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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात और तैजससमुद्घात | भगवन् ! मनुष्यों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं ? गौतम ! छह-वेदना यावत् आहारकसमुद्घात । सूत्र - ६१२
भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं में व्याप्त करता है । इतना क्षेत्र आपूर्ण और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है । वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट हुआ ? गौतम ! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में आपूर्ण हुआ और स्पृष्ट होता है । उन पुद्गलों को कितने काल में निकालता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में। वे बाहर निकले हुए पुदगल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, आवर्त्तपतित करते हैं, थोड़ा-सा छूते हैं, संघात करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूर्च्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रियावाला होता है ? गौतम ! वह कदाचित् तीन, चार और कदाचित् पाँच । वे जीव उस जीव से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! वे कदाचित् तीन, चार और कदाचित् पाँच क्रिया वाले । भगवन् ! वह जीव और वे जीव
अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! तीन क्रिया, चार क्रिया अथवा पाँच क्रिया वाले भी होते हैं।
भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, उन पुदगलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथ स्पृष्ट होता है ? गौतम ! समुच्चय जीव के समान कहना । समुच्चय जीव के समान ही वैमानिक पर्यन्त कहना । इसी प्रकार कषायसमदघात को भी कहना ।
सूत्र-६१३
भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को आत्म-प्रदेशों से पृथक् करता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन क्षेत्र आपूर्ण
और व्याप्त होता है । इतना क्षेत्र आपूर्ण तथा व्याप्त होता है । वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । तत्पश्चात् शेष वही कथन कदाचित् पाँच क्रियाएं लगती हैं; (तक करना) । समुच्चय जीव के समान नैरयिक को भी समझना । विशेष यह कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से कहना, चार समय के विग्रह से नहीं कहना । असुरकुमार को जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घात के अनुसार समझना । विशेष यह कि असुरकुमार का विग्रह नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना। शेष पूर्ववत् ! असुरकुमार के समान वैमानिक देव तक कहना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय को समुच्चय जीव के समान कहना।
वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से तना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पष्ट होता है ? गौतम ! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है । वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है ? गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से होता है । शेष पूर्ववत् ! इसी प्रकार नैरयिकों को भी कहना । विशेष यह कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । इसका आपूर्ण एवं स्पृष्ट काल जीवपद के समान है । नारक के वैक्रियसमुद्घात समान असुरकुमार को समझना । विशेष यह कि एक दिशा या विदिशा में उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त समझना । वायुकायिक को समुच्चय जीवपद के समान समझना । विशेष यह कि एक ही दिशा में उक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है । नैरयिक के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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