Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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एतादृशा: विसंवादिनः साधर्मिकैः सह कलहं श्रन्यद् वाऽन्यथा प्रवृत्तिभिः
अशुभनामकर्म बध्नन्ति ।। ६-२१ ।।
६।२१]
* सूत्रार्थ - योग हैं ।। ६-२१ ।।
षष्ठोऽध्यायः
की वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के बन्धहेतु
5 विवेचनामृत 5
मन, वचन तथा काया इन तीन योगों की वक्रता - कुटिल प्रवृत्ति तथा विसंवादन अशुभ नामकर्म के प्रास्रव हैं ।
वक्रता है ।
( १ ) काययोग वक्रता - काया के रूपान्तर करके अन्य दूसरे को ठगना । यह काययोग
(२) वचनयोग वक्रता - सत्य - झूठ बोलना । वह वचनयोग वक्रता है ।
(३) मनोयोग वक्रता - मन में अन्य ही होते हुए भी लोकपूजा, सत्कार और सन्मान इत्यादि की खातिर बाह्य काया की तथा वचन की प्रवृत्ति भिन्न हो करनी, यह मनोयोग वक्रता है । (४) विसंवादन - पूर्वे स्वीकार की हुई हकीकत में कालान्तरे फेरफार करना इत्यादि । यह विसंवादन है ।
यद्यपि सामान्य से विसंवादन तथा वचनयोग वक्रता का अर्थ एक ही है । किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से दोनों के अर्थ में भिन्नता यानी भेद है । केवल निज की मन, वचन तथा काया की प्रवृत्ति भिन्न पड़ती होवे तब तो योग्रवक्रता कहा जाता है, और अन्य-दूसरे के विषय में भी ऐसा हो तो वह विसंवादन कहा जाता है । अर्थात् - केवल अपनी विरुद्ध प्रवृत्ति वह योगवऋता है । तथा अपनी योग प्रवृत्ति के कारण अन्य दूसरे की भी विरुद्ध प्रवृत्ति हो तो वह विसंवादन कहा जाता है । जैसे- - भय आदि के कारण जो असत्य झूठ बोले तो वह वचनयोग वक्रता है । परन्तु एक को कुछ कहे और अन्य दूसरे को कुछ कहे, ऐसा कह करके एक-दूसरे को लड़ावे तो वह विसंवादन है । तथा नीति से चलने वाले को भी श्राड़ा, अवला, समझा कर अनीति करानी इत्यादि भी विसंवादन है । अर्थात् बचनयोग वक्रता में अपनी ही प्रवृत्ति विरुद्ध होती है, जबकि विसंवादन में अपनी और पर की भी प्रवृत्ति विरुद्ध बनती है ।
विशेष - मिथ्यादर्शन, पैशून्य, अस्थिर चित्त, खोटा माप-तौल रखना, असली चीज वस्तु में नकली चीज वस्तु का मिश्रण करना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्यहरण, महाप्रारम्भ, महापरिग्रह, कठोर वचन, असभ्य वचन ( व्यर्थ बक-बक करना), वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपघात इत्यादि भी अशुभ नाम करके आस्रव हैं ।। ६-२१ ।।