Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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(३) सद्गुणाच्छादन - स्वोत्कर्ष से बचने के लिए अपने विद्यमान गुणों को ढकना ।
(४) सद्गुणोद्भावन - अपने दुर्गुणों को प्रगट करना ।
यहाँ स्वनिन्दा और असद्गुणोद्भावन का अर्थ समान होते हुए भी अपनी लघुता बताने के लिए विद्यमान वा श्रविद्यमान अपने दोषों को प्रगट करना, ऐसा अर्थ जब करने में आ जाय तब और असद्गुणोद्भावन से विद्यमान दुर्गुणों को प्रगट करना ऐसा अर्थ करने में आ जाय तो दोनों के अर्थ में कंइक फेर पड़ जाय । अथवा आत्मनिंदा अर्थात् अपने में केवल दोष जोना- देखना, प्रगट नहीं करना तथा सद्गुणोद्भावन अर्थात् अपने दुर्गुणों-दोषों को बाहर प्रगट करना । ऐसा अर्थ करने में प्राये तो इन दोनों के अर्थ में भेद पड़ता है । अथवा पर के गुणों का प्रकाशन यह 'सद्गुणोद्भावन' है तथा पर के दोषों को ढांकना यह 'प्रसद्गुणाच्छादन' है ।
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इस अर्थ में परप्रशंसा तथा सद्गुण उद्भावन का अर्थ समान है। इससे विपरीत अर्थ करने में आ जाय तो स्वनिन्दा प्रादि चारों के अर्थ में भिन्नता होगी ।
(५) नम्रवृत्ति - गुणी पुरुषों के प्रति नम्रता तथा विनयपूर्वक वर्त्तना, वह नम्रवृत्ति है । (६) अनुत्सेक - विशिष्ट श्रुत आदि की प्राप्ति होते हुए भी गर्व अभिमान नहीं करना, यह सेक है ।
* तदुपरान्त - जाति आदि का मदश्रभिमान नहीं करना, पर की अवज्ञा नहीं करनी, मसखरी नहीं करनी, तथा घर्मीजीवों की प्रशंसा करनी, इत्यादि भी उच्चगोत्र कर्म के प्रास्रव हैं ।। (६-२५)
15 मूलसूत्रम् -
* अन्तरायकर्मरणः श्रास्रवाः
विघ्नकररणमन्तरायस्य ॥ ६-२६ ॥
* सुबोधिका टीका *
पञ्चविधोऽन्तरायकर्म । दानान्तरायं, लाभान्तरायं, भोगान्तरायं, उपभोगान्तरायं वीर्यान्तरायञ्च । दानलाभभोगोपभोगवीर्येषु यस्य कर्मरण: उदयेन साफल्यं नैव भवति अन्तरायं तच्च । दानादीनां विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवो भवति इति ।
१. जैसे स्वोत्कर्षं से बचने के लिए विद्यमान भी अपने गुणों को छिपाना यह दोष रूप नहीं है, किन्तु गुणरूप है; वैसे अपनी लघुता दिखाने के लिए अपने में अविद्यमान दोषों को भी कहना वह दोष रूप नहीं है, किन्तु गुणरूप है।