Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 16
________________ योगसार टीका। [५ भावार्थ-ध्यानकी आगसे कर्माको जलानेवाले व निर्मल शुद्ध निज सनाबको प्रांत करनेवाले सिद्ध परमात्माको नमन करके सत्वसारको कहूंगा। पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेश ग्रंथकी आदिमें ऐसा ही किया है यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभाके कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।। १॥ भावार्थ-सर्व फौंको क्षय करके जिसने स्वयं अपने स्वभा. बका प्रकाश किया है उस सम्यग्ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमात्माको नमन हो। नमस्कारके दो भेद हैं-भाव नमस्कार, द्रव्य नमस्कार । जिमको नमस्कार किया जावे उसके गुणोंको भावों में प्रेमसे धारण करना भाय नमस्कार है । बचनोसे व कायसे उस भीतरी भावका प्रकाश द्रव्य नमस्कार है । भाव सहित द्रव्य नमस्कार कार्यकारी है । अरहंत भगवानको नमस्कार। घाइचउकह किउ विलउ अणतचउक्कपदिड । तहि जिणाईदह घय णविवि अक्समि कब्बु सुइट ॥२॥ अन्वयार्थ-(घाइच उबई विल कित) जिसने चार । घातीय काँका क्षय किया है (अणंतचउपदिद) तथा अनंतचतुष्टयका लाभ किया है (तहि जिणइंदर पय ) उस जिनेन्द्रक पदोंको ( णविकि) नमस्कार करके (सुइट कच्छु) सुन्दर प्रिय काव्यको ( अक्खमि ) कहता हूं । भावार्थ-अरहंत पदधारी तेरहवे गुणस्थानमें प्राप्त सयोग व अयोग केवली जिनेन्द्र होते हैं । जब यह अज्ञानी जीव तत्वज्ञानका

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