Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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६८ ]
षष्ठोऽध्यायः
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१६
* अधिकरणस्य भेदाः *
+ मूलसूत्रम्
प्रधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥ ६-८ ॥
* सुबोधिका टीका * द्रव्याधिकरणभावाधिकरणी द्वी भेदी अधिकरणस्य । तत्र च द्रव्याधिकरणं छेदनभेदनादि-शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणं अष्टोत्तर-शतविधम्, एतदुभयं जीवाधिकरणं अजीवाधिकरणञ्च ।
___अधिकरणस्यार्थ प्रयोजनस्याश्रयम् । जीवाजीवी द्वौ भेदो तस्य । सामान्यजीवद्रव्यं अजीवद्रव्यं वा हिंसादिकोपकरणहेतुत्वात् साम्परायिकासवहेतु । अतः तमेव जीवाधिकरणं वा अजीवाधिकरणं ज्ञेयम् । नैतदुचितम् प्रकृते बहुवचनप्रयोगः । पर्यायापेक्षयाऽधिकरणमभीष्टम् ।। ६-८ ।।
* सूत्रार्थ-अधिकरण के दो भेद हैं। (१) जीवाधिकरण तथा (२) अजीवाधिकरण ।। ६-८ ॥
5 विवेचनामृत अधिकरण के जीव और अजीव ऐसे दो भेद हैं। जिसके आधार से कार्य होता है उसको 'अधिकरण' कहते हैं। जितने शुभाशुभ कार्य हैं वे जीवाजीव उभयपक्ष द्वारा सिद्ध होते हैं । अकेले जीव या अजीव से सिद्ध नहीं होते हैं। इसलिये कर्मबन्ध के साधन जीव और अजीव दोनों अधिकरण शस्त्ररूप हैं, तथा वे द्रव्य और भाव रूप दो, दो प्रकार के हैं।
व्यक्तिगत जीव और वस्तु रूप अजीव-पुद्गल स्कन्ध को द्रव्य अधिकरण कहते हैं। तथा जीवगत कषायादिक परिणाम तथा वस्तुगत अर्थात् तलवार की तीक्ष्णता रूप शक्ति आदि को भाव अधिकरण कहते हैं। इस सूत्र का सारांश यह समझना कि-केवल जीव से या केवल अजीव से आस्रव (कर्मबन्ध) होता ही नहीं। जीव और अजीव दोनों होवे, तो ही आस्रव होता है । इसलिए यहाँ जोव और अजोव इन दोनों को आस्रव के अधिकरण कहा है। जीव प्रास्रव का कर्ता है तथा अजीव प्रास्रव में सहायक है। अतः जीव भाव (मुख्य) अधिकरण है। तथा अजीव द्रव्य ( = गौरण) अधिकरण है।
* आद्यं च जीवविषयत्वाद् भावाधिकरणमुक्त, कर्मबन्धहेतुमुख्यतः । इदं तु द्रव्याधिकरणमुच्यते, परममुख्यं, निमित्तमात्रत्वाद् ।
[प्र. ६ सू. १० की वृत्ति-टीका] १. भावः तीव्रादिपरिणाम प्रात्मनः स एवाधिकरणम् ।
[ अ. ६ सू. ८ की वृत्ति-टीका ]