Book Title: Vipaksutram
Author(s): Abhaydevsuri,
Publisher: Agamoday Samiti
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विपाके
श्रुत०१
॥४१॥
पत्तेहि य पुष्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति १ मृगापुतेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं उवसमावित्तए, नो चेक णं संचाएंति उवसामित्तए । ततेत्रीयाध्य.
ते बहवे विजा य विजपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक उव- मृगापुत्रसामित्तए ताहे संतो तंता परितंता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तते णं इकाईरहकूडे पूर्वभवः विजेहि य ६पडियाइक्खिए परियारगपरिचत्तेनिविण्णोसहभेसज्जे सोलसरोगायंकेहिं अभिभूए समाणे रज्जे य रहे य जाव अंतेउरे य मुच्छिए रजं च रहें च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अदुहद्दवसट्टे अड्डाइज्जाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्को
सू० ५
१ सिलियाहि यत्ति शिलिका:-किराततिक्तकप्रभृतिकाः 'गुलियाहि यत्ति द्रव्यवटिकाः 'ओसहेहि यत्ति औषधानिएकद्रव्यरूपाणि 'भेसजेहि य'त्ति भैषज्यानि-अनेकद्रव्ययोगरूपाणि पथ्यानि चेति । २ 'संत'त्ति श्रान्ता देहखेदेन 'संत'ति तान्ता मनःखेदेन 'परितंत'त्ति उभयखेदेनेति 'रजे य रढे य' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं'कोसे य कोट्ठागारे य वाहणे य'ति, 'मुच्छिए गढिए गिद्धे अझोववण्णे'त्ति एकार्थाः, 'आसाएमाणे त्यादय एकार्थाः, 'अदृदुहट्टवसट्टे'त्ति आर्को मनसा दुःखितो-दुःखात्तों देहेन वशास्तु-इन्द्रियवशेन पीडितः, ततः कर्मधारयः, 'उजला' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'विउला कक्कसा पगाढा चेडा दुहा| तिव्वा दुरहियास'त्ति एकार्था एव, 'अणिवा अकंता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा' एतेऽपि तथैव ।।
४
॥४१॥
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