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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-२०२
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर पैंतालीस लाख योजनों में, ढाई द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तर्वीपों में हैं । उपपात और स्वस्थान से लोक के असंख्यात भाग में और समुदघात से सर्वलोक में हैं। सूत्र-२०३
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,८०,००० योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन में भवनवासी देवों के ७,७२,००,००० भवनावास हैं । वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र तथा नीचे पुष्कर की कर्णिका के आकार के हैं । चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ
और परिखाएं हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट है । प्राकारों, अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से (वे भवन) सुशोभित हैं । (तथा वे भवन) विविध यन्त्रों शतघ्नियों, मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से चारों ओर वेष्टित हैं; तथा वे शत्रुओं द्वारा अयोध्या, सदाजय, सदागुप्त, एवं अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय किंकरदेवों के दण्डों से उपरक्षित हैं । लीपने और पोतने के कारण प्रशस्त रहते हैं । गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से पाँचों अंगुलियों के छापे लगे होते हैं । चन्दन के कलश रखे हैं । उनके तोरण और प्रतिद्वारदेश के भाग चन्दन के घड़ों से सुशोभित हैं । (वे भवन) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के कलाप से युक्त होते हैं; पंचरंगे ताजे सरस सुगन्धित पुष्पों से युक्त हैं । वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हई सगन्ध से रमणीय, उत्तम सगन्धित होने से गंधवट्री के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भलीभाँति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, आवरणरहित कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योतयुक्त, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं सुरूप होते हैं । इन भवनों में भवनवासी देवों के स्थान हैं । उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
वे भवनवासी देव इस प्रकार हैंसूत्र-२०४
__ असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार | सूत्र-२०५
इनके मुकुट या आभूषणों में अंकित चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैं-चूडामणि, नाग का फन, गरुड़, वज्र, पूर्णकलश, सिंह, मकर, हस्ती, अश्व और वर्द्धमानक इनसे युक्त विचित्र चिह्नोंवाले, सुरूप, महर्द्धिक, महाद्युतिवाले, महाबलशाली, महायशस्वी, महाअनुभाग वाले, महासुखवाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों और बाजूबन्दों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को चिकने बनाने वाले अंगद, कुण्डल तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र आभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठमाला और अनुलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि, द्युति, प्रभा-छाया, अर्चि, तेज एवं दिव्य
र, सुशोभित करते हुए वे वहाँ अपने-अपने लाखों भवनवासों का, हजारों सामानिकदेवों का, त्रायस्त्रिंश देवों का, लोकपालों का, अग्रमहिषियों का, परिषदाओं का, सैन्यों का, सेनाधिपतियों का, आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महात्तरत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते हुए तथा पालन करते-कराते हुए, अहत नृत्य, गीत, वादित, एवं तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हए विचरते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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