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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र कोमल, घिसीहुई, निर्मल, निष्पंक, निरावरणछायायुक्त, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी से निःश्रेणीगति से एक योजन पर लोक का अन्त है । उस योजन का जो ऊपरी गव्यूति है, उस गव्यूति का जो ऊपरी छठा भाग है, वहाँ सादि-अनन्त, अनेक जन्म, जरा, मरण, योनिसंसरण, बाधा, पुनर्भव, गर्भवासरूप वसति तथा प्रपंच से अतीत सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं। वहाँ भी वे वेदरहित, वेदनारहित, ममत्वरहित, संगरहित, संसार से सर्वथा विमुक्त एवं (आत्म) प्रदेशों से बने हुए आकारवाले हैं। सूत्र - २३६, २३७
'सिद्ध कहाँ प्रतिहत हैं ?' सिद्ध किस स्थान में प्रतिष्ठित हैं ? कहाँ शरीर को त्याग कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं?अलोक के कारण सिद्ध प्रतिहत हैं । वे लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं तथा यहाँ शरीर को त्याग कर वहाँ जाकर सिद्ध हो जाते हैं। सूत्र-२३८,२३९
दीर्घ अथवा ह्रस्व, जो अन्तिमभव में संस्थान होता है, उससे तीसरा भाग कम सिद्धों की अवगाहना है।
इस भव को त्यागते समय अन्तिम समय में (त्रिभागहीन जितने) प्रदेशों में सघन संस्थान था, वही संस्थान वहाँ रहता है। सूत्र-२४०-२४२
३३३ धनुष और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है । यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना होती है । ..... चार रत्नि और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है । ..... एक रत्नि और आठ अंगुल अधिक, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। सूत्र-२४३
(अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन सिद्धों की अवगाहना है । जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ होता है। सूत्र-२४४
जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं । वे सब लोक के अन्त भाग से स्पष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ हैं। सूत्र-२४५
एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्तसिद्धों को स्पर्श करता (स्पृष्ट हो कर रहता) है। तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (होकर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं। सूत्र-२४६
__ सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवघन हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त रहते हैं; साकार और अनाकार उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है। सूत्र-२४७
केवलज्ञान से उपयुक्त होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः देखते हैं। सूत्र-२४८
अव्याबाध को प्राप्त सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो मनुष्यों को होता है, और न ही समस्त देवों को होता है। सूत्र-२४९
देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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