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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र अपराजित देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! जघन्य ३१ और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष में आहारेच्छा होती है। सर्वार्थसिद्ध देवों को अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेंतीस हजार वर्ष में आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। सूत्र-५५६
भगवन् ! क्या नैरयिक एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं ? गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे एकेन्द्रियशरीरों का भी आहार करते हैं, यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का भी तथा वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं । स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार समझना | भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के विषय में प्रश्न । गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना से नारकों के समान और वर्तमानभावप्रज्ञापना से नियम से वे एकेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं। द्वीन्द्रियजीवों पूर्वभावप्रज्ञापना से इसी प्रकार और वर्तमानभावप्रज्ञापना से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना से पूर्ववत् और वर्तमानभावप्रज्ञापना से जिसके जितनी इन्द्रियाँ हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का आहार करते हैं । वैमानिकों तक शेष जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना ।
भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी ? गौतम ! वे लोमाहारी है, इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों और सभी देवों के विषय में कहना । द्वीन्द्रियों से लेकर मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं। सूत्र-५५७
भगवन् ! नैरयिक जीव ओज-आहारी होते हैं, अथवा मनोभक्षी ? गौतम ! वे ओज-आहारी होते हैं । इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी भी ओज-आहारी हैं । वैमानिकों तक सभी देव ओज-आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी । जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन उत्पन्न होती है । जैसे कि-वे चाहते हैं कि हम मानो-भक्षण करें । उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की ईच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त, यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में परिणत हो जाते हैं । तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं । हे गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उसका ईच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट-तृप्त हो जाता है।
पद-२८ उद्देशक-२ सूत्र-५५८
द्वितीय उद्देशक में तेरह द्वार हैं-आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्तिद्वार । सूत्र-५५९
भगवन् ! जीव आहारक हैं या अनाहारक ? गौतम ! कथंचित् आहारक हैं, कथंचित् अनाहारक । नैरयिक से असुरकुमार और वैमानिक तक इसी प्रकार जानना । भगवन् ! एक सिद्ध आहारक होता है या अनाहारक होता है ? गौतम ! अनाहारक। भगवन् !(बहुत) जीव आहारक होते हैं, या अनाहारक? गौतम ! दोनों । भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ? गौतम ! वे सभी आहारक होते हैं, अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, या बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं । इसी तरह वैमानिक-पर्यन्त जानना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहत जीवों के समान है । (बहत) सिद्धों के विषय में प्रश्न । गौतम ! वे अनाहारक ही होते हैं सूत्र-५६०
भगवन् ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? गौतम ! वह कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना । भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना । अभवसिद्धिक में भी इसी प्रकार कहना । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक अनाहारक होता है । इसी प्रकार सिद्ध में कहना । (बहुत-से) नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव अनाहारक होते हैं । इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों में समझना ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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