Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ• ऋषभदेवजी--युगलिक भव xx देव और विद्याधर भव
क्रय-विक्रय कर के संघ, पीछा लौटा और सुखपूर्वक स्वस्थान--क्षितिप्रतिष्ठित नगर पहुँच गया।
युगलिक भव कालान्तर में सार्थपति धन्य सेठ आयु पूर्ण कर के उत्तरकुरु क्षेत्र में युगलिक पुरुष के रूप में उत्पन्न हुआ। उत्तरकुरु क्षेत्र के युगलिकों में एकान्त 'सुषम-सुषमा' नामक आरे जैसी स्थिति होती है। वहाँ की पृथ्वी, मिश्री जैसी मीठी और निर्मल होती है । जल भी स्वादिष्ट होता है । वहाँ तीन दिन के बाद आहार लेने की इच्छा होती है। वहाँ के मनुष्यों के २५६ पसलियाँ होती है। शरीर का प्रमाण तीन गाउ लम्बा और आयु तीन पल्योपम की होती है। वे अल्प कषायी व ममत्व रहित होते हैं । दस प्रकार के कल्पवृक्षों से वहाँ के निवासियों का निर्वाह होता है । वे कल्पवृक्ष इस प्रकार के हैं
१ मद्यांग--इस वृक्ष से मद्य--पौष्टिक रस मिलता है। २ भृगांग--पात्र देता है। ३ तुर्यांग--विविध प्रकार के वादिन्त्र मिलते हैं। ४ दीपशिखांग--दीपक-सा प्रकाश देने वाले । ५ ज्योतिष्कांग-- सूर्य-सा प्रकाश मिलता है और उष्णता भी मिलती है। ६ चित्रांग--विविध प्रकार के पुष्प । ७ चित्ररस से भोजन । ८ मण्यंग से आभूषण । ९ गेहाकार से घर और १० अनग्न कल्पवृक्ष से सुन्दर वस्त्र मिलते हैं। उनके जीवन के अन्त के दिनों में एक युगल का जन्म होता है । वे अपनी सन्तान की प्रतिपालना केवल ४६ दिन ही करते हैं । इसके बाद उनकी मृत्यु हो जाती है और वे देवगति प्राप्त करते हैं।
देव और विद्याधर भव
धन्य सार्थपति ऐसे सुखद क्षेत्र में जन्मा और अपनी लम्बी आयु भोग कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर के पश्चिम महाविदेह की गंधिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत के ऊपर गंधस्मृद्धि नगर था । वहाँ के विद्याधरों के अधिपति श्री शतबल की चन्द्र-कान्ता भार्या की कुक्षि से पुत्ररूप में जन्म लिया। वह महाबली था, इसलिए उसका नाम भी 'महाबल' रखा गया । युवावस्था में विनयवती' नाम की सुन्दर कन्या के साथ उसके लग्न हुए । युवराज भोग भोगते हुए काल व्यतीत करने लगे।
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