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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र हढ, कसेरुका, कच्छा, भाणी, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, कमल, भिस, भिसमृणाल, पुष्कर और पुष्करास्तिभज । इसी प्रकार की और भी वनस्पतियाँ हैं, उन्हें जलरुह के अन्तर्गत समझना ।
वे कुहण वनस्पतियाँ किस प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की हैं । आय, काय, कुहण, कुनक्क, द्रव्यहलिका, शफाय, सद्यात, सित्राक, वंशी, नहिता, कुरक । इसी प्रकार की जो अन्य वनस्पतियाँ हैं उन सबको कुहणा के अन्तर्गत समझना।
सूत्र-७८
वृक्षों की आकृतियाँ नाना प्रकार की होती हैं । इनके पत्ते और स्कन्ध एक जीववाला होता है । ताल, सरल, नारिकेल वृक्षों के पत्ते और स्कन्ध एक-एक जीव वाले होते हैं। सूत्र-७९
जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए समस्त सर्षपों की वट्टी एकरूप प्रतीत होती है, वैसे ही एकत्र हुए प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात रूप होते हैं ।
सत्र-८०
जैसे तिलपपडी बहत-से तिलों के संहत होने पर होती है, वैसे ही प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात होते हैं सूत्र - ८१
इस प्रकार उन प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई। सूत्र-८२-८९
वे (पूर्वोक्त) साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । अवक, पनक, शैवाल, लोहिनी, स्निहूपुष्प, मिहूस्तिहू, हस्तिभागा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिउण्डी, मुसुण्ढी। तथा- रुरु,
जीरु, क्षीरविराली; किट्रिका, हरिद्रा, शंगबेर, आलू, मूला । कम्बू, कृष्णकटब, मधुक, वलकी, मधुशंगी, नीरूह, सर्पसुगन्धा, छिन्नरुह, बीजरुह । पाढा, मृगवालुंकी, मधुरसा, राजपत्री, पद्मा, माठरी, दन्ती, चण्डी, किट्टी । माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवित, रसभेद, रेणुका, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी । कृमिराशि, भद्रमुस्ता, नांगलकी, पलुका, कृष्णप्रकुल, हड, हरतनुका, लोयाणी । कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरणकन्द तथा खल्लूर, ये (पूर्वोक्त) अनन्तजीव वाले हैं। इनके अतिरिक्त और जितने भी इसी प्रकार के हैं, (वे सब अनन्त जीवात्मक हैं) । सूत्र-९०
तृणमूल, कन्दमूल और वंशीमूल, ये और इसी प्रकार के दूसरे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त जीववाले हैं सूत्र-९१
सिंघाड़े का गुच्छ अनेक जीववाला है, और इस के पत्ते प्रत्येक जीववाले हैं । इस के फल में दो-दो जीव हैं। सूत्र-९२ - जिस मूल को भंग करने पर समान दिखाई दे, वह मूल अनन्त जीववाला है । इसी प्रकार के दूसरे मूल को भी अनन्तजीव समझना। सूत्र- ९३,९४
जिस टूटे हए कन्द का भंग समान दिखाई दे, वह कन्द अनन्त जीववाला है। इसी प्रकार के दूसरे कन्द को भी अनन्तजीव समझना।
जिस टूटे हुए स्कन्ध का भंग समान दिखाई दे, वह अनन्त जीववाला है। इसी प्रकार के दूसरे स्कन्धों को भी अनन्तजीव समझना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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