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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-२३-कर्मप्रकृति
उद्देशक-१ सूत्र-५३४
कर्म-प्रकृतियाँ कितनी हैं ?, किस प्रकार बंधती हैं ?, कितने स्थानों से कर्म बाँधता है ?, कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है ?, किस का अनुभाव कितने प्रकार का होता है ? सूत्र-५३५
भगवन् !कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम! आठ, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय । भगवन् ! नैरयिकों की कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? गौतम ! पूर्ववत् आठ, वैमानिक तक यहीं समझना सूत्र-५३६
भगवन ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावर-णीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शनमोहनीय कर्म, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को और इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है । नारक आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त समझना । बहुत-से जीव आठ कर्मप्रकृतियाँ कैसे बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार बहुत-से वैमानिकों तक समझना। सूत्र-५३७
भगवन् ! जीव कितने स्थानों से ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता है ? गौतम ! दो स्थानों से, यथा-राग से और द्वेष से। राग दो प्रकार का है, माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है, क्रोध और मान । इस प्रकार वीर्य से उपार्जित चार स्थानों से जीव ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता है । नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना । बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बाँधते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से । इसी प्रकार बहत से नैरयिकों से वैमानिकों तक समझना । इसी प्रकार दर्शनावरणीय से अन्तरायकर्म तक समझना । इस प्रकार एकत्व और बहत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। सूत्र -५३८
भगवन् ! क्या जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! कोई जीव वेदता है, कोई नहीं । नारक ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! नियम से वेदता है । वैमानिकपर्यन्त इसी प्रकार जानना, किन्तु मनुष्य के विषय में जीव के समान समझना । क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता है ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । ज्ञानावरणीय के समान दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म के विषय में समझना । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के जीव द्वारा वेदन में भी इसी प्रकार जानना, किन्तु मनुष्य अवश्य वेदता है । इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक हैं । सूत्र-५३९
भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, सचित्त, चित्त और अपचित्त किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त. विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदयप्राप्त, जीव के द्वारा कत. निष्पादित और परिणामित. स्वयं के द्वारा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरणा-प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को, स्थिति को, भव को, पुद् गल को तथा पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभव कहा है ? गौतम ! दस प्रकार काश्रोत्रावरण, श्रोत्रविज्ञानावरण, नेत्रावरण, नेत्रविज्ञानावरण, घ्राणावरण, घ्राणविज्ञानावरण, रसावरण, रसविज्ञानावरण, स्पर्शावरण और स्पर्शविज्ञानावरण | ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जो पुद्गल, पुद्गलों या पुद्गल -परिणाम को अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, उनके उदय से जानने योग्य को, जानने का इच्छुक होकर भी
और जानकर भी नहीं जानता अथवा तिरोहित ज्ञानवाला होता है । गौतम ! यह है ज्ञानावरणीय-कर्म । और यह है दस प्रकार का अनुभाव । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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