं होते । इसी प्रकार यावत् वैमानिक-अवस्था में समझना । विशेष यह कि मनुष्यपर्याय में अतीत (आहारकसमुद्घात) किसी के होता है, किसी के नहीं होता । जिसके होता है, उसके जघन्य एक अथवा दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं । भावी आहारकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं । इसी प्रकार समस्त जीवों और मनुष्यों में जानना ।
मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत आहारकसमुद्घात किसी के हुए हैं, किसी के नहीं हुए । जिसके होते है उसके जघन्य एक, दो या तीन,उत्कृष्ट चार होते हैं । इसी प्रकार भावी भी जानना । इसी प्रकार ये २४ दण्डक चौबीसों दण्डकों में यावत् वैमानिकपर्याय में कहना । एक-एक नैरयिक के नारकत्वपर्याय में कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! नहीं हुए हैं । और भावि में भी नहीं होते । इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक कहना । विशेष यह कि मनुष्यपर्याय में अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होता । भावी किसी के होता है, किसी के नहीं होता है। जिसके होता है, उसके एक होता है। मनुष्य के मनुष्यपर्यायमें अतीत केवलिसमुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता । जिसके होता है, उसके एक होता है। इसी प्रकार भावी में भी कहना । इस प्रकार ये २४ दण्डक चौबीसों दण्डकोंमें जानना । सूत्र-६०६
भगवन ! (बहत-से) नारकों के नारकपर्याय में रहते हए कितने वेदनासमदघात अतीत हए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी कितने होते हैं ? गौतम ! अनन्त । इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक जानना । इसी प्रकार सर्व जीवों के यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में समझना । इसी प्रकार तैजससमुद्घात पर्यन्त कहना । विशेष यह कि जिसके वैक्रिय और तैजससमुद्घात सम्भव हों, उसी के कहना । भगवन् ! (बहत) नारकों के नारकपर्याय में रहते हए कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! एक भी नहीं । भावी (आहारकसमुद्घात) कितने होते हैं ? गौतम ! नहीं होते । इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय में कहना । विशेष यह कि मनुष्यपर्याय में असंख्यात अतीत और असंख्यात भावी आहारकसमुद्घात होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि वनस्पति-कायिकों के मनुष्यपर्याय में अनन्त अतीत और अनन्त भावी होते हैं । मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात एवं भावी भी जानना । शेष सब नारकों समान समझना । इस प्रकार इन चौबीसों के चौबीस दण्डक होते हैं
भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! नहीं हुए और भावि में भी नहीं होते । इसी प्रकार वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहना । विशेष यह कि मनुष्यपर्याय में अतीत नहीं होते, किन्तु भावी असंख्यात होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना । विशेष यह कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत नहीं होते । भावी अनन्त होते हैं । मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में अतीत केवलिसमुद्घात कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते । जिसके होता है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं । मनुष्यों के भावी केवलिसमुद्घात कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं । इस प्रकार इन चौबीस दण्डकों में चौबीस दण्डक घटित करके पृच्छा के अनुसार वैमानिकों के वैमानिकपर्याय तक कहना ।
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-६०७
भगवन् ! इन वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत जीवों में कौन किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम आहारकसमुद्घात से समवहत जीव हैं, (उनसे) केवलिसमुद्घात से समवहत जीव संख्यातगुणा है, उनसे तैजससमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा है, उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा है, उनसे मारणान्तिक-समुद् घात से समवहत जीव अनन्तगुणा है, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा है, उनसे वेदनासमुद् घात से समवहत जीव विशेषाधिक है और (इन सबसे) समवहत जीव असंख्यातगुणा है । सूत्र-६०८
____ भगवन् ! इन वेदना, कषाय, मारणान्तिक एवं वैक्रियसमुद्घात से समवहत और असमवहत नैरयिकों में अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नैरयिक हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घातवाले असंख्यात गुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घातवाले नैरयिक संख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत नारक संख्यातगुणा हैं, (इन सबसे)असमवहत नारक संख्यातगुणा हैं। भगवन् !इन वेदनासमुद्घात से, कषाय-समुद्घात से, मारणान्तिक समुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से तथा तैजससमुद्घात से समवहत एवं असमवहत असुर कुमारों में अल्पबहुत्व०? गौतम! सबसे कम तैजससमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, (उनसे) मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत असुर कमार असंख्यातगणा हैं, (उनसे) वेदनासमुदघात से समवहत असुरकुमार असंख्यात-गुणा हैं, (उनसे) कषायसमुद् घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं और (इन सबसे) असंख्यातगुणा अधिक हैं-असमवहत असुरकुमार । