________________
आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१३४
सभी किसलय ऊगता हुआ अवश्य ही अनन्तकाय है । वही वृद्धि पाता हुआ प्रत्येक शरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है। सूत्र-१३५
एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीरनिष्पत्ति एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही प्राणापान ग्रहण होता है, एक काल में ही उच्छवास और निःश्वास होता है। सूत्र - १३६
एक जीव का जो (पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से जीवों का ग्रहण करना (समझना) । और जो (पुद्गलों का) ग्रहण बहुत-से जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है । सूत्र-१३७
साधारण जीवों का आहार भी साधारण ही होता है, प्राणापान का ग्रहण भी साधारण होता है । यह (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना) । सूत्र - १३८
जैसे अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हए के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होता है। सूत्र-१३९
एक, दो, तीन, संख्यात अथवा (असंख्यात) निगोदों का देखना शक्य नहीं है । (केवल) (अनन्त-) निगोदजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं। सूत्र-१४०
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उसका माप किया जाए तो ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं। सूत्र-१४१
एक-एक लोकाकाश प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे असंख्यात-लोकाकाश हो जाते हैं। सूत्र-१४२
प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव घनीकृत प्रतर के असंख्यातभाग मात्र होते हैं | अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के और साधारण जीवों का परिणाम अनन्तलोक के समान है। सूत्र-१४३
'इन शरीरों के द्वारा स्पष्टरूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है । सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य हैं । क्योंकि ये आँखों से दिखाई नहीं देते । सूत्र-१४४
अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियाँ हों, (उन्हें साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय में लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेना)।
वे सभी वनस्पतिकाय जीव संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से हजारों प्रकार हैं । उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं । पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक (बादर) पर्याप्तक जीव होता है, वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (प्रत्येक) अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 15