Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
६।२६ ]
षष्ठोऽध्यायः उत्तर-कर्म का बन्ध चार प्रकार से होता है। प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबन्ध। इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो कम्मपयडी में या कर्मग्रन्थ में मिलेगा।
यहाँ तो केवल रसबन्ध को लक्ष्य में लेकर ही उक्त विभाग किये गये हैं। एक प्रकृति के आस्रव को सेवन करते समय अन्य-दूसरी प्रकृतियों का जो बन्ध होता है, वह बहुधा प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से जानना चाहिए। अर्थात्-शास्त्रकथित सात, आठ कर्म का बन्ध जो प्रति समय मानने में आया है, उसमें प्रायः करके प्रदेशबन्ध की मुख्यता ही युक्त है। ऐसा मानने से शास्त्रीय नियम में भी बाधा नहीं आती है। कारण कि, प्रस्तुत आस्रव का विभाग तथा शास्त्रोक्त नियम अबाधित रूप से रह सकते हैं। किन्तु अनुभाग यानी रसबन्ध की मुख्यता है और शेष प्रकृति, स्थिति तथा प्रदेशबन्ध की गौणता है तथा अन्य प्रकृतियों के अनुभाग (रस) बन्ध की गौणता रहती है। अर्थात्-ज्ञानावरणीय कर्म के प्रदोष आदि आस्रव सेवन करते समय ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाग बन्ध की मुख्यता और शेष सात कर्म के रसबन्ध की गौणता रहती है किन्तु इसमें यह नहीं समझना कि एक समय एक प्रकृति का रसबन्ध होते समय अन्य प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है। उसी समय में कषाय द्वारा उन प्रकृतियों का अनुभाग (रस) बन्ध भी सम्भवित है ।
प्रस्तुत आस्रव विभाग में अनुभाग बन्ध की ही मुख्यता, अपेक्षा युक्त है ।। (६-२६)