Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 14
________________ (७) न्तर की रोचकता एवं उपयोगिता में और भी अत्यधिक वृद्धि हो गई है। हमें खेद हैं कि-ग्रन्थकर्ता के चरित्र विषयक कोई विशेष सामग्री उपलब्ध न होने से हम उसके श्रद्धासूचिक कोई विवरण देने में असमर्थ हैं। ___समकित धर्म मात्र का मूल है जिसके बिना धर्म अंक सहित शून्य सदृश है, अतः समकित अभिलाषा को ही अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य समझ समकित अभिलाषियों के हितार्थ ही इस प्रथम विभाग में उसका उल्लेख किया गया है । प्रारंभ में अधिक न लिख उत्सुक वाचकों के साद्यन्त अध्ययनलग्न त्वरित करने निमित्त मात्र अनुक्रमणिका के पढ़ने का अनुरोध कर इस संक्षिप्त प्रस्तावना की समाप्ति की जाती है । परम कृपालु परमात्मा से प्रार्थना है कि उसकी असीम कृपा से यह विभाग अनेक भव्य जीवों को समकितप्राप्ति का निमित्तभूत हो इसी में हमारे प्रयास की सफलता निहित है । "सुमित्र" 卐

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