Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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अभ्यास प्राणायाम कहलाता है। इससे प्राणों से आबद्ध मन नियंत्रित हो छाता है । जैन परम्परा में पतंजलि इस वर्णित प्राणायाम को साधना की दृष्टि से निरुपयोगी माना गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में प्राणायाम की विस्तृत चर्चा को है। उनकी यह मान्यता भी रही है कि प्राणायाम मानव को अधिक लाभकारी नहीं है कारण कि प्राणों के निग्रह से शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती हैं जिससे मन में चपलता उत्पन्न होती है। दूसरे पूरक, कुम्भक और रोचक क्रियाओं के करने में परिश्रम करना पड़ता है। इससे भी मन में संक्लेश उत्पन्न होता है और यह चित्तसंक्लेश मोक्ष में बाधक है।
एक अन्य अपेक्षा से चितन करने पर यह ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने प्राणायाम को हठपूर्वक नियंत्रण के रूप में न लेकर सहज दवास-दर्शन के रूप में स्वीकृत किया है। जैसे हमारे यहाँ पर कायोत्सर्ग को श्वासोच्छवास के साथ संलग्न किया गया है। आचार्य भद्रबाह ने सांवत्सरिक कायोत्सर्ग १००४ उच्छवास प्रमाण, चातुर्मासिक ५००, पाक्षिक ३००, रात्रिक ५०, देवसिक १०० उच्छवास प्रमाण बताया है।
(५) प्रत्याहर : इंद्रियों का अपने विषयों से रहित होकर चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है । प्रत्याहार की तुलना हम निर्जरा का छठा भेद प्रतिसंलीनता के साथ कर सकते हैं। औपपातिकसूत्र में प्रतिसंलीनता चार प्रकार की बतलायी गवी है।
(१) इंद्रिय प्रतिसंलीनता : इंद्रियों का गोपन करना। (२) कषाय प्रतिसंलीनत : क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों
आवेगों का निरोध । (३) योग प्रतिसंलीनता : मानसिक, वाचिक एवं कायिक
प्रवतियों का गोपन । (४) विविक्त-शयनासन : सेवनता : एकांत स्थान में निवास । (६) धारणा, (७) ध्यान और (८) समाधि :
महर्षि पतंजलि ने धारणा, ध्यान एवं समाधि को संयम के नाम से अभिहित किया है। पतंजलि के अनुसार किसी एक देश अथवा ध्येय में चित्त को बांधना वा लगाना धारणा है 145 उस ध्येय में चित्त की
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