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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र हैं-उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। सूत्र-४२७
भगवन् ! दर्पण देखता हुआ मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको देखता है ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ? गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु प्रतिबिम्ब देखता है। इसी प्रकार असि, मणि, उदपान, तेल, फाणित और वसा के विषय में समझना । सूत्र-४२८
भगवन् ! कम्बलरूप शाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है ? हाँ, गौतम ! रहता है। भगवन् ! स्थूणा ऊपर उठी हई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? हाँ, गौतम ! रहती है।
भगवन् ! आकाशथिग्गल अर्थात् लोक किस से स्पृष्ट है ?, कितने कार्यों से स्पृष्ट है ? इत्यादि प्रश्नो-गौतम! लोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है; इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जानना । आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है ।
जम्बूद्वीप धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है । इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है, पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं है; अद्धा-समय से स्पृष्ट है।
इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और बाह्य पुष्करार्द्ध में इसी प्रकार कहना । विशेष यह कि बाह्य पुष्करार्ध से लेकर आगे के समुद्र एवं द्वीप अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं है । स्वयम्भूरमण-समुद्र तक इसी प्रकार है। सूत्र - ४२९-४३१
जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, पुष्करद्वीप, वरुणद्वीप, क्षीरवर, घृतवर, क्षोद, नन्दीश्वर, अरुणवर, कुण्डलवर, रुचक । आभरण, वस्त्र, गन्ध, उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधि, रत्न, वर्षधर, द्रह, नदियाँ, विजय, वक्षस्कार, कल्प, इन्द्र । कुरु, मन्दर, आवास, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, नाग, यक्ष, भूत और स्वयम्भूरमण समुद्र यह क्रम है। सूत्र-४३२
इस प्रकार बाह्यपुष्करार्द्ध के समान स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) 'अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं होता' | भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? इत्यादि समस्त वक्तव्यता लोक (आकाश थिग्गल) के समान जानना । अलोक धर्मास्तिकाय से यावत् आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है; (वह) आकाशास्तिकाय के देश तथा प्रदेशों से स्पृष्ट हैं; (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पृष्ट नहीं है, यावत् अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं है | अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त हैं, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है।
पद-१५ उद्देशक-२ सूत्र-४३३,४३४
इन्द्रियोपचय, निर्वर्तना, निर्वर्तना के असंख्यात समय, लब्धि, उपयोगकाल, अल्पबहत्वमें विशेषाधिक उपयोग काल, अवग्रह, अवाय, ईहा, व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, अतीतबद्धपुरस्कृत द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय यह १२ द्वार हैं। सूत्र-४३५
भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का, श्रोत्रेन्द्रियोपचय, चारिन्द्रियोपचय, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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