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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र रत्नप्रभापृथ्वी० यावत् अधस्तनसप्तमपृथ्वीनैरयिकक्षेत्रोपपातगति । तिर्यंचयोनिकक्षेत्रोपपातगति पाँच प्रकार की है, एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति । मनुष्यक्षेत्रोपपातगति दो प्रकार की है । सम्मूर्छिम० और गर्भज-मनुष्यक्षेत्रोपपातगति । देवक्षेत्रोपपातगति चार प्रकार की है, भवनपति० यावत् वैमानिक देव क्षेत्रो-पपातगति । सिद्धक्षेत्रोपपातगति अनेक प्रकार की है, जम्बूद्वीप में, भरत और ऐरवत क्षेत्र में सब दिशाओं में, सब विदिशाओं में, क्षुद्र हिमवान् और शिखरी वर्षधरपर्वत में, हैमवत और हैरण्यवत वर्ष में, शब्दापाती और विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत में, महाहिमवन्त और रुक्मी नामक वर्षधर पर्वतों में, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में, गन्धापाती और माल्यवन्त वृत्तवैताढ्यपर्वत में, निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत में, पूर्वविदेह और अपरविदेह में, देवकुरु और उत्तरकुरु में तथा मन्दरपर्वत में, इन सब की सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति हैं । लवण-समुद्र में, धातकीषण्डद्वीप में, कालोदसमुद्र में, पुष्करवरद्वीपादार्द्ध में इन सबकी सब दिशाओ-विदिशाओं में सिद्ध-क्षेत्रोपपातगति है।
भवोपपातगति कितने प्रकार की है ? चार प्रकार की, नैरयिक से देवभवोपपातगति पर्यन्त । नैरयिक भवोपपातगति सात प्रकार की है, इत्यादि सिद्धों को छोड़कर सब भेद कहना । क्षेत्रोपपातगति के समान भवोपपात-गति में कहना । नोभवोपपातगति किस प्रकार की है ? दो प्रकार की, पुदगल-नोभवोपपातगति और सिद्ध-नोभवोपपातगति । पुद्गल-नोभवोपपातगति क्या है ? जो पुद्गल परमाणु लोक के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त तक एक ही समय में चला जाता है, अथवा पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक, अथवा चरमान्त से उत्तरी या उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक तथा ऊपरी चरमान्त से नीचले एवं नीचले चरमान्त से ऊपरी चरमान्त तक एक समय में ही गति करता है; यह पुद्गल-नोभवोपपातगति कहलाती है । सिद्ध-नोभवोपपातगति दो प्रकार की है, अनन्तरसिद्ध० और परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति । अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति पन्द्रह प्रकार की है । तीर्थ-सिद्धअनन्तरसिद्ध० यावत् अनेकसिद्ध-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति । परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति अनेक प्रकार की है । अप्रथमसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति, एवं द्विसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति यावत् अन्तसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति
विहायोगति कितने प्रकार की है ? सत्तरह प्रकार की । स्पृशद्गति, अस्पृशद्गति, उपसम्पद्यमानगति, अनुपसम्पद्यमानगति, पुद्गलगति, मण्डूकगति, नौकागति, नयगति, छायागति, छायानुपापगति, लेश्यागति, लेश्यानुपातगति, उद्दिश्यप्रविभक्तगति, चतुःपुरुषप्रविभक्तगति, वक्रगति, पंकगति और बन्धनविमोचनगति । वह स्पृशद्-गति क्या है ? परमाणु पुद्गल की अथवा द्विप्रदेशी यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धो की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, वह स्पशदगति है । अस्पृशद्गति किसे कहते हैं ? पूर्वोक्त परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की परस्पर स्पर्श किये बिना ही जो गति होती है, वह अस्पृशद्गति है । उपसम्पद्यमानगति वह है, जिसमें व्यक्ति राजा, युवराज, ईश्वर, तलवार, माडम्बिक, इभ्य, सेठ, सेनापति या सार्थवाह को आश्रय करके गमन करता हो । इन्हीं पूर्वोक्त (राजा आदि) का परस्पर आश्रय न लेकर जो गति होती है, वह अनुपसम्पद्यमान गति है।
पुद्गलगति क्या है ? परमाणु पुद्गलों की यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की गति पुद्गलगति है । मेंढ़क जो उछल-उछल कर गति करता है, वह मण्डूकगति कहलाती है । जैसे नौका पूर्व वैताली से दक्षिण वैताली की ओर जलमार्ग से जाती है, अथवा दक्षिण वैताली से अपर वैताली की ओर जलपथ से जाती है, ऐसी गति नौकागति है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन सात नयों की जो प्रवृत्ति है, वह नयगति है । अश्व, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गन्धर्व, वृषभ, रथ और छत्र की छाया का आश्रय करके जो गमन होता है, वह
ति है । छाया पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती हैं, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है । कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शरूप में बार-बार जो परिणत होती हैं, इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर जो उसी के वर्ण यावत् स्पर्श रूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है । जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव) काल करता है, उसी लेश्यावाले में उत्पन्न होता है । जैसे-कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में । -यह लेश्यानुपातगति है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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