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना।
भगवन् !वेदना, कषाय एवं मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत तथा असमवहत पृथ्वीकायिकों में अल्पबहुत्व? गौतम! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, कषायसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक उनसे संख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणा हैं । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक तक समझना । विशेष यह कि वायुकायिक जीवों में सबसे कम वैक्रियसमुद्घात से सहवहत वायुकायिक हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं और उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत वायुकायिक विशेषाधिक हैं तथा (इन सबसे) असंख्यात-गुणा अधिक हैं असमवहत वायुकायिक जीव ।
इन वेदना, कषाय तथा मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत द्वीन्द्रिय जीवों में अल्पबहुत्वगौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय हैं । उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणा और इन सबसे असमवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणा अधिक हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक जानना । वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय तथा तैजस-समुद् घात समवहत पंचेन्द्रियतिर्यंचों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? गौतम ! सबसे कम तैजससमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यंच हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घातवाले असंख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात वाले असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घातवाले असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यंच संख्यातगुणा हैं और इन सबसे संख्यातगुणा अधिक हैं असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यंच।
भगवन् ! वेदना यावत् केवलिसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत मनुष्यों में अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे कम आहारकसमुद्घात से समवहत मनुष्य हैं, उनसे केवलिसमुद्घातवाले संख्यातगुणा हैं, उनसे तैजससमुद्घात वाले संख्यातगुणा हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घात वाले संख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात वाले असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात वाले असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात वाले संख्यातगुणा हैं और इन सबसे असमवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के (समुद्घात विषयक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता) असुरकुमारों के समान (समझनी चाहिए ।)
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-६०९
__ भगवन् ! कषायसमुद्घात कितने हैं ? गौतम ! चार-क्रोधसमुद्घात, मानससमुद्घात, मायासमुद्घात और लोभसमुद्घात । नारकों के कितने कषायसमुद्घात हैं ? गौतम ! चारों हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । एकएक नारक के कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी कितने होते हैं ? गौतम ! किसी के होते हैं, किसी के नहीं । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं । इस प्रकार वैमानिक तक समझना । इसी प्रकार लोभसमुद्घात तक समझना । ये चार दण्डक हुए।
(बहुत) नैरयिकों के कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त । भावी क्रोधसमुद्घात कितने होते हैं? वे भी अनन्त । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । इसी प्रकार लोभसमदघात तक समझन एक नैरयिक के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! वे अनन्त हुए हैं । वेदनासमुद्घात के समान क्रोधसमुद्घात का भी वैमानिकपर्याय तक कहना । इसी प्रकार मानसमुद्घात एवं माया
मारणान्तिकसमुद्घात समान कहना । लोभसमुद्घात कषायसमुद्घात के समान कहना । विशेष यह कि असुरकुमार आदि का नारकपर्याय में लोभकषायसमुद्घात की प्ररूपणा एक से लेकर करना । नारकों के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? गौतम ! अनन्त, भावि भी अनन्त होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक कहना । इसी प्रकार स्वस्थान-परस्थानों में सर्वत्र लोभसमुद्घात तक यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय तक कहना। सूत्र- ६१०
भगवन् ! क्रोध, मान, माया और लोभसमुद्घात से तथा अकषायसमुद्घात से समवहत और असमवहत जीवों से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम अकषायसमुद्घात से समवहत जीव हैं, उनसे मानकषायवाले अनन्तगुणे हैं, उनसे क्रोधसमुदघात वाले विशेषाधिक हैं, उनसे मायासम्
