Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
८६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५४४ पाहारककाययोगः, प्राहारकमिश्रकाययोगः, कार्मणकाययोगः एवं सप्तकाययोगान् च चत्वारश्च वचनयोगाश्च सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगाः । द्वादशविधः उपयोगः ।
यथा-पञ्चसम्यग्ज्ञानानि त्रीणि मिथ्याज्ञानानि, कुमति कुश्रुत विभङ्गादीनि, चतुर्विधं दर्शनम् चक्षुदर्शनं प्रचक्षुदर्शनं अवधिदर्शनं केवलदर्शनञ्चेति ।। ५-४४ ।।
* सूत्रार्थ-जीव द्रव्य अरूपी होते हुए भी उसके पन्द्रह योग और बारह उपयोग रूप आदिमान् परिणाम हैं। अर्थात्-जीवों में योग और उपयोग आदिमान हैं ।। ५-४४ ॥
विवेचनामृत जीवों में योग और उपयोग ये दो परिणाम आदिमान हैं।
प्रस्तुत सूत्र से सूचित होता है कि-रूपीद्रव्य के बिना जो अरूपीद्रव्य हैं, उन सभी में अनादि परिणाम होते हैं। किन्तु इस सूत्र में उसका निराकरण करते हुए कहते हैं कि-जीव यद्यपि अरूपी है, तथापि उसके योग तथा उपयोग हैं। वे आदिमान (सादि) परिणाम वाले हैं तथा शेष स्वभाव अनादि परिणाम हैं। जिसमें उपयोग का स्वरूप श्रीतत्त्वार्थ सूत्र के अध्याय-२ सूत्र १७ में कह चुके हैं। अब योग का स्वरूप आगे अध्याय-६ सूत्र १ में कहेंगे।
इस सूत्र का सारांश यह है कि-पुद्गल के सम्बन्ध से प्रात्मा में उत्पन्न होता हुआ वीर्य का परिणामविशेष योग है। तथा ज्ञान एवं दर्शन उपयोग हैं। ये दोनों परिणाम आदिमान हैं। क्योंकि वे परिणाम उत्पन्न होते हैं, तथा विनाश भी पाते हैं। पूर्व की माफिक यहाँ भी प्रवाह और व्यक्ति की अपेक्षा क्रमशः अनादि और आदि विचारणा कर लेनी चाहिए ॥ ५-४४ ।।