Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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(xxiv) इत्यादि मतों पर आलोचनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया है, परन्तु इस आलोचनात्मक विवेचन में भी आपने अन्य विचारकों के नामों को सादर उल्लेख किया है जो आपकी विनयशीलता व ओदार्य का परिचायक है । जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी के शब्द हैं कि 'उन्होंने प्राकृत में लिखित जैनागमों की संस्कृत टीकाएं, नियुक्तियां एवं चूणियाँ लिखकर जैन जैनेतर जगत् का अत्यंत उपकार किया हैं।'
योग-बिन्दु
परम पुरुष जिनेश्वर भगवन्त के चरण-पद्मों में श्रद्धायुत वंदनरूप मंगलाचरण के पश्चात आचार्य हरिभद्रसरि ने अनेकानेक विशिष्ट अभिव्यंजनाओं से युक्त योगबिन्दु नामक अतिमहत्वपूर्ण साहित्य कृति योग का विशद् वर्णन किया है। जिसमें हरिभद्रसूरि ने विभिन्न परंपराओं से उपरत हो उसके मूलतत्व का स्पर्श किया है। इस मूलतत्व का विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण-विवेचन उनके सम्प्रदायमुक्त व विशाल दृष्टिकोण का परिचायक है। परंपराओं की विभिन्नता होते हुए भी समस्त संकेत और सभा दृष्टियाँ उतो एक तत्व को ओर है जिसे जैन एवं वेदान्त में पुरुष, सांख्य में क्षेत्रवित् ओर बौद्ध में ज्ञान कहा गया है। वैसे ही हिंसा-विरति को जैनदर्शन में व्रत और पातंजल योग में यम के नाम से जाना जाता है। इसी आधार पर आचार्य श्री ने सम्यग्दृष्टि एवं बोधिसत्व का निरपेक्ष तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है।
अव्याबाध सुख आपूरित शाश्वत जीवन प्रदान करने रूप अभ्यास, वह पय है-योग। इस पथ का पथिक जीव तब होता है जब वह चरम पुद्गल परावर्तन में प्रवेश करता है अर्थात् कर्म शास्त्र की दृष्टि के अनुसार जब भव्य जीव आयकर्म के सिवाय शेष सातकर्मों की स्थिति पत्योपम के असंख्यात्वे भाग कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम के भीतर कर अपूर्व परिणामों द्वारा राग-द्वेष को दुर्भेय ग्रंथि को तोड़ देता है। ऐसी परिपक्व अवस्था आने पर ही जीव योग का अधिकारो बनता है। उस समय उसके भीतर योग के प्रति उत्कृट अभिरुचि, प्रेरणा व अदम्य उत्साह जागत होते हैं। जिसके आधार पर वह उत्तरोत्तर विकासोन्मुख अवस्थाओं को पार करता हुआ चरम-लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
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