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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-४४७
___पृथ्वीकायिकों के आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में नैरयिकों के समान कहना | भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदनावाले होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । क्योंकि-सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं । वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते हैं । भगवन् ! सभी पृथ्वीकायिक समान क्रियावाले होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। क्योंकि-सभी पृथ्वीकायिक मायी-मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके नियत रूप से पाँचों क्रियाएं होती हैं । पृथ्वी-कायिकों के समान ही यावत् चतुरिन्द्रियों की वेदना और क्रिया कहना ।
पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों को नैरयिक जीवों के अनुसार समझना । विशेष यह कि क्रियाओं में विशेषता है। पंचेन्द्रियतिर्यंच तीन प्रकार के हैं सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं - असंयत और संयतासंयत । जो संयतासंयत हैं, उनको तीन क्रियाएं लगती हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । जो असंयत होते हैं, उनको चार क्रियाएं लगती हैं | आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया । जो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि हैं, उनको निश्चित रूप से पाँच क्रियाएं लगती हैं, वे इस प्रकार - आरम्भिकी, यावत मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सूत्र-४४८
भगवन् ! मनुष्य क्या सभी समान आहार वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि-मनुष्य दो प्रकार के हैं । महाशरीरवाले और अल्प शरीरवाले । जो महाशरीरवाले हैं, वे बहत-से पुदगलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं । जो अल्पशरीरवाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अल्पतर पुदगलों का निःश्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं, यावत् बार-बार निःश्वास लेते हैं । शेष सब वर्णन नैरयिकों के अनुसार समझना । किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा विशेषता है । मनुष्य तीन प्रकार के हैं । सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के हैं-संयत, असंयत और संयतासंयत । जो संयत हैं, वे दो प्रकार के हैं-सरागसंयत और वीतरागसंयत जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय होते हैं । जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के हैं-प्रमत्त और अप्रमत्त । जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया होती है । जो प्रमत्तसंयत हैं, उनमें दो क्रियाएं होती हैं, आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । जो संयतासंयत हैं, उनमें तीन क्रियाएं हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और माया-प्रत्यया । जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएं हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया; जो मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग मिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पाँचों क्रियाएं होती हैं। सूत्र - ४४९
असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर देवों की (आहारादि संबंधी वक्तव्यता कहना ।) इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आहारादि में भी कहना । विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा वे दो प्रकार के हैं, मायी-मिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदनावाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदनावाले हैं। सूत्र-४५०
भगवन् ! सलेश्य सभी नारक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छवास-निःश्वासवाले हैं? सामान्य गम के समान सभी सलेश्य समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यावाले सभी नैरयिक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छ्वासनिःश्वासवाले होते हैं ? गौतम ! सामान्य नारकों के समान कृष्णलेश्यावाले नारकों का कथन भी समझना । विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा नैरयिक मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना । (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में समुच्चय असुर-कुमारादि के समान कहना । मनुष्यों में क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है । समुच्चय मनुष्यों के क्रियाविषयक कथन के समान
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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