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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र संस्थानो वाली है । समयचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्जक, वामन और हुण्डक । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को असुरकुमारों के समान कहना । सूत्र -४२४
भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सूनती है या अस्पृष्ट शब्दों को ? गौतम ! स्पृष्ट शब्दों को सूनती है, अस्पृष्ट को नहीं । (चक्षुरिन्द्रिय) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती । (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं । इस प्रकार रसों के और स्पर्शों के विषय में भी समझना । विशेष यह कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करती है।
भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सूनती है या अप्रविष्ट शब्दों को ? गौतम ! प्रविष्ट शब्दों को सूनती है, अप्रविष्ट को नहीं । इसी प्रकार स्पृष्ट के समान प्रविष्ट के विषय में भी कहना । सूत्र-४२५
__ भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से आये अविच्छिन्न शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट शब्दों को सूनती है । भगवन् ! चक्षु-रिन्द्रिय का विषय कितना है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है । घ्राणेन्द्रिय का विषय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नौ योजनों से आए अविच्छिन्न पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट गन्धों को सूंघ लेती है । घ्राणेन्द्रिय के समान जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिमाण के सम्बन्ध में भी जानना । सूत्र-४२६
भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल हैं, क्या वे पुद् गल सूक्ष्म हैं ? क्या वे सर्वलोक को अवगाहन करके रहते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? कोई देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व यावत् लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता-देखता । हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य यावत् नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म हैं । वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं ।
भगवन् ! क्या नारक उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका) आहार करते हैं अथवा नहीं जानते - देखते और नहीं आहार करते ? गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार करते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से पंचेन्द्रियतिर्यंचों तक कहना । भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानतेदेखते हैं और आहरण करते हैं ? अथवा नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते हैं ? गौतम ! कोई -कोई मनुष्य जानते-देखते हैं और आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और आहरण करते हैं । क्योंकि-मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । संज्ञीभूत दो प्रकार के हैं-उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं । वाण-व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता नैरयिकों के समान जानना।
भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं ? गौतम ! मनुष्यों के समान वैमानिकों की वक्तव्यता समझना । विशेष यह कि वैमानिक दो प्रकार के हैं-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं | जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक | जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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