Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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तत्प्रदोष, निह्नव, मत्सर, दर्शनावरण कर्म के बन्धहेतु हैं ।
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
विवेचनामृत 5
अन्तराय, आशातना और उपघात आस्रव ज्ञानावरण,
[ ६।११
अर्थात् - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों सम्बन्धी यथासम्भव प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात ये 'छह' ज्ञानावरणीय कर्म के तथा दर्शन, दर्शनी एवं दर्शन के साधनों में यथासम्भव प्रदोष आदि 'छह' दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव हैं ।
( १ ) तत्प्रदोष - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष करना इसको 'तत्प्रदोष' कहते हैं । अर्थात् - वांचना के, व्याख्यान आदि के समय पर प्रकाशित होते हुए तत्त्वज्ञान के प्रति अरुचि होनी | ज्ञान पढ़ते कंटाला होना । ज्ञानी की प्रशंसा इत्यादि सहन नहीं होने से या अन्य कारण से उनके प्रति द्वेष-वैरभाव रखना । ज्ञान के साधनों को देखकर उनके प्रति भी रुचि प्रेम नहीं होना इत्यादि तत्प्रदोष जानना ।
(२) निह्नव - कलुषित भाव से ज्ञान की प्रवज्ञा करनी या ज्ञानादि को छिपाना, इसको 'वि' कहते हैं । अर्थात् प्रपने पास ज्ञान होते हुए भी कोई पढ़ने के लिए आ जाय तो ( कंटाला तथा प्रमाद आदि के कारण ) 'मैं जानता नहीं हूँ' ऐसा कहकर के नहीं पढ़ाना । जिनके पास पढ़े हों, अभ्यास किये हों उनको ज्ञानगुरु तरीके नहीं मानना । तथा ज्ञान के साधन अपने पास होते हुए भी ना कहना इत्यादि । उसको 'निह्नव' जानना ।
(३) मात्सर्य - - ज्ञान को योग्यतापूर्वक ग्रहण करने वाले पर कलुषित वृत्ति रखनी, उसे 'मात्सर्य' कहते हैं । अर्थात् - अपने पास ज्ञान हो और अन्य योग्य व्यक्ति पढ़ने को जब आ जाय तब यह पढ़ करके मेरे जैसा विद्वान् हो जायेगा, या मेरे से भी आगे बढ़ जायेगा, इस तरह ईर्ष्या से उसे ज्ञान का दान नहीं देना तथा ज्ञानी के प्रति ईर्ष्या धारण करनी, उसे मात्सर्य जानना |
( ४ ) अन्तराय - ज्ञानाभ्यास में विघ्न करना या उसके साधनों का विच्छेद करना, उसको अन्तराय कहते हैं । अर्थात् - अन्य - दूसरे को पढ़ने आदि में विघ्न खड़ा करना । स्वाध्याय हो रहा हो तब निरर्थक उसे ( स्वाध्याय करने वाले को ) बुलाना, कार्य सौंपना, उसके स्वाध्याय में विक्षेप हो जाय, ऐसा बोलना या वर्त्तना तथा व्याख्यानादिक में बातचीत करनी, शोरगुल करना । व्याख्यान में जाते हुए किसी को रोकना । अपने पास ज्ञान के साधन होते हुए भी नहीं देना, इत्यादि अन्तराय जानना ।
( ५ ) श्रासादन - दूसरे के द्वारा प्रकाशित होते हुए ज्ञान को रोकना, उसे प्रासादन कहते हैं । अर्थात् - ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति अनादर से वर्त्तना, विनय तथा बहुमान इत्यादि नहीं करना । उपेक्षा सेवनी तथा प्रविधि से पढ़ना पढ़ाना इत्यादि जानना ।'
१. इसके सम्बन्ध में कहा है कि
"प्रासादना श्रविध्यादिग्रहणादिना, उपघातो मतिमोहेनाहाराद्यदानेन ।”
[ श्री हरिभद्रसूरि की वृत्ति ]