Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
View full book text
________________
(xxv)
भाग्य और पुरुषार्थ का वर्णन करते हुए हरिभद्रसूरि ने योग-बिन्दु कहा है कि यह दोनों तत्त्व व्यक्ति के जीवन में समान महत्त्व रखते हैं । इनमें से जो अधिक बलवान् होता है वह जीवन परिस्थियों को प्रभावित करता है । चरम पुद्गल परावर्तन के पूर्ववर्ती परावर्तनों में भाग्य पुरुषार्थ पर हावी होता है अर्थात् भाग्य बलवान् और पुरुषार्थ क्षीण होता है । चरम पुद्गल परावर्तन में पुरुष की उत्कर्षता उत्तरोत्तर वर्धित होती है । पुरुषार्थ के माध्यम से जीव भाग्य को वश में कर लेता हैं । यही साधक की अवस्था है । इसे ही एक अन्य रूप से अन्तरात्मभाव भी कहा गया है। तीन प्रकार की आत्माएं - बहिरात्मा, . अंतरात्मा और परमात्मा । पूर्ववर्ती परावर्तनों में स्थित जीव बहिरात्मा, चरम पुद्गल परावर्तन में प्रवेश करने पर पुरुषार्थ की तीव्रता बढ़ती तब वह अन्तरात्मभाव को उपलब्ध होता है । और यही भाव कारण बनकर कार्यरूप परमात्मभाव को उपलब्धि कराता है । चरम पुद्गल परावर्तन में स्थित जीव की विकासोन्मुख अवस्थाओं की चर्चा करते हुए पांच यौगिक अवस्थाएं वर्णित की गई है : ( १ ) अध्यात्म ( २ ) भावना ( ३ ) ध्यान ( ४ ) समता ( ५ ) वृत्तिसंक्षय |
( १ ) अध्यात्म : अध्यात्मका सीधा सा अर्थ है - आत्मा का आत्मा में अधिष्ठित होना । स्व का स्व के सम्मुख होना । इसे योगबिन्दु में इस प्रकार वर्णित किया गया है कि चारित्रगामी पुरुष का शास्त्रानुगामी तत्व-चिंतन, सेवित प्रमादमय भूलों की सम्यक् आलोचना व प्रतिक्रमण, देवादि के प्रति पूजनीयता तथा मैत्री आदि शुभ भावों से भावित अंतःकरण अध्यात्म कहलाता है । "
(२) भावना : सामायिक द्वात्रिंशिका के प्रथम श्लोक में आचार्य अमितगति ने चार भावनाएँ -- मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ को प्ररूपित किया है । जिसे बौद्ध दर्शन में चार ब्रह्म-विहार के नाम से जाना जाता है । अध्यात्मरत साधक को हरिभद्रसूरि ने इन्हीं उदात्तभावों को अंतकरण में उद्भूत कर उच्चत्तर आत्म-परिणामों को संप्राप्त करने हेतु निर्देश दिया है ।
(३) ध्यान : शुभालम्बन पर चित्त की एकाग्रता ध्यान कहलाती है । जो दीपक की स्थिर लौ के समान स्थैर्य प्राप्त ज्योतिर्मय होता है तथा सूक्ष्म एवं गहनता युक्त होता है ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org