Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * प्रश्न केवल इन्द्रियों के निर्देश से अन्य कषाय आदि का भी ग्रहण हो जाएगा। क्योंकि कषाय आदि की मूल इन्द्रियाँ हैं। जीव इन्द्रियों द्वारा वस्तु का ज्ञान करके उसके विषय में विचारणा करके कषायों में, अव्रतों में तथा क्रियाओं में प्रवर्तते हैं। इसलिए यहाँ पर कषाय आदि का निर्देश करने की जरूरत नहीं है।
उत्तर -जो केवल यहाँ पर इन्द्रियाँ ही ग्रहण करने में आवे तो प्रमत्त जीव के ही प्रास्रवों का कथन होता है; अप्रमत्त जीव के प्रास्रवों का कथन रह जाता है। क्योंकि अप्रमत्त जीव के इन्द्रियों द्वारा कर्मों का प्रास्रव नहीं होता है। उसके तो कषाय और योग से ही प्रास्रव होता है । अन्य एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के यथासम्भव पूर्ण इन्द्रियाँ और मन नहीं होते हुए भी कषाय आदि से आस्रव होता है। समस्त जीवों में सर्वसामान्य आस्रव का विधान हो, इसलिए इन्द्रिय आदि चारों का सूत्र में विधान-ग्रहण करना जरूरी है।
* प्रश्न -केवल कषाय का ग्रहण करने से इन्द्रिय आदि का ग्रहण हो ही जाता है । क्योंकि, साम्परायिक आस्रव में मुख्यपने कषाय ही कारण हैं। इस तरह इसी अध्याय के पांचवें सूत्र में कहने में आया है कि, कषाय से रहित इन्द्रिय आदि साम्परायिक प्रास्रव नहीं होते हैं। इसमें इन्द्रिय आदि के ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-आपका कथन सत्य है। कषाय के योग से जीव-प्रात्मा आस्रव की कैसी-कैसी प्रवृत्ति करता है, उसका स्पष्टपने बोध हो और इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए वह प्रयत्न करे, इसलिए यहाँ इन्द्रिय प्रादि पृथक् ग्रहण किये हैं ।
* प्रश्न - केवल अव्रत का ग्रहण करने से भी इन्द्रिय तथा कषाय आदि का ग्रहण हो जाता है। क्योंकि, इन्द्रिय आदि के परिणाम अव्रत में प्रवृत्ति हुए बिना होते नहीं हैं। अतः यहाँ पर इन्द्रिय आदि के ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-आपका कथन सत्य है। किन्तु अव्रत में इन्द्रिय आदि के परिणाम कारण हैं । यही जताने के लिए इन्द्रिय आदि का ग्रहण किया है।
* सारांश-उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि- इन्द्रिय आदि चार में से कोई भी एक का ग्रहण करे तो भी अन्य प्रास्रवों का उसमें समावेश हो जाता है। इस तरह होते हुए भी इन्द्रिय इत्यादि एक दूसरे में किस तरह निमित्त रूप बनते हैं, और उसके योग से कैसी-कैसी प्रवृत्ति होती है, इत्यादि कथन का स्पष्ट बोध हो जाए इस दृष्टि को रख करके यहाँ पर चारों आस्रवों का ग्रहण किया है, इन चार में भी कषाय की मुख्यता है। शेष तीनों का इसमें समावेश हो जाता है।
जैसे पूर्व में योग शुभ और अशुभ दो प्रकार के कहे हैं, उसमें शुभ योग पुण्य कर्म का प्रास्रव है और अशुभ योग पापकर्म का आस्रव है, इस तरह कहा हुआ है। वैसे ही यहाँ पर इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति भी प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार की है। उसमें प्रशस्त इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति पुण्य कर्म का प्रास्रव है, तथा अप्रशस्त इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति पापकर्म का आस्रव है।
पौद्गलिक सुख के लिए इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति अप्रशस्त है। प्रात्मकल्याण के उद्देश्य से इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति प्रशस्त है। स्त्री के अंगोपांग तथा नाटक इत्यादि देखने में चक्षुइन्द्रिय की