द्घात वाले विशेषाधिक हैं, उनसे लोभसमुद्घातवाले विशेषाधिक हैं और (इन सबसे) असमवहत जीव संख्यात-गुणा हैं । इन क्रोध, मान, माया और लोभसमुद्घात से समवहत और असमवहत नारकों में अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे कम लोभसमुद्घात से समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा मायासमुद्घातवाले हैं, उनसे संख्यातगुणा मानसमुद्घातवाले हैं, उनसे संख्यातगुणा क्रोधसमुद्घात वाले और इन सबसे संख्यातगुणा असमवहत नारक हैं।
क्रोधादिसमुद्घात से समवहत और असमवहत असुरकुमारों में ? गौतम ! सबसे थोड़े क्रोधसमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, उनसे मानसमुद्घाती संख्यातगुणा हैं, उनसे मायासमुद्घाती संख्यातगुणा हैं और उनसे लोभसमुद्-घाती संख्यातगुणा हैं तथा इन सबसे असमवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक सर्वदेवों को जानना । क्रोधादिसमुद्घात से समवहत और असमवहत पृथ्वीकायिकों में ? गौतम ! सबसे कम मानससमुद्-घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, उनसे क्रोधसमुद्घाती विशेषाधिक हैं, उनसे मायासमुद्घाती विशेषाधिक हैं और उनसे लोभसमुद्घाती विशेषाधिक हैं तथा इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणा हैं । इसी प्रकार पंचे-न्द्रियतिर्यंच में जानना। मनुष्यों समुच्चय जीवों के समान हैं । विशेष यह कि मानससमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यात-गुणा है। सूत्र-६११
भगवन् ! छाद्मस्थिकसमुद्घात कितने हैं ? गौतम ! छह-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात । नारकों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं ? गौतम ! चार-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात । असुरकुमारों में पाँच छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं यथा-वेदनासमद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात और तैजससमुद्घात | एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में गौतम ! तीन समुद्घात हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात । किन्तु वायुकायिक जीवों में चार हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात । पंचेन्द्रियतिर्यंचों में पाँच छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं - वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात,
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात और तैजससमुद्घात | भगवन् ! मनुष्यों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं ? गौतम ! छह-वेदना यावत् आहारकसमुद्घात । सूत्र - ६१२
भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं में व्याप्त करता है । इतना क्षेत्र आपूर्ण और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है । वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट हुआ ? गौतम ! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में आपूर्ण हुआ और स्पृष्ट होता है । उन पुद्गलों को कितने काल में निकालता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में। वे बाहर निकले हुए पुदगल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, आवर्त्तपतित करते हैं, थोड़ा-सा छूते हैं, संघात करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूर्च्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रियावाला होता है ? गौतम ! वह कदाचित् तीन, चार और कदाचित् पाँच । वे जीव उस जीव से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! वे कदाचित् तीन, चार और कदाचित् पाँच क्रिया वाले । भगवन् ! वह जीव और वे जीव
अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! तीन क्रिया, चार क्रिया अथवा पाँच क्रिया वाले भी होते हैं।
भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, उन पुदगलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथ स्पृष्ट होता है ? गौतम ! समुच्चय जीव के समान कहना । समुच्चय जीव के समान ही वैमानिक पर्यन्त कहना । इसी प्रकार कषायसमदघात को भी कहना ।
सूत्र-६१३
भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को आत्म-प्रदेशों से पृथक् करता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन क्षेत्र आपूर्ण
और व्याप्त होता है । इतना क्षेत्र आपूर्ण तथा व्याप्त होता है । वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । तत्पश्चात् शेष वही कथन कदाचित् पाँच क्रियाएं लगती हैं; (तक करना) । समुच्चय जीव के समान नैरयिक को भी समझना । विशेष यह कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से कहना, चार समय के विग्रह से नहीं कहना । असुरकुमार को जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घात के अनुसार समझना । विशेष यह कि असुरकुमार का विग्रह नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना। शेष पूर्ववत् ! असुरकुमार के समान वैमानिक देव तक कहना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय को समुच्चय जीव के समान कहना।
वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से तना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पष्ट होता है ? गौतम ! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है । वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है ? गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से होता है । शेष पूर्ववत् ! इसी प्रकार नैरयिकों को भी कहना । विशेष यह कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । इसका आपूर्ण एवं स्पृष्ट काल जीवपद के समान है । नारक के वैक्रियसमुद्घात समान असुरकुमार को समझना । विशेष यह कि एक दिशा या विदिशा में उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त समझना । वायुकायिक को समुच्चय जीवपद के समान समझना । विशेष यह कि एक ही दिशा में उक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है । नैरयिक के
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र समान ही पंचेन्द्रियतिर्यंच को जानना । मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक को असुरकुमार के समान कहना।
तैजससमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण और स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वैक्रियसमुद्घात के समान तैजससमुद्घात में कहना । विशेष यह कि तैजससमुद् घात निर्गत पुद्गलों से लम्बाई में जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त समझना । विशेष यह कि पंचेन्द्रियतिर्यंच एक ही दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र को आपूर्ण एवं व्याप्त करते हैं।
__ आहारसमुद्घात से समवहत जीव जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाण मात्र तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में होता है । उन पुगलों को कितने समय में बाहर निकालता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में । भगवन् ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों, भतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, यावत उन्हें प्राणरहित कर देते हैं, भगवन ! उनसे उस जीव को क्रियाएं लगती हैं ? वह कदाचित् तीन, चार और पाँच क्रियाओंवाला होता है। आहारकसमुद्घात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्प हुए जीव आहारकसमुद्घात करनेवाले जीव के निमित्त से भी इतनी ही क्रिया-वाला होता है। (आहारकसमुद्घातकर्ता) तथा आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात कने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? गौतम ! तीन, चार अथवा पाँच क्रियावाले भी होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्घात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। सूत्र - ६१४
भगवन ! केवलिसमदघात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पदगल हैं, वे पदगल सक्ष्म हैं? वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद् गलों के चक्षु-इन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसनेन्द्रिय से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को जानतादेखता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है। क्योंकि-गौतम ! यह जम्बूद्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार है, तेल के पूए के आकार का है, रथ के पहिये के आकार-सा गोल है, कमल की कर्णिका के आकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार सा गोल है, लम्बाई और चौड़ाई में एक लाख योजन है। ३१६२२७ योजन, तीन कोस, १२८ धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त है।
एक महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिबिया को उसे खोलता है । फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई बड़ी डिबिया को, इस प्रकार हाथ में ले करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को तीन चुटकियों में इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र आ जाए, तो हे गौतम ! क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? हाँ, भंते ! हो जाता है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उत घ्राण-पुद्गलों के वर्ण को चक्षु से, यावत् स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् जान देख पाता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, यावत् स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जान-देख पाता। वे (निर्जरा) पुद्गल सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हैं। सूत्र-६१५
भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ? गौतम ! केवली के चार कमोश क्षाण नहा हुए ह, वेदन नहीं किए हैं, निर्जरा प्राप्त नहीं हुए हैं, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशी होता है । आयुकर्म सबसे कमप्रदेशी होता है । वे बन्धनों और स्थितियों से विषम को सम करते हैं । बन्धनों और स्थितियों के विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए केवली केवलिसमुद्घात करते हैं । भगवन् ! क्या सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। सूत्र-६१६
जिसके भवोपग्राही कर्म बन्ध एवं स्थिति से आयुष्यकर्म तुल्य होते हैं, वह केवली केवलिसमुद्घात नहीं करता
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-६१७
समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं। सूत्र - ६१८
