Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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संहिता में ८४ लाख आसनों की चर्चा की गयो है। जिसमें ८४ आसन मुख्य हैं। इनमें भी शिवसंहिता में चार आसनों को मुख्यता प्रदान की गयो है-(१) सिद्धासन (२) पद्मासन (३) उग्रासन (४) स्वस्तिकासन ।
जैनदर्शन में निर्जरा का पाँचवाँ भेद है-काय क्लेश, जिसकी तुलना पतंजलि के आसन के साथ आंशिक रूप से को जा सकती है। कायक्लेश तप चार प्रकार का है
(१) आसन (२) आतापना (३) विभषावर्जन (४) परिक वर्जन। जैनागमों में कायक्लेश तप के अन्तर्गत निम्नीतक आसन की चर्चा की गई हैं यथा - (१) स्थान स्थितिक : एक ही आसन में बठे रहना । (२) उस्कुटुकासनिक : उकडू आसन में बैठना। (३) वोरासनिक : वारासन में स्थित होना। (४) नवधिक : पुढे टिकाकर या पालथी लगाकर बैठना। (५) आप्रावृतक : खुजलो आने पर देह को न खुजलाना।
इसके अतिरिक्त गोदोहिक, पद्मासन, पर्य कातन का भी निर्देश किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशात्र के चतुर्थ प्रकाश में पर्यकासन, वोरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दंडापन, उत्कुटिकासन, गोदोहिकासन, कायोत्सर्गासन इत्यादि की चर्चा की है।
पतंजलिने आसन को परिभाषा करते हुए आसन को स्थिर सुख । कहा है । यहो बात आचार्य हेमचन्द्र ने भो योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश में आसनों को चर्चा करने के पश्चात् कहो हैं। कि साधक के लिए वही आसन उपयुक्त है जा उसे चितस्थिरता में उपयोगी बने। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार के आसन से ध्यान साधे जावे जिससे शरीर पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े अयत्रा शरीर के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो।
दशवैकालिक सूत्र में भी इसी अपेक्षा से कहा भी गया है कि यहाँ पर कायक्लेश तप का प्रधान ध्येय काया को क्लेश देना नहीं वरन् काया के क्लेश का सहन कर आसन सिद्धि द्वारा व्यान में स्थिरता प्राप्त कर आत्मिक सुख को उपलब्ध करना है।
(४) प्राणायाम : प्राणों पर नियंत्रण प्राप्त करने का पद्धतिपूर्ण
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