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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र - २१७
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर तथा नीचे भी एक सौ योजन छोड़कर, बीच में आठ सौ योजन में, वाण-व्यन्तर देवों के तीरछे असंख्यात भौमेय लाखों नगरावास हैं । वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार में संस्थित हैं । इत्यादि वर्णन भवनवासी के भवन समान समझना । इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान हैं । वे स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से वाणव्यन्तर देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-पिशाच, भत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्परुष, महाकाय भजगपति तथा गन्धर्वगण । (इनके आठ अवान्तर भेद-) अणपर्णिक, पणपर्णिक, ऋषिवादित, भूत-वादित, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंगदेव हैं।
ये चंचल, चपल, क्रीडा-तत्पर और परिहास-प्रिय होते हैं । गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति है। वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा ईच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों से वे भलीभाँति मण्डित रहते हैं । सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी शोभनीय, सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से वक्षःस्थल सुशोभित रहता है । अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, ईच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, विविध वर्णों वाले, श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं, इन्हें प्रमोद, कन्दर्प, कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है । इनमें हास्य और विवाद बहुत होता है।
इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले रहते हैं । अनेक मणियों और रत्नों के विविधचिह्न वाले होते हैं। महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाव या महासामर्थ्यशाली, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले हैं । कड़े और बाजूबंद से इनकी भुजाएं मानो स्तब्ध रहती हैं । अंगद और कुण्डल इनके कपोल-स्थल को स्पर्श किये रहते हैं । ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं, इनके हाथों में विचित्र आभूषण एवं मस्तक में विचित्र मालाएं होती हैं । ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी माला एवं अनुलेपन धारण किये रहते हैं । इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं । ये लम्बी वनमालाएं धारण करते हैं तथा दिव्य वर्ण-गन्ध-स्पर्शसंहनन-संस्थान-ऋद्धि-द्युति-प्रभा-छाया-अर्चि-तेज एवं दिव्य लेश्या से दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहाँ अपने-अपने लाखों भौमेय नगरवासों का, हजारों सामानिक देवों का, अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का, सेनाधिपति देवों का, आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहत-से वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते-कराते हुए वे महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। सूत्र-२१८
भन्ते ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच के आठ सौ योजन में, पिशाच देवों के तीरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों नगरावास हैं । नगरावास वर्णन पूर्ववत् । इन में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान हैं । (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से पिशाच देव निवास करते हैं। जो महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इन्हीं में दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज-काल और महाकाल, निवास करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन कहना।
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के १००० योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच में जो ८०० योजन हैं, उनमें दाक्षिणात्य पिशाच देवों के तीरछे असंख्येय भूमिगृह जैसे लाखों नगरावास हैं। इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान हैं। इन्हीं में बहुत-से दाक्षिणात्य पिशाच देव निवास करते हैं, इत्यादि समग्र वर्णन करना । इन्हीं में पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, इत्यादि । वह तीरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, ४००० सामानिक देवों
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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