भगवन् ! आवर्जीकरण कितने समय का है ? गौतम ! असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का है। सूत्र - ६१९
भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का है ? गौतम ! आठ समय का, -प्रथम समय में दण्ड करता है, द्वितीय समय में कपाट, तृतीय समय में मन्थान, चौथे समय में लोक को व्याप्त करता है, पंचम समय में लोक-पूरण को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को, सातवें समय में कपाट को और आठवें समय में दण्ड को सिकोड़ता है और दण्ड का संकोच करते ही शरीरस्थ हो जाता है । भगवन् ! तथारूप से समुद्घात प्राप्त केवली क्या मनोयोग का, वचनयोग का अथवा काययोग का प्रयोग करता है ? गौतम ! वह केवल काययोग का प्रयोग करता है । भगवन् ! काययोग का प्रयोग करता हआ केवली क्या औदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, औदारिकमिश्र०, वैक्रिय०, वैक्रियमिश्र०, आहारकशरीर०, आहारकमिश्र० अथवा कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है ? गौतम ! वह औदारिकशरीरकाययोग का, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का और कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। प्रथम और अष्टम समय में औदारिकशरीरकाययोग का, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का तथा तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। सूत्र-६२०
भगवन् ! तथारूप समुद्घात को प्राप्त केवली क्या सिद्ध, मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं, क्या वह सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । पहले वे उससे प्रतिनिवृत्त होते हैं । तत्प-श्वात् वे मनोयोग, वचनयोग और काययोग का भी उपयोग करते हैं । भगवन् ! मनोयोग का उपयोग करता हुआ केवलिसमुद् घात करनेवाला केवली क्या सत्यमनोयोग का, मृषामनोयोग का, सत्यामृषामनोयोग अथवा असत्या-मृषामनोयोग का उपयोग करता है ? गौतम ! वह सत्यमनोयोग और असत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है, मृषामनोयोग और सत्यामृषामनोयोग का नहीं । वचनयोग का उपयोग करता हआ केवली ? गौतम ! वह सत्य-वचनयोग और असत्यामृषावचनयोग का उपयोग करता है, मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग का नहीं । काययोग का उपयोग करता हुआ आता है, जाता है, ठहरता है, बैठता है, करवट बदलता है, लांघता है, या वापस लौटाये जाने वाले पीठ, पट्टा, शय्या आदि वापस लौटाता है। सूत्र-६२१
भगवन् ! वह तथारूप सयोगी सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते । वह सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले से असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करते हैं । तत्पश्चात् अपर्याप्तक सूक्ष्मपनकजीव, जो जघन्ययोग वाला हो, उस से असंख्यातगुणहीन काय-योग का निरोध करते हैं । काययोगनिरोध करके वे योगनिरोध करते हैं । अयोगत्व प्राप्त करते हैं । धीरे-से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितने काल में असंख्यातसामयिक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले शैलेशीकरण को अंगीकार करते हैं । असंख्यात कर्मस्कन्धों का क्षय कर डालते हैं । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्मों का एक साथ क्षय करते हैं ।
औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग करते हैं । ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग से उपयुक्त होकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिवृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं।
वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सघनआत्मप्रदेशों वाले दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ, नीरज, निष्कम्प, अज्ञान
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र तिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्वत भविष्यकाल में रहते हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं? गौतम ! जैसे अग्नि में जले हए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पुनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। सूत्र-६२२
सिद्ध भगवान् सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं । सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत और बाधारहित होकर रहते हैं।
पद-३६-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(१५) प्रज्ञापना-उपांगसूत्र -४मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद समाप्त
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________________ आगम सूत्र 15, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना' पद/उद्देश /सूत्र नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ શ્રી આનંદ-ક્ષમાં-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: ALSA d XXXXXX XXXX AA XXXXXXX प्रज्ञापना आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक] आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] वन साट:- (1) (2) deepratnasagar.in भेल ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोना 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 181