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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-५८९
भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की, कायपरिचारणा, स्पर्शपरिचारणा, रूपपरिचारणा, शब्दपरिचारणा, मनःपरिचारणा । गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारक होते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं । महाशुक्र और सहस्रारकल्पमें देव शब्द-परिचारक होते हैं । आनत से अच्युत कल्पमें देव मनःपरिचारक होते हैं । नौ ग्रैवेयकों के और पाँच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं । जो कायपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा समत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएं उदार आभूषणादियुक्त, मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं । इसतरह विक्रिया करके वे उन देवों पास आती हैं । तब वे देव उन अप्सराओं साथ कायपरिचारणा करते हैं सूत्र-५९०
जैसे शीत पुद्गल शीतयोनिवाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त कर के रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका ईच्छामन शीघ्र ही तृप्त हो जाता सूत्र-५९१
भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र-पुद्गल होते हैं ? हाँ, होते हैं । उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियरूप से यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्ट रूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञ रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्यरूप-यौवन-गुण-लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। सूत्र-५९२
जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में ईच्छा उत्पन्न होती है, काया से परिचारणा करनेवाले देवों के समान समग्र वक्तव्यता कहना । जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपविचारणा करना चाहते हैं । उन देवों द्वारा ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती है। वे देव के पास जाती हैं, उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती-दिखलाती खड़ी रहती हैं । तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् ।
जो शब्दपरिचारक देव हैं, उनके मन में ईच्छा होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों के द्वारा इस प्रकार विचार करने पर उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों को प्रक्रिया करके जहाँ वे देव के पास देवियाँ जाती हैं । फिर वे उन देवों के न अति दूर न अति निकट रूककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती हैं । इस प्रकार वे देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । जो मनःपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में ईच्छा उत्पन्न होती है-हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों के द्वारा इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएं शीघ्र ही, वहीं रही हई उत्कट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं। वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । सूत्र - ५९३
भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मनःपरिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनःपरिचारक देव हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारकदेव हैं, उनसे रूपपारिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगणे हैं।
पद-३४-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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