Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
६.
]
[ अष्टक-समुच्चय
विद्वानों की विद्वत्ता निहारी नित्य प्रानंद पाते , तथा पागमादि ग्रन्थ निरखि राजी अतिशय होते। जानी तत्त्व जैनागम के सद्ज्ञानदृष्टि प्रकाशे , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ६ ॥ देख उस महापुरुष को सब पूर्व के याद पाते , पवित्र होती प्रात्मा अपनी दोषादि दूर होते । जाये सदा कुमति सर्वथा सुमति प्रादि भी पाते , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ७ ॥ शान्त मुद्रा मनोहर मूत्ति भव्य है जिस गुरु की , सोहे सदा स्मितवदने निर्विकारी वृत्ति रही। सदा उसी के दर्शन करते प्रात्मा पवित्र होती है , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ८ ।। इन्हीं श्री वृद्धिविजय गुरु के शिष्य श्री नेमिसूरि हैं , तस श्री लावण्यसूरि के बड़े शिष्य दक्षसूरि हैं। तस शिष्य सुशीलसूरि ने रचा अष्टक ये हर्ष से , गाये उसको मुनि हेम-जिन-संयमरत्न भाव से ।। ६ ।।
॥ इति श्रीपूज्यवृद्धिविजय गुरु-स्तुत्यष्टक समाप्त ॥