Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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(XVII )
योग स्थिरता का अभ्यास ।
(२) उर्ण (वर्ण) योग : माध्यम से योग स्थिरता का अभ्यास ।
मंत्र (जप) के द्वारा शब्द उच्चारण के
(३) अर्थयोग : नेत्र आदि पदार्थों का वाच्यार्थ । (४) आलम्बन : किसी पुद्गल विशेष पर मन का केन्द्रीकरण । (५) रहित योग : निरालंब आत्मचिन्तन व आत्मलीनता रूप निर्विकल्प समाधि ।
इन पांचों में से प्रत्येक को इच्छा, प्रवृति स्थिरता एवं सिद्धि इन चार भेदों में विभक्त किया गया है" ।
(१) इच्छा : उपरोक्त क्रियाओं को करने का अंतर में उल्लास, उमंग का जागृत होना । यह अद्भुत भावों से युक्त तीव्र उत्कण्ठा इच्छा कहलाती है ।
(२) प्रवृति: उपरोक्त क्रियाओं का उपशमभावपूर्वक यथार्थतः पालन प्रवृति कहलाता है ।
(३) स्थिरता : इन क्रियाओं में सुदृढ़ता आने का नाम स्थिरता है ।
(४) सिद्धि : जब साधक इन क्रियाओं पर पूर्णरूप से अधिकार प्राप्त कर लेता है, परिणामस्वरूप वह स्वयं तो आत्मशांति का अनुभव करता ही है किन्तु सम्पर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों को भी योग की ओर सहज रूप से उत्प्रेरित करता है तब वह सिद्ध योगी कहलाता है | 28
उपरोक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के और चार-चार भेद होते है— (१) प्रीति अनुष्ठान : योगिक क्रियाओं में अत्यधिक रूचि का उत्पन्न होना एवं रूचिपूर्वक उन प्रवृत्तियों में सन्नद्ध होना ।
(२) भक्ति अनुष्ठान : उन क्रियाओं के प्रति अत्यधिक आदर और प्रेम रखते हुए उत्कृष्ट भावों से प्रयत्नशील होना ।
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(३) आगमानुष्ठान: शास्त्र वचनों को दृष्टिगत रखते हुए साधनानुरूप समुचित प्रवृत्ति करना ।
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