Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६६ (६) काय क्रिया-कायिकी क्रिया। इसके अनुपरत और दुष्प्रयुक्त ऐसे दो भेद होते हैं । मिथ्यादृष्टि की कायिक क्रिया अनुपरत कायक्रिया है। प्रमत्तसंयमी की दुष्प्रयुक्त (समिति आदि से रहित) कायिक क्रिया दुष्प्रयुक्त कायक्रिया है। दुष्टभाव सहित प्रयत्नशील होना कायिकी क्रिया कही जाती है।
(७) अधिकरण क्रिया-हिंसाकारी साधनों को ग्रहण करना। अर्थात्-हिंसा के साधन बनाना तथा सुधारना इत्यादि ।
(८) प्रादोषिकी क्रिया-क्रोध के आवेश से होने वाली क्रिया। यह प्रादोषिकी या प्रदोष क्रिया कही जाती है।
(8) पारितापिकी क्रिया अन्य को या अपने को परिताप यानी संताप होवे ऐसी क्रिया। अर्थात्-प्राणियों को सन्ताप देना। यह पारितापिकी या परितापन क्रिया कही जाती है ।
(१०) प्राणातिपात क्रिया-आयु, इन्द्रिय आदि प्राणों के विनाश करने को प्राणातिपात क्रिया कहते हैं। अर्थात्-प्राणियों के प्राणों (पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, कायाबल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये दश प्राण हैं), इनका हनन करना ।
(११) दर्शन क्रिया-रागवश रूपादि देखने की प्रवृत्ति । अर्थात्-राग से स्त्री/पुरुष आदि का दर्शन-निरीक्षण करना। यह दर्शन क्रिया कही जाती है।
(१२) स्पर्शन क्रिया-प्रमादवश स्पर्शन करने योग्य वस्तु के स्पर्शन का अनुभव करना। अर्थात्-राग से स्त्री आदि का स्पर्श करना। यही स्पर्शन क्रिया कही जाती है।
(१३) प्रत्यय क्रिया-प्राणिघात के अपूर्व उपकरण, नूतन-नवीन शस्त्रादि बनाना, यह प्रत्यय क्रिया कही जाती है।
(१४) समन्तानुपात क्रिया-मनुष्य तथा पशु आदि के गमनागमन (आवागमनादि) स्थान पर मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थ का त्याग करना। यह समन्तानुपात क्रिया कही जाती है ।
: (१५) अनाभोग क्रिया-बिना देखी, शोधी भूमि पर शरीर या किसी वस्तु को स्थापित करना। अर्थात् जोये बिना और प्रमार्जित किये बिना वस्तु मूकनी-रखनी। यही अनाभोग क्रिया कही जाती है।
(१६) स्वहस्त क्रिया-अन्य-दूसरे के करने योग्य क्रिया को स्वयं अपने हाथ से करना। यह स्वहस्त क्रिया कही जाती है ।
(१७) निसर्ग क्रिया-पाप की प्रवृत्ति के लिए अनुमति देना। अर्थात्-पापकार्यों में सम्मति देनी-स्वीकार करना। यह निसर्ग क्रिया कही जाती है।
(१८) विदारण क्रिया-अन्य-दूसरे के किये हुए पाप को प्रकाशित करना। अर्थात्अन्य-दूसरे के गुप्त पापकार्य को लोक में प्रकट करना। यही विदारण क्रिया कही जाती है।