Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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(xviii)
(४) असंगानुष्ठान : साधना में जोवन का ओतप्रोत हो जाना धर्म का जीवन में एक रस हो जाना ।
इस तरह योग के व्यवहार जन्य अस्सी भेद होते हैं । एक अन्य अपेक्षा से हरिभद्रसरि ने योगद ष्टिसमच्चय में योग को तीन भागों में विभक्त किया है
(क) इच्छायोग : जो धर्म आत्म जागरण की इच्छा (आत्मजिज्ञासा) किए हए है, जिसने आगमश्रुत उसके अर्थ एवं शास्त्राय सिद्धांतों को सुना हुआ है परन्तु अभी प्रमादवश जिसकी योग साधना में विकलता है ऐसे असंपूर्ण धर्मयोग को इच्छा योग कहते हैं ।
(ख) शास्त्रयोग : आगमत के ज्ञाता, श्रद्धावान तीव्रबोधयुक्त तया यथाशक्ति प्रमादरहित पुरुष की अविकल योग-साधना शास्त्रयोग कहलाती है।
(ग) सामर्थ्य योग : शास्त्र में जिसका उपाय दर्शाया गया है परन्तु शक्ति के उद्रक प्रबलता के कारण जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रान्त है वैसा उत्तमयोग, सामर्थ्य योग कहलाता है ।33
जैन साधना पद्धति में योग हठपूर्वक नहीं वरन् योग का स्वरूप बड़ा ही सहज एवं स्वाभाविक है यह अनुभूत सत्य है कि मन को हठपूर्वक नियन्त्रण में करने का प्रयास मन को वश में करने रूप उपाय नहीं बन सकता । हठपर्वक नियन्त्रित किया गया मन सहसा नियन्त्रण मुक्त होते ही स्वाभाविक वेग की अपेक्षा अति तीव्रगति से गतिमान होता है । जो वर्षो से अजित साधना के पतन का कारण भी बन सकता है। योग को जीवन का सहजरूप देने हेतु जैनागमों में एक अत्यन्त सुन्दर शब्द आता है-'यत्ता'। कुछ भी करो यत्ना पूर्वक करो। यह बात आचारांगसूत्र में भी भगवान् महावीर के जीवनवृत्त का विवेचन करते हुए कही गई है।
. भगवान् महावीर को तप साधना जागृति विवेक से युक्त थी। जिसके दो आधार थे-समाधि-प्रेक्षा और अप्रतिज्ञा । अर्थात् वे चाहे कितना ही कठोर तप करते लेकिन साथ में अपनी समाधि का सतत प्रेक्षणा करते रहते और उनका यह तप किसी प्रकार के पूर्वग्रह हठाग्रह युक्त नहीं था। इस से यह ज्ञात होता है कि भगवान् की तप साधना
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