Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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थे । आपका समय वि० सं० ७५७ से ८२७ पर्यन्त 'हरिभद्रयुग' नाम से अभिहित किया गया है। .
आपके प्रति श्री जिनेश्वर सूरि के वन्दनामय उद्गार कितने सार्थक
आकाश मण्डल को प्रकाशित करने वाला सूर्य कहाँ ? और स्वयं को उद्भासित करने वाला जुगनू कहाँ ? वैसे ही आपके सद्वचन कहाँ ? और उनका स्पष्टीकरण करने वाला मैं कहाँ ?
आचार्य हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के उद्भट ब्राह्मण विद्वान् थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जिसकी कही हुई बात उन्हें समझ में नहीं आयेगी, वे उनका शिष्यत्व ग्रहण करेंगे। एक समय कारणवश जैन उपाश्रय के निकट खड़े हए उन्होंने साध्वी याकिनी महत्तरा द्वारा उच्चारित एक प्राकृत गाथा सुनी, जो उन्हें समझ में नहीं आयी। तुरन्त प्रतिज्ञानुसार उनका शिष्यत्व ग्रहण करने हेतु तत्पर हो गए। यहाँ पर स्वयं की प्रतिज्ञा के प्रति उनकी प्रामाणिकता दष्टिगोचर होती है। पश्चात् साध्वी याकिनी महत्तरा के निर्देशानसार आचार्य जिनभद्र के पास दीक्षित हुए। साधना पथ पर गतिमान् होते हुए उनका द्रव्यश्रुत विकसित भावत रूप में परिणमित हआ और जैन साहित्य आलोक में वे एक तेजस्वी नक्षत्र के रूप में उदित हुए ।
वास्तव में आप एक प्रज्ञा पुरुष थे। उनकी युग प्रतिष्ठित बहुश्रुतता एवं नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के परिचायक योग, न्याय एवं जैन कथा साहित्य में जो रचनाएं प्रस्तुत की हैं वह उनके पश्चात् आने वाले आचार्यों के लिए प्रेरणास्रोत बनकर रह गयीं।
आगमों एवं नियुक्तियों में बिखरे हुए अंशों को एकत्रित व सूत्रबद्ध कर उस पर स्वयं के मौलिक चिन्तन के आधार पर उन्होंने जो योग विषयक ग्रंथ लिखे हैं वे बड़े ही अनूठे व अपने आप में एक नई शैली को लिए हुए है । उन्होंने जिस शैली का अनुसरण किया उसके दर्शन अन्यत्र नहीं होते। जनश्रुति अनुसार उन्होंने १४४४ प्रकरण ग्रंथों को जैन साहित्यधार में प्रवाहमान किया था । संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं पर आपका समान अधिकार था । आपने सांख्य, योग, न्याय, चार्वाक, बौद्ध
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