Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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६।४ ]
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उत्तर - शुभयोग के समय में ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्मों का भी आस्रव होने पर उसमें रसप्रति अल्प होने से उसका फल नहींवत् मिलता है । वस्तु-पदार्थ होते हुए जो अल्प हो तो, 'नहीं है' ऐसा कह सकते हैं ।
षष्ठोऽध्यायः
जैसे कि - जिसके पास मात्र बीस पच्चीस रुपये हों तो वह भी निर्धन कहा जाता है, वैसे प्रस्तुत में भी शुभयोग के समय बँधने वाले ज्ञानावरणीय इत्यादि कर्मों में अल्प रस होने से वे निज कार्य करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते । अतः यहाँ पर निषेध करना, यह अंश मात्र भी प्रयोग्य नहीं है । या यहाँ पर पुण्य और पाप का निर्देश श्रघाती कर्मों की अपेक्षा से है । अथवा पूर्वे जो कहा है कि "शुभ योग से ही पुण्य का प्रस्रव होता है ।" वैसे इस सूत्र का अर्थ करने से शुभयोग के समय में होने वाले ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों के प्रास्रव का निषेध नहीं होता ।
शुभयोग के समय में घाती कर्मों का बन्ध, पुण्य और निर्जरा ये तीनों होते हैं । किन्तु घाती कर्म में रस प्रतिमन्द, पुण्य में तीव्र रस और अधिक निर्जरा होती है ।। ६-३ ।।
* शुभयोगः पापकर्मणोः श्रात्रवस्य निर्देशः
5 मूलसूत्रम्
अशुभः पापस्य ॥ ६-४ ॥
* सुबोधिका टीका *
योगस्य शुभाशुभौ भेदौ स्वरूपभेदापेक्षया भवति । किन्तु स्वामिभेदापेक्षयाऽपि शेषं पापमिति । अशुभयोगः
तस्य भेदाः भवन्ति । तत्र सद्वद्यादि पुण्यं वक्ष्यते ।
पापस्यास्रवः ।। ६-४ ।।
* सूत्रार्थ - प्रशुभयोग पाप का श्रास्रव है ।। ६-४ ।।
विवेचनामृत
अशुभ योग पापबन्धक हेतु है । अर्थात् अशुभ योग पाप का प्रस्रव है। हिंसा, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह आदि की प्रवृत्ति अशुभ काययोग है । असत्य वचन, कठोर तथा अहितकर वचन, पैशून्य, तथा निन्दा इत्यादि अशुभ वचनयोग हैं ।
हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह इत्यादि के विचारों तथा राग, द्वेष, मोह, एवं शुभ मनायोग हैं ।। ६-४ ।।