Book Title: Vipaksutram
Author(s): Abhaydevsuri,
Publisher: Agamoday Samiti
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उच्चनीयमज्झिमकुले जाव अडमाणे अहापज्जतं समुयाणियं गिण्हति २त्ता वाणियगामे नयरे मझमज्झेणं जाव पडिदंसेति, समर्ण भगवं महावीरं वंदा नमसइ २सा एवं बयासी-एवं खलु अहं भंते! तुज्झोहिं अन्भणुनाए समाणे वाणियगामं जाब तहेव वेदेति, से णं भंते। पुरिसे पुटवभवे के आसी? जाव पञ्चणुन्भवमाणे विहरति !, एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएम इहेव जंबुद्दीने २ भारहे वासे हस्थिणाउरे नामं नमरे होत्था रिद्ध०, तत्थ णं हस्थिणाउरे नगरे सुनंदे नामं राया होत्था महया हि, तत्थ गं हथिणारे गरे बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एगे गोमंडवए होत्था अणेगखंभसयसन्निविढे पासाईए ४, तस्थ ण बहबे णगरगोरूवाणं सणाहा य अणाहा य णगरगाविओ य गरवसभा य जगरबलिवद्दा य गगरफ्ड्याओ य परतणपाणिया निब्भया निरुवसग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति, तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे भीमे
१ 'रिद्धि'त्ति 'रिद्धस्थिमियसमिद्धे' इत्यादि दृश्य, तत्र ऋद्धं-भवनादिमिर्वृद्धिमुपगतं स्तिमितं-भयवर्जितं समृद्धं-धनादियुक्तमिति । २ 'महया हि'त्ति इह 'महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे' इत्यादि दृश्य, तत्र महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा, 'पासा' इत्यत्र 'पासाईए दरिसणिज्जे अमिरूवे पडिरूवेत्ति दृश्यं, तत्र प्रासादीयो-मनःप्रसन्नताहेतुः वर्शनीयो-यं पश्यञ्चक्षुर्न श्राम्यति अभिरूप:-अभिमतरूपः प्रतिरूपः-द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूपं यस्येति । ३ 'नगरबलीवहे'त्यादौ बलीव -वर्द्धितगवाः पड्डिकाइस्वमहिष्यो हस्खगोस्त्रियो वा वृषभाः-साण्डगवः 'कूडगाहे'त्ति कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटग्राहः।
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