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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र कृष्णलेश्यी वाले नारक की अपेक्षा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अवधि द्वारा देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और देखता है ? गौतम ! बहुतर क्षेत्र को, दूरतर क्षेत्र को, वितिमिरतर और विशुद्धतर जानता है तथा देखता है। क्योंकि-गौतम ! जैसे कोई पुरुष अतीव सम, रमणीय भूमिभाग से पर्वत पर चढ़ कर सभी दिशाओं-विदिशाओं में अवलोकन करे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा, सब तरफ देखता हुआ बहुतर यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्यी नारक, कृष्णलेश्यी की अपेक्षा क्षेत्र को यावत् विशुद्धतर जानता-देखता है । भगवन् ! कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा अवधि से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है? – गौतम ! पूर्ववत समझना, यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। सूत्र-४६१
भगवन् ! कृष्णलेश्यी जीव कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में । यदि दो में हो तो आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान में होता है, तीन में हो तो आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा आभिनिबोधिक श्रुत और मनःपर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो आभिनिबोधिकज्ञान यावत् मनःपर्यवज्ञान में होता है । इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्यी जीव में समझना । शुक्ललेश्यी जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है । यदि दो, तीन या चार ज्ञानों में हो तो कृष्णलेश्यी के समान जानना । यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है
पद-१७ उद्देशक-४ सत्र-४६२
परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाह, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व, (ये पन्द्रह अधिकार चतुर्थ उद्देशक में हैं ।) सूत्र-४६३
भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी रूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? हाँ, गौतम ! होती है । क्योंकी-जैसे छाछ आदि खटाई का जावण पाकर दूध अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग पाकर उस रूप में, यावत् उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्म-लेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में और यावत् पुनः पुनः परिणत हो जाती है
भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में, उन्हीं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती हैं ? हाँ, गौतम ! होती हैं । क्योंकि-जैसे कोई वैडूर्यमणि काले, नीले, लाल, पीले अथवा श्वेत सूत्र में पिरोने पर वह उसी के रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत हो जाते हैं, इसी प्रकार हे गौतम! कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के रूप में यावत् परिणत हो जाती है । भगवन् ! क्या नीललेश्या, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को पाकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् परिणत होती हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। इसी प्रकार कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में भी समझना । सूत्र-४६४
भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई जीमूत, अंजन, खंजन, कज्जल, गवल, गवलवृन्द, जामुनफल, गीलाअरीठा, परपुष्ट, भ्रमर, भ्रमरों की पंक्ति, हाथी का बच्चा, काले केश, आकाशथिग्गल, काला अशोक, काला कनेर अथवा काला बन्धुजीवक हो । कृष्णलेश्या इससे भी अनिष्टतर है, अधिक अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्णवाली है । भगवन् ! नीललेश्या वर्ण से कैसी है ? गौतम ! जैसे कोई भंग, भंगपत्र, पपीहा, चासपक्षी की पांख, शुक, तोते की पांख, श्यामा, वनराजि, दन्तराग, कबूतर की ग्रवा, मोर की ग्रीवा, हलधर का वस्त्र, अलसीफूल, बाणवृक्ष का फूल, अंजनकेसि कुसुम, नीलकमल, नील अशोक, नीला कनेर अथवा नीला
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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