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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कहना । मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छ भंग पाये जाते हैं । लोभकषायी नैरयिकों में छ भंग होते हैं । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग हैं। अकषायी को नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जानना । सूत्र-५६६
__ज्ञानी को सम्यग्दृष्टि के समान समझना | आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में छह भंग समझना । शेष जीव आदि में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग हैं । अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंच आहारक होते हैं । शेष जीव आदि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग हैं । मनःपर्यव ज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य आहारक होते हैं । केवलज्ञानी को नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जानना । अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं । विभंगज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यंच और मनुष्य आहारक होते हैं । अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं । सूत्र-५६७
सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं। मनोयोगी और वचनयोगी में सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान कहना । विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना । काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग हैं । अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध अनाहारक हैं। सूत्र-५६८
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोगी जीवों में तीन भंग कहना। सिद्ध जीव अनाहारक ही होते हैं । सूत्र - ५६९
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य सब सवेदी जीवों के, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी में, नपुंसकवेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं । अवेदी जीवों को केवलज्ञानी के समान कहना। सूत्र - ५७०
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग हैं । औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग हैं | शेष जीवों और औदारिकशरीरी आहारक होते हैं । किन्तु जिनके औदारिक शरीर होता है, उन्हीं को कहना । वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं । किन्तु यह कथन वैक्रिय और आहारकशरीरी के लिए है। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तैजस और कार्मणशरीरी में तीन भंग हैं । अशरीरी जीव और सिद्ध अनाहारक होते हैं। सूत्र -५७१
___आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास तथा भाषा-मनःपर्याप्ति इन पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं । शेष जीव आहारक होते हैं । विशेष यह कि भाषा-मनः-पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है। आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव अनाहारक होते हैं । शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता है। आगे की चार अपर्याप्तियों वाले नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं । शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग हैं । भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यंचों में तीन भंग पाये जाते हैं । नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग हैं। सभी पदों में जीवादि दण्डकों में जिस दण्डक में जो पद संभव हो, उसी की पृच्छा करना । यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचे-न्द्रियतिर्यंचों में तीन भंगों की वक्तव्यतापर्यन्त समझना ।
पद-२८-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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