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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र- २३१
द्वादशकल्प सामानिक संख्या क्रमश:- ८४,०००, ८०,०००, ७२,०००, ७०,०००, ६०,०००, ५०,०००, ४०,०००, ३०,०००, २०,००० और आरण-अच्युत में १०,००० है। सूत्र - २३२
इन्हीं बारह कल्पों के आत्मरक्षक इन से (क्रमशः) चार-चार गुने हैं।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! आरण और अच्युत कल्पों के ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर अधस्तन-प्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तट हैं; वर्णन पूर्ववत् ! वे परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार में संस्थित हैं। उनमें अधस्तन ग्रैवेयक देवों के विमान १११ हैं । वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और पर्याप्तक अधस्तन-प्रैवेयक देवों के स्थान हैं । उनमें बहुत-से अधस्तनग्रैवेयक देव निवास करते हैं, वे सब समान ऋद्धिवाले, सभी समान द्युतिवाले, सभी समान यशस्वी, सभी समान बली, सब समान अनुभाव वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्यरहित, पुरोहितहीन हैं । वे देवगण अहमिन्द्र' हैं।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्य ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! अधस्तन ग्रैवेयकों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर दूर जाने पर, मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयकविमान-प्रस्तट हैं; इत्यादि वर्णन अधस्तन ग्रैवेयकों के समान समझना । विशेष यह कि यहाँ १०७ विमानावास हैं । वे विमान यावत् 'प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम-ग्रैवेयक देवों के स्थान हैं । वहाँ बहत-से मध्यम ग्रैवेयकदेव निवास करते हैं यावत् वे देवगण अहमिन्द्र' हैं।
__ भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मध्यम ग्रैवेयकों के ऊपर यावत् दूर जाने पर, वहाँ उपरितन ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट हैं, शेष वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि यहाँ विमानावास एक सौ होते हैं । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना । सूत्र-२३३
अधस्तन ग्रैवेयकों में १११, मध्यम ग्रैवेयकों में १०७, उपरितन के ग्रैवेयकों में १०० और अनुत्तरौपपातिक देवों के पाँच ही विमान हैं।
सूत्र-२३४
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् तीनों ग्रैवेयकप्रस्तटों के विमानावासों को पार करके उससे आगे सुदूर स्थित, पाँच दिशाओंमें रज रहित, निर्मल, अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पाँच अनुत्तर विमान हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकमय स्वच्छ, यावत् प्रतिरूप हैं। वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत-से अनुत्तरौपपातिक देव निवास करते हैं । वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न, यावत् अहमिन्द्र' हैं। सूत्र- २३५
भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम! सर्वार्थसिद्ध विमान की ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से १२ योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन है । उसकी परिधि योजन १४२०३२४९ से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के बहुत मध्यभाग में ८ योजन का क्षेत्र है, जो आठ योजन मोटा है । उसके अनन्तर अनुक्रम से प्रदेशों की कमी होते जाने से, हीन होती-होती वह सबसे अन्त में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी है । ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बारह नाम हैं । ईषत्, ईषत्-प्राग्भारा, तनु, तनु-तनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, लोकाग्र, लोकाग्र-स्तूपिका, लोकाग्रप्रतिवाहिनी और सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा ।
ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी श्वेत है, शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्णवाली, उत्तान छत्र के आकार में स्थित, पूर्णरूप से अर्जुनस्वर्ण के समान श्वेत, स्फटिक-सी स्वच्छ, चिकनी,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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