SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना' पद/उद्देश /सूत्र विधबन्धक, (५) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक, (६) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अबन्धक होते हैं । इसी तरह अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक एकविधबन्धक के साथ-(१) एक और अनेक अष्टविधबन्धक एवं षड्विधबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी, (२) एक और अनेक अष्टविधबन्धक एवं अबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी, (३) एक और अनेक षड्विधबन्धक एवं अबन्धक को लेकर एक चतुर्भंगी समझ लेना । इसी तरह ही अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक एकविध-बन्धक के साथ-(१) अष्टविधबन्धक, (२) षड्विधबन्धक, (३) अबन्धक को एक और अनेक भेद लेकर एक अष्टभंगी होती है । सब मिलाकर कुल २७ भंग होते हैं । इसी प्रकार ही प्राणातिपात विरत मनुष्यों के यहीं २७ भंग कह देना । इसी प्रकार मृषावादविरत यावत् मायामृषाविरत एक जीव तथा एक मनुष्य को भी समझना। मिथ्यादर्शन-शल्यविरत जीव कितनी कर्मप्रकतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सप्तविध, अष्टविध, षडविध और एकविधबन्धक अथवा अबन्धक होता है । भगवन ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (एक) नैरयिक कितनी कर्मप्रकतियाँ बाँधता है ? गौतम ! सप्तविध अथवा अष्टविधबन्धक होता है; पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक तक यहीं जानना । (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में सामान्य जीव के समान कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक में एक नैरयिक के समान कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त २७ भंग कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं(१) (अनेक) सप्त-विधबन्धक होते हैं, (२) अथवा (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं और (एक) अष्टविधबन्धक होता है, (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं । इसी प्रकार यावत् (अनेक) वैमानिकों को कहना विशेष यह कि (अनेक) मनुष्यों में जीवों के समान कहना। सूत्र-५३३ भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के आरम्भिकी क्रिया होती है ? गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं। प्राणातिपातविरत जीव के क्या पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । प्राणातिपात-विरत जीव के मायाप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं । प्राणातिपातविरत जीव के क्या अप्रत्याख्यानप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी तरह मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया भी नहीं होती । इसी प्रकार प्राणातिपातविरत मनुष्य को भी जानना । इसी प्रकार मायामृषाविरत जीव और मनुष्य के सम्बन्ध में भी कहना । मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानक्रिया तक जानना । (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक के क्या आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? गौतम! आरम्भिकी, यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया भी होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक समझना । मिथ्यादर्शनशल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक को गौतम ! आरम्भिकी यावत् मायाप्रत्ययाक्रिया होती है । अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती है । मनुष्य को जीव के समान समझना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों को नैरयिक के समान समझना। भगवन् ! इन आरम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सब से कम मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रियाएं हैं । (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएं विशेषाधिक हैं। (उनसे) पारिग्रहिकीक्रियाएं विशेषाधिक हैं । (उनसे) आरम्भिकीक्रियाएं विशेषाधिक हैं, (और उनसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएं विशेषाधिक हैं। पद-२२-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 141
SR No.034682
Book TitleAgam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 15, & agam_pragyapana
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy