Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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पञ्चमोऽध्यायः ... जैसे-जीव और पुद्गल एक स्थान से अन्य स्थान पर गमनागमन करते हैं अर्थात् जातेआते रहते हैं वैसे ये धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्य नहीं करते हैं ।
इसलिए धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों में गमनागमन रूप क्रिया का अभाव होता है। किन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप क्रिया तो इन तीनों में भी होती है। क्योंकि श्रीजैनदर्शन वस्तु-पदार्थ मात्र में पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद और व्यय दोनों मानता है ।
विशेष-"धर्माधर्माकाश" तीनों द्रव्यों का निष्क्रियत्व साधर्म्य भी है। उनका इस बाबत जब जीव और पुद्गल के साथ वैधर्म्य है, तब जीव और पुद्गल में परस्पर सक्रियत्व धर्म का साधर्म्य है तथा प्रथम के तीन द्रव्यों के साथ इस सम्बन्ध में वैधर्म्य है।
* साधर्म्य-वैधर्म्य सम्बन्ध में तोसरे सूत्र से छठे सूत्र तक जो कहा है उसको अब प्रश्नोत्तर के रूप में कहा जाता है ।
प्रश्न-नित्यत्व और अवस्थितत्व के शब्दार्थ में क्या विशेषता आती है ?
उत्तर-अपने-अपने सामान्य और विशेष स्वरूप से च्युत नहीं होना ही नित्यत्व है। तथा स्व-स्वरूप में कायम रहते हुए भी अन्य स्वरूप को प्राप्त नहीं होना अवस्थित धर्म है।
जैसे-जीवतत्त्व अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप का और चेतनात्मक विशेष रूप का कभी त्याग नहीं करता, यह नित्यत्व है। तथा उक्त स्वरूप को छोड़े बिना अजीवतत्त्व के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता, यह अवस्थितत्व है।
नित्यत्व कथन से विश्व की शाश्वतता सचित होती है और अवस्थितत्व कथन से असंकरता सूचित होती है। विश्व अनादिनिधन है और मूल तत्त्वों की संख्या अपरिवर्तनशील है। * प्रश्न-धर्मास्तिकायादि अजीवतत्त्व यदि द्रव्य और तत्त्व हैं तो इनका कोई स्वरूप तो
अवश्य ही स्वीकारना पड़ेगा? तो फिर वे अरूपी कैसे ? उत्तर-अरूपीपन से स्वरूप का निषेध नहीं होता । धर्मास्तिकायादि समस्त तत्त्वों का स्वरूप अवश्य है, क्योंकि बिना स्वरूप के वस्तु-पदार्थ सिद्ध नहीं होता है।
जैसे-ससिशृङ्गवत् या आकाशपुष्पवत् अरूपीत्व कहने से रूप अर्थात् मूत्तिपने का निषेध है। यहाँ रूप का अर्थ मूत्तित्व है। रूप आकार विशेष या रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के समुदाय को मत्ति कहते हैं। इस मत्तित्व का धर्मास्तिकायादिक चार तत्त्वों में प्रभाव माना है । किन्तु स्वरूप मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती एवं न वह अरूपीत्व का बाधक है। रूप, मूर्त्तत्व, मूत्ति ये शब्द समानार्थक हैं। रूप-रसादि जो गुण इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाएं तो ये इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्त हैं और वे रूप-रसादि पुद्गल में पाये जाते हैं, इसलिए ( गल हो रूपी है।
इसके अलावा अन्य कोई द्रव्य मूतिमान नहीं है। क्योंकि वे "धर्माधर्माकाशजीव" इन्द्रियअग्राह्य हैं। रूपीत्व के कारण पुद्गल तथा धर्मास्तिकायादि चार तत्त्वों की असमानता होने से परस्पर वैधर्म्य भाव उत्पन्न होता है। अर्थात् असमानता को ही वैधर्म्य कहते हैं ।