Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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* प्रास्रवस्य द्वौ भेदौ *
卐 मूलसूत्रम्सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥ ६-५ ॥..
* सुबोधिका टीका * युगपत् कर्मणां बन्धः चतुर्विधः । प्रकृतिस्थितिरनुभागप्रदेशाः एतेषु प्रकृतिबंधप्रदेशबंधयोः कारणं योगः। स्थितिबंधानुभागबन्धहेतुकषायः । ये च सकषायाः तेषां योगोऽपि सकषायः । सैष त्रिविधोऽपि योगः सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोरास्रवो भवति । यथासङ्ख्यं यथासम्भवं च । सकषायस्य योगः साम्परायिकस्य प्रकषायस्य ईर्यापथस्यैवेकसमयस्थितेः ।
अत्र जघन्योत्कृष्टस्थितिरुच्यते । कर्ममिथ्यादगादीनां प्रार्द्रचर्मणि रेणुवत् । कषायपिच्छिले जीवे स्थितिमायुवदुच्यते। किन्तु ये चाकषायाः तेषां योगोऽपि कषायरहितो भवति । अतएव स्थितिबन्धस्य हेतुरभावः ॥ ६-५ ।।
* सूत्रार्थ-सकषाय जीव-प्रात्मा के साम्परायिक प्रास्रव कहा जाता है, तथा अकषाय जीव-आत्मा के ईर्यापथ प्रास्रव कहा जाता है ॥ ६-५ ।।
विवेचनामृत कषायसहित और कषायरहित जीव-आत्मा को साम्परायिक और ईर्यापथ की क्रिया हेतु से कर्मबन्ध (प्रास्रव) होता है। अर्थात्-सकषाय (कषायसहित) जीव-आत्मा का योग साम्परायिक कर्म का प्रास्रव बनता है, तथा अकषाय (कषायरहित) जीव-प्रात्मा का योग ईर्यापथ (रसरहित) कर्म का प्रास्रव बनता है।
जिसमें क्रोध तथा लोभादि कषायों का उदय हो वह सकषाय, और जिसमें उक्त क्रोधलोभादिकषाय न हों उसे कषायरहित कहते हैं ।
प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानक से यावत् दसवें गुणस्थानक पर्यन्त जीव-आत्मा न्यूनाधिक प्रमाणों से सकषाय होते हैं, तथा शेष ग्यारहवें गुणस्थानक से चौदहवें गुणस्थानक पर्यन्त अकषाय होते हैं।
___सम्पराय अर्थात् संसार। जिससे संसार में परिभ्रमण हो वह साम्परायिक कर्म है। कषाय के सहयोग से होता हुआ शुभ या अशुभ प्रास्रव भव-संसार का हेतु बनता है। क्योंकि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, तथा रस इन चारों प्रकार के बन्ध में स्थिति और रस प्रधान मुख्य हैं । इसलिए कषाय से शुभ या अशुभ स्थिति तथा रस का बन्ध अधिक होता है। इस भव-संसार का मुख्य कारण कषाय राग-द्वेष हैं।