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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहाररूप में ग्रहण करत हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं उनके बहुत-से सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका स्पर्श होता है और न ही आस्वादन होता है । इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से आस्वादन न किये जानेवाले तथा स्पृष्ट न होनेवाले पुद् गलों मैं कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम आस्वादन न किये जानेवाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे स्पृष्ट न होनेवाले हैं । द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किसकिस रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं ? जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं।
इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक कहना । विशेष यह कि इनके द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान तथा अनास्वाद्यमान ही विध्वंस को प्राप्त होते हैं । इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं । त्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं । चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गहीत पुद्गल चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं । शेष कथन त्रीन्द्रियों के समान समझना । पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना । विशेष यह कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से होती है । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल पाँचों इन्द्रियों में विमात्रा में पुनः पुनः परिणत होते हैं । मनुष्यों की आहार-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है । विशेष यह कि उनकी आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट अष्टमभक्त होने पर होती है । वाण-व्यन्तर देवों का आहार नागकुमारों के समान जानना । इस प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है | किन्तु उन्हें आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में होती है।
इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जानना । विशेष यह कि इनको आभोगनि-वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तैंतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है । शेष वक्तव्यता असुरकुमारों के समान ‘उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है। यहाँ तक कहना । सौधर्म-कल्प में आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। ईशानकल्प में जघन्य कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार वर्ष में होती है । सनत्कुमार को जघन्य दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष में आहारेच्छा होती है । माहेन्द्रकल्प में ? जघन्य कुछ अधिक दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात हजार वर्ष में, ब्रह्मलोक में जघन्य सात और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष में; लान्तककल्प में जघन्य दस और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष में; महाशुक्रकल्प में जघन्य चौदह और उत्कृष्ट सत्तरह हजार वर्ष में; सहस्रारकल्प में जघन्य सत्तरह और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष में; आनत-कल्प में जघन्य अठारह और उत्कृष्ट उन्नीस हजार वर्ष में प्राणतकल्प में जघन्य उन्नीस और उत्कृष्ट बीस हजार वर्ष में; आरणकल्प में जघन्य बीस और उत्कृष्ट इक्कीस हजार वर्ष में; अच्युतकल्प में जघन्य २१ और उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है।
भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की आहारसम्बन्धी पृच्छा है । गौतम ! जघन्य २२ और उत्कृष्ट २३ हजार वर्ष में देवों को आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है । अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयकों में, गौतम ! जघन्य २३ और उत्कृष्ट २४ हजार वर्ष में; अधस्तन-उपरिम ग्रैवेयकों में, जघन्य २४ और उत्कृष्ट २५ हजार वर्ष में; मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयकों में जघन्य २५ और उत्कृष्ट २६ हजार वर्ष में; मध्यम-मध्यम ग्रैवेयकों में जघन्य २६ और उत्कृष्ट २७ हजार वर्षों में; मध्यम-उपरिम ग्रैवेयकों में जघन्य २७ और उत्कृष्ट २८ हजार वर्ष में, उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयकों में जघन्य २८ और उत्कृष्ट २९ हजार वर्ष में; उपरिम-मध्यम ग्रैवेयकों में जघन्य २९ और उत्कृष्ट ३० हजार वर्षों में; उपरिम-उपरिम ग्रैवेयकों में जघन्य ३० और उत्कृष्ट ३१ हजार वर्ष में आहार की ईच्छा होती है । विजय, वैजयन्त, जयन्त और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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