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________________ आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना' पद/उद्देश /सूत्र को श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शन्द्रिय रूप में, अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से, अमनोज्ञरूप से, अमनामरूप से, अनिश्चितता से, अनभिलषितरूप से, भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से सुखरूप से नहीं, उन सबका बारबार परिणमन करते हैं। सूत्र-५५३ भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । नारकों की वक्तव्यता समान असुरकुमारों के विषय में यावत्... 'उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है। यहाँ तक कहना । उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है । बाहल्यरूप कारण से वे वर्ण से-पीत और श्वेत, गन्ध से-सुरभिगन्ध वाले, रस से-अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से-मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं । उन के पुराने वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अपूर्व यावत्-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके मनोज्ञ, मनाम ईच्छित अभिलाषित रूप में परिणत होते हैं । भारीरूप में नहीं हल्केरूप में, सुखरूप में परिणत होते हैं, दुःखरूप में नहीं । वे आहार्य पुद्गल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं । शेष कथन नारकों के समान जानना । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । विशेष यह कि इनका आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है। सूत्र-५५४ भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं? हाँ, गौतम ! होते हैं। पथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के होती है । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के कथन के समान जानना; यावत् पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं ? गौतम ! यदि व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से, यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच दिशाओं से आगत द्रव्यों का आहार करते हैं । विशेष यह कि इसमें बाहल्य कारण नहीं कहा जाता । वे वर्ण से-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से-सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से-तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शवाले तथा उनके पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि कथन नारकों के समान यावत् कदाचित उच्छ्वास और निःश्वास लेत हैं; तक जानना। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! असं आहार और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं । भगवन ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुदगलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं या नहीं? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल, गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में बार-बार परिणत होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों को जानना । सूत्र-५५५ भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होत है ? गौतम ! नारकों के समान समझना । विशेष यह कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उसकी अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्महर्त्त में विमात्रा से होती है। शेष कथन पृथ्वीकायिकों के समान "कदाचित् निःश्वास लेते हैं।' तक कहना । विशेष यह कि वे नियम से छह दिशाओं से आहार लेते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद् गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा नहीं? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का है। -लोमाहार और प्रक्षेपाहार । वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 157
SR No.034682
Book TitleAgam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 15, & agam_pragyapana
File Size4 MB
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