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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-१८-कायस्थिति सूत्र-४७१,४७२
जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, , पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धिक), अस्ति (काय) और चरम, इन पदों की कायस्थिति जानना ।
भगवन ! जीव कितने काल तक जीवपर्याय में रहता है ? गौतम ! सदाकाल । सूत्र-४७३
भगवन् ! नारक नारकत्वरूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । भगवन् ! तिर्यंचयोनिक ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक । कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनों तक, वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना । भगवन् ! तिर्यंचनी ? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्वकोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम । मनुष्य और मानुषी की कायस्थिति में भी इसी प्रकार समझना।
भगवन् ! देव कितने काल तक देव बना रहता है ? गौतम ! नारक के समान ही देव के विषय में कहना । भगवन् ! देवी, देवी के पर्याय में कितने काल तक रहती है ? गौतम ! जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः पचपन पल्योपम । सिद्धजीव सादि-अनन्त होता है । भगवन् ! अपर्याप्त नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त । इसी प्रकार यावत् देवी की अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त ही है। पर्याप्त नारक जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेंतीस सागरोपम तक पर्याप्त नारकरूप में रहता है । पर्याप्त तिर्यंचयोनिक जघन्य अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम तीन पल्योपम तक पर्याप्त तिर्यंचरूप में रहता है । इसी प्रकार पर्याप्त तिर्यंचनी में भी समझना । (पर्याप्त) मनुष्य और मानुषी में भी इसी प्रकार समझना । पर्याप्त देव में पर्याप्त नैरयिक के समान समझना । पर्याप्त देवी, पर्याप्त देवी के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम पचपन पल्योपम तक रहती है। सूत्र-४७४
भगवन् ! सेन्द्रिय जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त । द्वीन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में समझना । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः सहस्रसागरोपम से कुछ अधिक पंचेन्द्रिय रूप में रहता है । सिद्ध जीव कितने काल तक अनिन्द्रिय बना रहता है ? गौतम ! सादि-अनन्त ।
भगवन् ! सेन्द्रिय-अपर्याप्तक कितने काल तक सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्यतः और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक में समझना | भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्वसागरोपम से कुछ अधिक । एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक, चतु-रिन्द्रियपर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट संख्यात मास तक और पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों काल तक रहता है। सूत्र-४७५
__भगवन् ! सकायिक जव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सकायिक दो प्रकार के हैं। अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है ? मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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