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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझना । विशेष यह कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार दो पृथ्वीयों से, तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है । माण्डलिकपद, अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़कर शेष सभी भवों से आकर पा सकते हैं । सेनापतित्व, गाथापतिरत्न, वर्धकीरत्न, पुरोहितरत्न और स्त्रीरत्न पद की प्राप्ति माण्डलिकत्व के समान समझना । विशेष यह कि उसमें अनुत्तरौपपातिक देवों का निषेध करना । अश्वरत्न एवं हस्तिरत्नपद रत्नप्रभापृथ्वी से सहस्रार देवलोक तक का कोई प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं । चक्र-रत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न एवं काकिणीरत्न पर्याय में उत्पत्ति, असुरकुमारों से लेकर निरन्तर यावत् ईशानकल्प के देवों से हो सकती है, शेष भवों से नहीं। सूत्र-५०७
भगवन् ! असंयत भव्य-द्रव्यदेव जिन्होंने संयम की विराधना की है और नहीं की है, जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है और नहीं की है, असंज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरक-परिव्राजक, किल्बिषिक, तिर्यंच, आजीविक मतानुयायी, अभियोगिक, स्वलिंगी साधु तथा जो सम्यग्दर्शनव्यापन्न हैं, ये जो देवलोकों में उत्पन्न हों तो किसका कहाँ उपपात कहा है ? असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपाद जघन्य भवनवासी देवों में, उत्कृष्ट उपरिम ग्रैवेयक देवों में, अविराधित संयमी का जघन्य सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में, विराधित संयमी का जघन्य भवनपतियों में,
। सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, विराधित संयमासंयमी का जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, असंज्ञी का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट वाणव्यन्तरदेवों में, तापसों का जघन्य भवनवासीदेवों में, उत्कष्ट ज्योतिष्कदेवों में, कान्दर्पिकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कष्ट सौधर्मकल्प में, चरक-परिव्राजकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कष्ट ब्रह्मलोककल्प में, किल्बिषिकों का जघन्य सौधर्मकल्प में, उत्कृष्ट लान्तककल्प में, तैरश्चिकों का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों और आभियोगिकों का जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, स्वलिंग साधुओं का तथा दर्शन-व्यापन्न का जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रैवेयकदेवों में होता है। सूत्र-५०८
भगवन ! असंज्ञी-आयष्य कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, नैरयिक से देव-असंज्ञी-आयष्य तक। भगवन् ! क्या असंज्ञी नैरयिक यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । नारकायु का उपार्जन करता हआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग, तिर्यंचयोनिकआयुष्य का उपार्जन करता हुआ जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है। इसी प्रकार मनुष्यायु एवं देवायु का उपार्जन भी नारकायु के समान कहना । भगवन् ! इस नैरयिक-असंज्ञी आयु यावत् देव-असंज्ञी-आयु में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? हे गौतम ! सबसे अल्प देवअसंज्ञी-आयु है, (उससे) मनुष्य-असंज्ञी-आयु असंख्यतगुणा है, (उससे) तिर्यंचयोनिक असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणा है, उससे नैरयिक-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणा है।
पद-२०-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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